सदियों से तुम्हारे
शास्त्रों, शस्त्रों और बहियों का बोझ
मेरी जर्जर देह ने ही उठाया है
बैलगाड़ी में जुते बीमार बैल की तरह
मैं ही वाहक रहा हूँ तुम्हारी सब कामनाओं का
अब तुम्हारा बैल मर ही न जाए
गिर कर चूर ही न हो जाए
इसलिए तुम देते आये हो उसे कुछ टुकड़े
जिन्दा भर रहने को
अब जब तुम्हारी कामनाएं और लक्ष्य
अधिक विशाल हुए जा रहे हैं
तुम्हें चाहिए एक मजबूत बैल
इसलिए अब तुम उछाले जा रहे
उन टुकड़ों का आकार बढ़ा रहे हो
यही तुम्हारा सुधार है
लेकिन मुझे टुकड़े टुकड़े सुधार नहीं
एकमुश्त बदलाव चाहिए
मैं बैलगाड़ी के जुए से आजाद हो
तुमसे नजरे मिलाकर चलना चाहता हूँ
तुम्हारे शास्त्रों, शस्त्रों का बोझ फेंककर
अपने शास्त्र और शस्त्र रचना चाहता हूँ
मैं तुम्हारी यात्रा का साधन नहीं
बल्कि अपने लक्ष्य का साधक बनना चाहता हूँ
अपने गंतव्य और मार्ग
स्वयं चुनना चाहता हूँ
– संजय श्रमण
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।