पीएम मोदी ने सेना की उपलब्धि को ठीक उसी तरह भुनाया जिसका अंदेशा था. इंडिया टुडे कॉनक्लेव में वो ठीक वही बोले जिसका अंदाज़ा था. उन्होंने मोदी विरोध और देश विरोध एक कर दिया. खुद पर उठ रहे सवालों को सेना के शौर्य और क्षमता पर प्रश्न बना दिया. मोदी सरकार के राजनीतिक फैसलों पर विपक्षियों के एतराज़ को आतंकियों पर हो रही कार्रवाई पर ऐतराज़ बना डाला.
ये बेहद खतरनाक रास्ता है. नरेंद्र मोदी उस तरफ चल पड़े हैं. एक सीधी-सीधी सैन्य तानाशाही होती है जिसमें सेनाध्यक्ष ही राष्ट्राध्यक्ष बन जाता है. आधा मुल्क सेना की ताकत से डर कर विरोध नहीं करता और बाकी आधा उस वरदी के सम्मान में मूक रहता है. भारत सौभाग्यशाली है कि इस तरह की तानाशाही उसने कभी देखी नहीं लेकिन मोदी दूसरी तरह से इसी चीज़ को देश और अपने विरोधियों पर लाद रहे हैं.
अपने हर फैसले के बचाव में सेना, सेना की क्षमता, सेना के सम्मान को ढाल बनाना खुद ही सेना का अपमान है. वैसे भी नरेंद्र मोदी ‘देशविरोध’ या ‘देश के अपमान’ पर जो सबक कॉन्क्लेव में खड़े होकर दे रहे थे मेरी निजी राय में उन्हें ये नैतिक अधिकार नहीं है. उनके गुजरात शासन में भारत ने जो कुछ 2002 में झेला उसकी कालिख मिटी नहीं है. देश ज़्यादा शर्मिंदा तब होता है जब अपने ही सिद्धांतों के खिलाफ हो रही किसी वारदात का गवाह बनता है. उनका अपना राजनैतिक प्रादुर्भाव उस दुर्घटना का परिणाम है. किसी को देशहित या देशविरोध समझाने की क्लास लेने की उन्हें कतई ज़रूरत नहीं है. इस देश का हर व्यक्ति चाहे वो किसी भी दल, धर्म, जाति, लिंग, राज्य से संबंध रखता हो देश का भला ही चाहता है, हां तौर-तरीके जुदा हो सकते हैं.
बाकी सेना के ‘कुछ ज़्यादा ही’ इस्तेमाल को लेकर मेरी फिक्र को कृपया मोदी से जोड़कर सीमित करके ना देखें, क्योंकि मोदी कल रहें या ना रहें मगर इस फॉर्मूले की सफलता नए प्रधानमंत्रियों को इसके इस्तेमाल के लोभ में ज़रूर डालती रहेगी. ये ज़्यादा चिंताजनक है.
- टीवी पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से
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