आज पूरे देश में दलित मुद्दों को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है. अभी हाल ही में 13 रोस्टर प्रणाली के उच्च शिक्षण संस्थानों में लागू करने का पूरे भारत मे विरोध हो रहा है. 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण का दलित पिछड़े समाज ने जमकर विरोध किया. इसकी संवैधानिक मान्यता को लेकर उच्चतम न्यायालय को लेकर अपना फैसला देना है. 2 अप्रैल को एससी एसटी एक्ट के विरोध में दलितों द्वारा किया गया देशव्यापी आंदोलन ने पूरे देश की नींव हिलाकर रख दी थी. इस आंदोलन में 10 से भी ज्यादा दलित युवकों की जान चली गयी थी. गुजरात का ऊना कांड, रोहित वेमुला कांड, शब्बीर पुर सहारनपुर का दलित कांड, उत्तराखंड में दलित बालिका के बलात्कार के बाद हत्या और भी न जाने कितने ही दिलों को झकझोर देने वाले दलित अत्यचारों व उत्पीड़न की दास्तां केवल कहानी बन कर रह गयी.
दलितों के विकास की बात करने वाले लोग तथा इन दबे कुचले लोगों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के दावा करने वाली सरकारों ने कभी वास्तविकता जानने की कोशिश की है शायद कभी नही. जिन सरकारी स्कूलों में दलितों के लिये छूट की व्यवस्था है क्या वहां से शिक्षा लेकर एक गरीब दलित प्रतिस्पर्धा के समय मे सरकारी नौकरी पा सकता है, जी नही. लेकिन कभी सरकार ने निजी शिक्षण संस्थानों के बजाय उन्हें अपग्रेड करने की सोची है? सरकारी विभागों का निजीकरण करके दलितों को नौकरी से भी वंचित किया जा रहा है. सरकारी ठेकेदारी में दलितों को कितना प्रतिनिधित्व मिल रहा है. क्या वास्तव में ही भारत मे सभी सरकारी विभागों में दलितों का बैकलॉग कोटा पूरा हो गया है. क्या इस देश की मीडिया में दलितों को कहीं स्थान मिल रहा है. इसलिये नहीं कि दलितों में योग्यता नही है बल्कि इसलिये कि आज भी जातीय भेदभाव फैला हुआ है.
उपरोक्त दो कॉलम इसलिये लिखे कि आज के शीर्षक से जुड़े आलेख को अच्छी तरह समझा जा सके. दलितों पर अत्याचार का मामला हो या उनके विकास से जुड़ी कोई योजनाएं या फिर दलित हितों से जुड़ा कोई मामला. अधिकांशतः हम सभी इसके लिए बसपा की सुप्रीमों बहन मायावती से अपेक्षाएं रखते हैं कि वो विरोध करें, मामला सदन में उठाये, जन आंदोलन करें या मीडिया को चिल्ला चिल्लाकर बताएं लेकिन हम उस वक्त सदन में बैठे आरक्षित वर्ग के 131 सांसदों को भूल जाते हैं. जो डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त आरक्षण की बदौलत ही सदन में चुनकर आते हैं. लेकिन ये अधिकांशतः 131 सांसद स्वयं दलित होते हुए भी दलितों के मुद्दे पर कुछ बोलते क्यों नही, ये चुप्पी क्यों साध लेते हैं. तो इतना अध्ययन करने के बाद ये समझ आया कि लगभग ये सभी सांसद दलित विरोधी मानसिकता रखने वाली पार्टी के सदस्य हैं. जिनकी अपनी कोई सोच नही होती.
तमाम राजनैतिक विश्लेषक और दलित चिंतक मानते हैं कि ये लगभग सभी 131 दलित सांसद सबसे कमजोर व्यक्ति होते हैं. ये भी एक कड़वा सच है कि आरक्षित सीटों पर कभी भी मजबूत दलित चुनाव नही जीत सकता वहां से हमेशा कमजोर दलित ही सांसद बनकर आते हैं. यहां मजबूत दलित से मतलब है कि जो खुलकर दलित हितों की बात कर सके. दलित अत्यचारों के खिलाफ दलितों का नेतृत्व कर सके. वो स्वयं अम्बेडकरवादी हो तथा आडंबरवाद व पाखण्डवाद से दलितों को दूर रख सके, शोषक वर्ग मतलब उच्च सवर्ण जाति के धन्ना सेठों का चापलूस न हो तब ही उसे मजबूत दलित की संज्ञा दी जा सकती है. अब आप खुद ही समझ गये होंगे कि फिर ऐसा मजबूत दलित चुनाव कैसे जीत सकता है. इसलिये आरक्षित सीटों से कमजोर दलित जो सवर्णों का मित्र हो वही चुनाव जीत सकता है. अब भला ऐसे कमजोर सांसद क्या खाक दलितों की आवाज उठाएंगे. इस मामले में मै ये कह सकता हूँ कि बसपा का दलित सांसद अन्य के मुकाबले बहुत मजबूत होता है. इसी लिए सुरक्षित सीटों पर बसपा का सांसद हार जाता है. 2014 के आंकड़े देखिये कि अकेले भाजपा से 67 दलित सांसद हैं, कांग्रेस से 13, टीएमसी से 12 व ऐडीएमके व बीजद के 7-7 सांसद हैं.
अब आखिर में हम बात करते है कि आखिर 131 दलित सांसद मजबूत कैसे बनेंगे तो आज डॉ अम्बेडकर का वो दो वोट का लिया हुआ अधिकार याद आ गया. कि कितनी दूरदर्शी सोच के साथ उन्होंने दो वोटों का अधिकार मांगा था. कितना अजीब है कि अगर आपको अपने परिवार का मुखिया चुनना हो तो भला इसमे परिवार के अलावा पड़ोसी को क्यों हक मिलना चाहिये. सीटें आरक्षित इसलिए की गयीं थी कि दलितों के प्रतिनिधि भी संसद में पहुंचने चाहिये. जब 131 प्रतिनिधि दलितों के चाहिये तो चुनने का अधिकार भी दलितों को ही मिले. मेरा सुझाव है कि सुरक्षित सीटों पर दलित प्रतिनिधि चुनने का अधिकार केवल दलितों को ही हो. सुरक्षित सीटों पर वोट का अधिकार केवल आरक्षित वर्ग को ही हो. इसलिये 2 वोटों का प्रावधान होना चाहिये. एक सुरक्षित सीट के लिये तथा एक सामान्य सीट के लिए. अगर ऐसा होता है कि केवल दलित प्रतिनिधि दलित ही चुनेंगे तो निश्चित रूप से मजबूत दलित सांसद चुनकर जायेंगे जो सदन में मजबूत ताकत बनेंगे. वरना सुरक्षित सीट पर गैर दलित हमेशा उसे चुनते हैं जो उनका हितैषी हो. दलितों का भला चाहने वाले सभी राजनैतिक दल अगर वास्तव में दलितों का विकास चाहते हैं तो एक बार करके तो देखिए वरना ढोंग भी मत कीजिये.
दीपक मौर्य
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