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संत शिरोमणी गुरू रविदास महाराज जी
दोहाः- चैदाह सौ तैंतीस की माघ सूदी प्रन्द्रास. दुखियों के कल्याण हेतू प्रकटे श्री गुरू रविदास.
उनका जन्म भारत के प्रसिद्ध शहर वाराणसी के नजदीक 15 पूर्णिमा (1433) सन 1377 में हुआ. पिता श्री संतोख दास, माता पूज्यनीय कलसा देवी जी की पावन खोक से गांव सीर गोवर्धनपुर में दुखियों का कल्याण करने के लिए आगमन हुआ. दादा जी श्रीमान कालू राम जस्सल, दादी जी श्रीमति लखपती जी, पुत्र श्री विजय दास जी, पत्नी श्रीमति लोना देवी जी.
भारतीय हिन्दू विश्वाविद्यालय वाराणसी के निकट शूद्रों की बस्ती में जिसे सीर करै हिया कहते हैं. यहीं ईमली का पेड़ है जिसके नीचे बैठकर सत्संग किया करते थे. श्री गुरू ग्रंथ साहिब में भी गुरू जी का नाम श्री गुरू रविदास है.
शिक्षा- शिक्षा से वंचित रहे क्योंकि शुद्रों को शिक्षा देना जुर्म समझते थे तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले की आंखे तक निकाल देते थे. गुरू जी स्वयं ही शिक्षित हुए, उनकी वाणियों तथा पदों से जो वर्णन मिलता है वह एक बहुत ही अच्छे संगीतकार थे. उनका शब्द कोष बहुत विशाल था. उनकी वाणियां पंजाबी, राजस्थानी, मराठी, खड़ी बोली, हिन्दी, अरबी तथा फारसी में पाई जाती है. उन्होंने एशिया के सभी देशों की यात्राएं की तथा अपने प्रभावशाली विचारों से लोगों को निम्नलिखित वाणी/विचारों से प्रभावित किया.
नाना खियान पुरान वेद विधि चऊतीस अक्षर माही..1..
विआस विचारि कहिओ परमारथ राम नाम सरि नही..2..
सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बड़ै भागि लिव लागी..
कह रविदास प्रगास रिदै धरि जन्म मरन सै भागि..3..
गुरू जी की उक्त वाणी में चऊतीस अक्षरों की गुरूमुखी लिपि उनके मुख से उजागर हुई है. इस बारे लाहौर में मुकदमा दायर किया गया और 11.03.1931 को फैसला आया कि गुरूमुखी लिपि का निर्माण गुरू रविदास जी ने ही किया था.
‘माधो अविदिया हित लीन. विवके दीप मलीन‘.
गुरू रविदास जी ने विवेक के दीप को जलाने के लिए गुरूमुखी के चैतीस अक्षरों की रचना की, जिससे समाज में जागृती आई और ज्ञानवान बनने की किरण फूटी. “गुरू रविदास जी का तेज, प्रताप तथा यश सूर्य की भांति फैल गया“. (लेखक तथा इतिहासकार मैकालिया) लेखक ज्ञानी गुरूबचन सिहं वैद ने भी इस प़क्ष की पूरी पुष्टि की. वास्तव में अक्षर चैतीस ही है परंतु पंड़ितों ने इसे कठिन बनाने के लिए बावन अक्षर बना दिए.
अछुत वर्ग तथा स्त्री (किसी भी जाति की हो) को संस्कृत भाषा पढ़ना व पढ़ाना पर बिल्कुल प्रतिबंध था. इसको पूरा करने के लिए गुरू जी ने अक्षर बनाये ताकि अछुत वर्ग तथा स्त्री को पढ़ने का मौका मिले और मनुबाद की पराधीनता से मुक्त होकर सम्मानित जीवन जी सके और उन्नति करें.
