महाकवि कबीर ने कहा है-‘सहज सहज सब कोई कहे, सहज न जाने कोइ।’ हालांकि जननायक कर्पूरी ठाकुर का संपूर्ण जीवन ही सहजता का पर्याय था। कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया में 24 जनवरी, 1924 को हुआ था। बाद में उनके सम्मान में इस गांव का नाम कर्पूरीग्राम हो गया। सामाजिक रुप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में उनका जन्म हुआ। कर्पूरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता है। उनका पूरा जीवन संघर्ष की मिसाल रहा। तो अपने राजनीतिक जीवन को भी उन्होंने निष्कलंक और पूरी ईमानदारी के साथ जीया और हमेशा गरीबों और शोषितों की भलाई के लिए सोचते और लड़ते रहें। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में बिताए थे।
आजादी के बाद उनके राजनीतिक जीवन को नई ऊंचाई मिली। तब सत्ता में आने पर देश भर में कांग्रेस के भीतर कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। कमान कर्पूरी ठाकुर को मिली। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। अपने शासनकाल में उन्होंने गरीबों के हक के लिए काम किया। पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अति पिछड़ों को हक दिलाने के लिए मुंगेरी लाल आयोग का गठन किया। उनके दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर प्रदेश के शासन-प्रशासन में पिछड़े वर्ग की भागीदारी की बात उठी। तब इसमें उनकी भागीदारी नहीं थी। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया, जिससे पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलने लगा। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने जिस सादगी के साथ गरीबों का उत्थान किया, वैसी मिसाल कहीं और देखने को नहीं मिली।
दलितों, पिछड़ों, शोषितों और वंचितों के मसीहा कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर बिहार में समाजवाद के सबसे मजबूत स्तम्भ थे। उन्होंने बिहार की राजनीति में पारदर्शिता, ईमानदारी और जन-भागीदारी के जो प्रतिमान स्थापित किया, उसे आज तक कोई राजनेता पार नहीं कर पाया। एक गरीब नाई परिवार से आए कर्पूरी जी सत्ता के तमाम प्रलोभन और आकर्षण के बीच भी जीवन भर सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति बने रहे। ईमानदारी ऐसी कि अपने लंबे मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल कभी व्यक्तिगत कार्यों के लिए नहीं किया। उनके परवर्ती मुख्यमंत्रियों के घरों में कीमती गाड़ियों का काफ़िला देखने के आदि लोगों को शायद इस बात पर विश्वास नहीं होगा कि कर्पूरी जी ने अपने परिवार के लोगों को कभी सरकारी गाड़ी के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं दी। एक बार तो उन्होंने अपनी बेहद बीमार पत्नी को रिक्शे से अस्पताल भिजवाया था ।
कर्पूरी ठाकुर का स्वभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक एक-सा बना रहा। बोलचाल, भाषाशैली, खान-पान, रहन-सहन और रीति-नीति आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने ग्रामीण संस्कार और संस्कृति को अपनाए रखा। सभा-सम्मेलनों तथा पार्टी और विधानसभा की बैठकों में भी उन्होंने बड़े से बड़े प्रश्नों पर बोलते समय उन्हीं लोकोक्तियों और मुहावरों का, जो हमारे गांवों और घरों में बोले जाते हैं, हमेशा इस्तेमाल किया। कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबररहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। श्री ठाकुर विनम्र किन्तु निर्भीक थे। उनकी सूझबूझ का मुकाबला नहीं था। राजनीतिक आंदोलन के दौरान वो कार्यकर्ताओं को पूरा सम्मान देते थे। वे सबसे गरीब कार्यकर्ता के घर रूकते थे, खाना खाते थे और सोते थे। उनका अपना घर छप्पर का था जहां एक खाट की जगह थी। झुककर उस झोपड़ी के अंदर जाया जा सकता था।
कर्पूरी जी जीवन भर बिहार के हक की लड़ाई लड़ते रहे। वह खनिज पदार्थ के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध, खनिजों की रायल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने तथा पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की मांग के लिए संघर्ष करते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में सीतामढ़ी के सोनवरसा विधानसभा क्षेत्र का विधायक रहते हुए उन्होंने श्री देवीलाल द्वारा प्रदान न्याय रथ से बिहार को जगाया। 17 फरवरी, 1988 को वे हमारे बीच से सदा के लिए चले गए। कर्पूरी ठाकुर की लोकप्रियता का अंदाजा इस बाद से भी लगाया जा सकता है कि उनकी अंत्येष्टि में अभूतपूर्व भीड़ उमड़ पड़ी थी। उनकी मृत्यु पर आमजन को रोते-बिलखते देखा जा सकता था। कर्पूरी ठाकुर के बाद बिहार का कोई नेता ‘जन नायक’ नहीं बन पाया।
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