Written By- डॉ. राजकुमार
फिलहाल परीक्षा परिणामों का वक्त है। दसवीं और 12वीं के नतीजे आ चुके हैं। यहां से बच्चे और अभिभावक भविष्य के सपने बुनना शुरु करते हैं। 12वीं पास कर चुके बच्चों पर प्रेशर ज्यादा होता है, क्योंकि यहीं से ‘अच्छे विश्वविद्यालयों’ में प्रवेश पाने की प्रतिस्पर्धा शुरू होती है।
खास तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में अंकों के आधार पर एडमिशन ने देश भर में 12वीं के छात्रों एवं उनके अभिभावकों पर बेवजह का मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दबाव बना दिया है। प्रवेश परीक्षा कराने से बहुत सी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है लेकिन विश्वविद्यालय एवं सरकार की न जाने कौन सी मजबूरी है कि छात्रों को गला काट प्रतिशत दौड़ से मुक्ति नहीं दिलाना चाहती। प्रवेश परीक्षा होने पर छात्र ज्ञान के लिए पढ़ेंगे, मात्र नम्बर प्राप्त करने के लिए नहीं। क्योंकि अब पूरी दुनिया यह समझ चुकी है कि योग्यता और मार्क्स का कोई सीधा संबंध नहीं है। चंद रईस परिवारों के बच्चे अपने खानदानी संसाधनों के बल पर 90-95 प्रतिशत तक अंक लाकर साधन विहिन अन्य करोड़ों छात्रों पर एक षडयंत्रकारी मनोवैज्ञानिक बढ़त बना लेते हैं। हालांकि यह भी एक सच है कि ये 90% वाले छात्र ग्रेजुएशन करने के बाद अधिकांशतः गुमनाम ग्रेजुएट बनकर करोड़ों की भीड़ में विलीन हो जाते हैं और ऐसे अनेको छात्र जो सुविधाओं के अभाव में राज्य बोर्डों से 50-60% अंक के साथ पास होते हैं, जीवन की दौड़ में में कहीं अधिक सार्थक एवं सफल मुकाम हासिल कर लेते हैं।
कैसी विडंबना है कि ग्रेजुएशन में 60% मार्क्स प्राप्त करके भी आप IAS टॉप कर सकते हैं लेकिन 95% मार्क्स प्राप्त करके भी आपको आपकी पसंद का कॉलेज या कोर्स में दाखिला मिलने की कोई गारंटी नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि निक्कमी सरकारें देश में नये विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय एवं कॉलेजों की स्थापना तो कर नहीं सकती, और देश में जो दो चार पढ़ने योग्य संस्थान हैं वहां सबको एडमिशन मिल नहीं सकता, इसलिए ये प्रतिशत की चारदीवारी आम लोगों के बच्चों को इन शिक्षण संस्थानों में प्रवेश करने से रोकने के लिए तथा अपने सनातनी वर्चस्व को बचाने के लिए बड़ी बेशर्मी से खड़ी कर दी गई हैं।
जिस तरह मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं कुछ अन्य कोर्सों में प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उसी तरह BA, BCOM, BSC में भी प्रवेश परीक्षा के आधार पर ही प्रवेश कराने की जरूरत है। निश्चित रूप से इससे शिक्षा का स्तर व्यापक रूप से सुधरेगा। जहां हर आर्थिक स्थिति वाले मां-बाप अपने बच्चों को शिक्षा दिला सकें। हालांकि सर्वोत्तम स्थिति तो वह होगी जब हर पढ़ने के इच्छुक स्टूडेंट को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के सुलभ एवं समान अवसर उपलब्ध हों। देश भर के अभिभावकों को इस दिशा में गंभीरता से सोचने और आंदोलन करने की जरूरत है। आखिर दांव पर उनके बच्चों का भविष्य लगा है। और प्रतिशत की यह प्रतिस्पर्धा उनके बच्चों के भविष्य से खेल रही है।
इस आलेख के लेखक डॉ. राजकुमार दिल्ली विश्वविद्यलाय के दयाल सिंह कॉलेज में प्रोफेसर हैं।
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