स्त्री वर्ग का कल्याण-
मनुवाद ने अछूत तथा सभी वर्गाे्र की स्त्रियों को ताड़न के अधिकारी बताया गया. परंतु गुरू जी ने सारे हिन्दूस्तान में उपदेश दिए तथा उनके धार्मिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर समाज के प्रत्येक लोग तथा स्त्री मीराबाई, झाला रानी समेत सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया. उस समय नारी को शिष्य बनने का अधिकार नहीं था परंतु गुरू जी ने उनको दीक्षा प्रदान करते हुए उनको भव सागर से पार किया.
गुरू नानक देव जी का सच्चा सौदा तथा गुरू रविदास जी-
गुरू नानक देव जी कुछ साधुओें की टोली साथ गुरू रविदास जी की अगुवाई में चुहड़काने (पाकिस्तान) में सच्चा सौदा किया. गुरू रविदास जी सच्चे सौदे से संतुष्ट हुए और गुरू नानक का माथा दायें अंगुठे से गुरू जी ने छुआ और दीक्षा प्रदान की. गुरू नानक देव जी को एकदम तीनों लोक का ज्ञान प्राप्त हुआ. उनके मुख से वाह गुरू निकला जो आज “वाहेगुरू“ बोला जाता है. उस समय गुरू रविदास जी के लगभग 52 राजा तथा रानी शिष्य बनें. जो सभी राजपूत ही थे. यदि उस समय कानून होता तो अछुतो के हितों को गुरू जी कलम बंद करवा सकते थे.
गुरू रविदास जी के उपदेश तथा वाणी सभी वर्गाें के लिए है-
गुरू रविदास जी जी की वाणी तथा उपदेश केवल शुद्रों के लिए नहीं बल्कि सभी वर्गों के लिए है. सुप्रसिद्ध लेखिका गेल ओम्वेट ने अपनी पुस्तक “सीकिंग वेगमपुरा“ में संत गुरू रविदास जी का संपूर्ण भारतीय इतिहास में प्रथम व्यक्ति माना है जिन्होंने आदर्श भारतीय इतिहास का माडल पेश किया है. “सीकिंग वेगमपुरा“ का मतलब है कि बिना गमों का शहर जो जाति विहिन, वर्ग विहीन आधुनिक समाज है.
1. “पराधीनता पाप है, जानले रे मीत.
रविदास प्राधीन सो कोनर करे है प्रीत“..
अर्थ- गुरू रविदास जी ने दूसरों की गुंलामी को पाप बताया.
2. ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न.
छोट बढे सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न..
अर्थ- इतिहास में गुरू जी ने सबसे पहले खादय सुरक्षा की बात उठाई.
3. रविदास मनुष्य करि वसन कूं,
सुखकर है दुई ढांव एक सुख है स्वराज यहि दूसरा मरघट गांव..
अर्थ- इतिहास में गुरू जी न सबसे पहले शांतिपुूर्वक जीने के लिए दो ही स्थान बताए. एक स्वयंराज दूसरा शमशान घाट अर्थात मृत्यू.
4. सत विद्यया को पढ़े, प्राप्त करे सदा ज्ञान.
रविदास कह बिन विद्यया नर को ज्ञान अज्ञान..
अर्थ- रविदास जी कहते है कि केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त करना महत्वपूर्ण नहीं है अपितु सही ज्ञान सतविद्यया प्राप्त करने के बाद मनुष्य समाज कल्याण हेतू प्रयास करता है. वही असली ज्ञानी है अन्यथा उसे अज्ञानी ही मानना चाहिए.
5. पांडे रे विच अंतर डाढा. मुड मुडावे सेवा पूजा, भ्रम का बन्धन गाढ़ा..
अर्थ- हरे पांडे तुझमें और भगवान में बहुत अंतर है. तुमने तो पाखंडवाद फैला रखा है जिसमें तुम लोगों के सिर मुडवाकर तरह तरह से पूजा करवाते हों. भ्रम का गहरा झाल फैलाये बैठे हो. जब मनुष्य और प्रकृतिक रूप भगवान का संबंध अति सहज है.
6. रविदास जन्म के कारण होत न कोई नीच.
नर कूं करि नीच डारि है औछे कर्म की कीच..
अर्थ- नर जन्म के आधार पर नीच नहीं है. मनुष्य को नीच उसका औछा व्यवहार बनाता है.
7. जात पात में जात है ज्यो केलन में पात.
रविदास न मनुष्य जुड़ सके जो लों जात ना पात..
अर्थ-जैसे केले के पेड़ के तने में एक के बाद एक परत छुपि रहती है. परंतु वहां पर कोई ठोस पदार्थ नहीं होता. इसी प्रकार मनुष्य में भी जात में जात छुपी रहती है लेकिन उनको भी बांटने का कोई ठोस आधार नहीं होता.
8. “चारों वेद किया खंडोति. जन रविदास करै दण्डोति..“
अर्थ-गुरू रविदास जी ने चारों वेदों को खंडन किया है जो हमार समाज के लिए व्यर्थ घोषित किया है. ऐसे व्यक्ति को जन समुदाय दंडवत प्रणाम करता है.
संपूर्ण समाज के लए आर्दश समाज का माटल “बेगम पुरा“
“बेगमपुरा शहर को नाऊ. दुःख उन्दोहु नही तिही ठाऊ“..
ना तसवीस खिराजु न माल. खौफन खता तरसुना जवालु..
अत माही खूब वतन रह पाई. वहां खैरी सदा मेरे भाई..
काईमु दाइसु सदा पातसाही. दोम न सोम एक सो आहि..
आबा दानु सदा यतसहुर. वहां गनी वसी मामूर..
तिऊ तिऊ सैल करहि जिऊ भानै. मरहम महम न को अठकाले..
कहि रविदास खलास चमार. जो हम सहरी तु मीत हमारा..
अर्थ- बेगमपुरा बिना गमों का शहर वहां कोई चिंता, टैक्स, खौफ, धोखा, लाचारी अभाव नहीें है. वहां मनुष्य का सदा ही भला होता है. वहां सही विचारों की हकुमत है. वहां कोई दुसरा, तीसरा दर्जा नहीं है. सभी समान है. वहां कोई धर्म, जाति, लिंग, भाषा, स्थान का भेदभाव नहीं है. वहां कानून के अनुसार आचरण करते है. वहां सभी कहीं भी घूम सकते हैं. वहां राजा या उसके कर्मचारी किसी को रोकते नहीं है. किसी की आजादी का हलन नहीं करते है. जो इन विचारो के समर्थन है वह मेरे साथी है.
गुरू रविदास जी के कोई गुरू नहीं थे-
जब गुरू रविदास जी का जन्म (25.01.1377) में हुआ तो उस समय शुद्रों को कोई शिष्य नहीं बनाता था. पंडितों ने आरम्भ से ही लोगों को भ्रम में डाल रखा है कि वह स्वामी रामनन्द के शिष्य थे. जो बिल्कुल गलत है. रामनन्द का जन्म 1423 में हुआ था. वह गुरू जी से 10 वर्ष बढ़े थे. गुरू रामनन्द के पिता ने उन्हें अनेक स्कूल तथा वेदांे की शिक्षा ग्रहण करने के लिए 15-16 वर्ष तक बाहर भेजा.
1. वह 15,16 वर्षों तक वेदाचार्यों के पाठ ज्ञान अर्जित करते रहे. तो वह वैसे गुरू रविदास जी को दीक्षा दे सकते थे.
2. वह गुरू रविदास जी शुद्र थे. शुद्रों को दीक्षा पर प्रतिबंध था. दीक्षा देने वाले को भी ब्राहाण समाज में सजा देने का प्रवाधान था.
3. यह ठीक है कि गुरू रामानन्द, सन्त कबीर साहेब के गुरू थे. कबिर साहेब ने भी गुरू रामानन्द को धोखा देकर गुरू बनाया था. जब गुरू रामानन्द सवेरे गंगा स्नान करते थे उसी पोड़ी पर कबीर साहेब अन्धेरे में लेट गये. जब रामानन्द जी आये तो कबीर साहेब की ठोकर लग गई तो रामानन्द जी घबराये देखा कोई पोड़ी पर सो रहा है. तो गुरू रामानन्द ने उस के सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया. कबीर साहेब खुश हुए और अपने आप को गुरू रामानन्द के शिष्य कहने लगे. जब सभी ब्राहणों ने पता चला कि गुरू रामानन्द के शुद्र को कैसे दीक्षा दे दी. ब्रहाण समाज ने बुरू रामानन्द के सामने बवाल रच दिया. गुरू रामानन्द ने कहा मैं कभी भी शुद्र को दीक्षा नहीं देता. परन्तु कबीर साहेब कह रहें है कि मैने दीक्षा गुरू रामानन्द से ली है, वह मेरे गुरू है. ब्रह्यणों ने कबीर साहेब को रामानन्द के पास बुलाया गया और संत कबीर साहेब फिर दोहराया कि मैंने दीक्षा गुरू रामानन्द से ली है.
उन्होने गुरू रामानन्द को वह सवेरे गंगा घाट की पोड़ी वाली घटना की याद दिलाई कि रामानन्द ने कहा उन्हे दीक्षा मैने ही दी है, पर धोखे से. उनके दूसरे शिष्य है, सुखानन्द, सरेशानन्द, अननानन्द इत्यादि थे. यदि वह कबीर साहेब को दीक्षा देते तो कबीर साहेब भी कबीरनन्द होते. इस प्रकार गुरू रविदास उनके चेले होते तो वह भी रविदास की बजाये रविनन्द होते.
इसीलिए गुरू रविदास जी का कोई गुरू नही था. गुरू जी ने तो स्वयं भी ज्ञान अर्जित किया. असल में गुरू रविदास जी तो जन्म से परमात्मा रूप थे उन्होने गुरू ही आवश्यकता ही नही थी. यहां यह कहना भी आवश्यक है कि गुरू रविदास के जन्म के पांच या छह दिन बाद गुरू रामानन्द गुरू रविदास को शुद्रों की बस्ती में दर्शन आये.
श्री खुरालगढ़ साहेब दर्शनः
ईसवी 1515 में गांव खुरालगढ़ तहसील गढ़संकर जिला होशियापुर में गुरू रविदास जी लुधियाना से होते हुए फगवाडा(चक हकीम नगर ) जहां गुरू जी कुछ दिनो के लिए जहां आज सुंदर साहेब गुरूद्वारा है उस समय वहां राजा बैन सिंह थे. राजा बैन संत मीराबाई के रिश्ते में मौसा थे (मीरा की माता के बहनोई). गुरू जी शुद्रो की बस्ती में बाबा धन्ना तथा देविया के घर सत्संग करते थे. वहां मीराबाई भी गुरू जी के दर्शन करने पहुंच गई. मीरा जी की खबर राजा बैन को मिल गई कि मीराबाई खुरालगढ़ सत्संग में पहुच गई है. राजा बैन ने तुरन्त शुद्रो की बस्ती में सिपाही भेजकर गुरू रविदास जी को अपनी कचहैरी में बुलवा लिया. गुरू जी के साथ धन्ना तथा दैविया भी आ गये. राजा बैन ने गुरू जी को शुद्र होते हुए सत्संग करने का दोषी करार कर दिया. सजा में गुरू जी को चक्की (जो बैलों से चलती थी) से आटा पिसने के आदेश दे दिये. गुरू जी ने प्रभु को याद किया थोडी देर में चक्की अपने आप ही चलने लगी. राजा बैन को इस घटना की सूचना दी तो राजा बैन गुरू जी के पास जेल में आ पहुॅुचे और गुरू जी से क्षमा मांगी गुरू जी ने उन्हे क्षमा कर दिया फिर राजा ने अपनी सम्सयाएॅं गुरू जी के सामने रखी.
1 अनाज की अकाल.
2 पानी की समस्या.
अनाज की समस्या बारे गुरू जी ने शुद्रो की बस्ती में एक गुरूमुखी राम दासी जो बहुत गरीब और गुरू जी का सत्संग करती थी. उसके घर से एक मण गेहूॅं मगवाई, राजा ने नौकरो को भेजा तथा गेहूॅं लाने के आदेश दिए. नौकर रामदासी के घर पहुंचे और गेहूॅं की मांग करी परन्तु गेहू तो उसके पास थी नही. फिर नौकरो ने गुरू जी के बारे बताया गया. रामदासी जी ने कहा देख लो कहीं होगी तो ले जाना. उसकी कोठी से एक मण गेहू मिल गयी और वह गेहू गुरू जी को दे दी तथा रामदासी भी साथ चली आई. गुरू जी ने नौकरो को कहा इस गेहॅंू को इस चक्की में डालो और परदे लगवा दिए. चक्की खूब चली, जब तक चले तो इसको रोकना नही. आटे के ढेर के ढेर लग गये और सारी जनता आटे को घर ले गई इस तरह अनाज की समस्या हल हो गई. चक्की लगातार चलती रही.
पानी की समस्या बारे गुरू जी ने कहा जेल से दो किलोमीटर तक मेरे साथ चलो. खुरालगढ का पहाडी ऐरिया होने के कारण से वहां बडे बडे पत्थर पडे थे उनमें से एक पत्थर को गुरू जी ने कहा क् िइस पत्थर को उठाओ. पत्थर को स्वयं राजा ने तथा नौकरो ने भी उठाया परन्तु भारी होने के कारण वह नही हिला. फिर गुरू जी ने अपने दाएं पैर के अगूठे से छुआ तो पत्थर दूर पडा और पत्थर के नीचे से पानी ऊपर की ओर आया. वहां आज भी एक अमृत कुण्ड है तथा गुरू जी का मंदिर भी है और उसे “चरण छूं गंगा“ के नाम से पुकारते है. वहां के पानी से सारी समस्याएं हल हो गई उस दिन से जेल को गुरद्वारे में बदल दिया. उसी गुरूद्वारे में गुरू जी चार वर्ष दो महीने ग्यारह दिन तक रहे तथा वहां तप भी किया. इसी स्थान पर तप स्थान श्री गुरू रविदास खुरालगढ साहेब (रजि. 305) स्थित है. यहां रात दिन संगत आती जाती है और श्री गुरू स्थान के दशर्नो का लाभ उठाती है तथा अटूट लंगर चलता रहता है.
संवत 1584 (06.03.1528) को 151 वर्ष 1 महिना 10 दिन की आयु के बाद चितौड़गढ़ में गम्भीर नदी के तट पर श्री गुरू रविदास जी ब्रह्यलीन हुए.
श्री गुरू ग्रंथ साहेब तथा गुरू रविदास जी-
श्री गुरू ग्रंथ साहेब सारी दुनिया मं अति पवित्र ग्रंथ के रूप में पूजा होती है. श्री गुरू ग्रंथ साहेब में सारे मानवतावादी गुरूओं की वाणियों को संजोया गया है तथा मनुवादी विचारों से परहेज रखते हुए दूर ही रख गया है. देवी, देवताओं, माता मसाणियों, ब्रह्यणवाद तथा सभी आडम्बरों को कहीं भी गुरू ग्रन्थ साहेब ने मान्यता नहीं दी गई. श्री गुरू रविदास जी की चालिस वाणियों तथा एक श्लोक को गुरू ग्रंथ साहेब में संजोया गया है.
सारी दुनिया श्री गुरूद्वारों में गुरू रविदास की वाणियां तथा आरती गाई जाती है. गुरू रविदास जी की आरती पाखण्ड रहित तथा सहज है. गुरू जी के बारे में जितना भी लिखे उतना ही थोड़ा है अर्थात इसका कोई अन्त नहीं है.
यू. एन. ओ. की टोरांटो में हुए सम्मेलन में ऐलान किया गया था कि विश्व सरकार का संविधान का आधार श्री ग्रंथ साहेब होगा और उसकी प्रस्तावना सतगुरू रविदास जी के शब्द बेगमपुरा पर आधारित होगी. इसी तरह मानवता कि मशीहा डा0 बी. आर. अम्बेडकर जी ने भारतीय संविधान की नींव प्रस्तावना और संविधान की रूप रेखा का सृजन सतगुरू रविदास जी के “बेगमपुरा“ शब्द के आधार पर किया गया है.
शेर सिहं डांडे
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