अमेरिका के मिनीपोलिस की एक पुलिस हिरासत में गत 25 मई को श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन द्वारा जिस अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की घुटने से गर्दन दबाकर हत्या किए जाने का वीडियो सामने आने के बाद पिछले 52 सालों में उग्र धरना-प्रदर्शनों का जो सबसे बड़ा सिलसिला शुरू हुआ, उनको गत मंगलवार को ह्यूस्टन में दफना दिया गया। इस दौरान अमेरिका के टेक्सास के ह्यूस्टन स्थित ‘ह्यूस्टन मेमोरियल गार्डेन्स कब्रिस्तान’ में हजारों की संख्या में जमा लोगों ने नम आंखों से उनको अंतिम विदाई दी। लोगों ने नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का संकल्प भी लिया। बहरहाल फ्लॉयड तो दफन हो गए किन्तु उनकी मौत के बाद विरोध प्रदर्शनों का जो सिलसिला अमेरिका के 50 में से 40 से अधिक राज्यों के लागभग 150 शहरों तक फैला, उनमें खूब कमी नहीं आई है। आज भी ढेरों शहरों में लोग हाथों में ‘नोजस्टिस, नो पीस’ और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे नारे लगी तख्तियाँ लिए लिए वह मंजर पैदा कर रहें हैं, जिसे देखकर मौजूदा सरकार की पेशानी पर चिंता की लकीरें और गहरी हुये जा रही है।
पुलिस सुधारों की घोषणा के लिए बाध्य हुये: डोनाल्ड ट्रम्प
इस बीच इस घटना क्रम में एक नया मोड़ यह आया है कि प्रदर्शनकारियों के बढ़ते दबाव के आगे झुकते हुये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पुलिस सुधारों की बात मान ली है। फ्लॉयड के दफनाये जाने के अगले दिन डलास में इस आशय की घोषणा करते हुये उन्होंने कहा कि,’ दो हफ्ते पहले जो कुछ हुआ उससे देश कि प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है। पिछले दो हफ्तों में लोग मारे गए और यह अत्यधिक डरावना और अनुचित है। इनमें कई पुलिस अधिकारी थे। यह बहुत ही खराब स्थिति थी। मैं इसे दोबारा नहीं देखना चाहता।.. हम उस शासकीय आदेश को अंतिम रूप देने पर काम कर रहे हैं जिसमें देशभर में पुलिस विभाग बल प्रयोग के लिए मौजूदा पेशेवर मानकों पर खरा उतर सके।‘ पुलिस सुधार की दिशा में आगे बढना निश्चय ही जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद शुरू हुये धरना प्रदर्शनों की बड़ी विजय है, क्योंकि ये धरना-प्रदर्शन पुलिस सुधारों को लेकर ही शुरू हुये थे। बहरहाल ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों की घोषणा के बाद जब अमेरिका से शुरू होकर विश्व के कई देशो तक फैले इन धरना -प्रदर्शनों का सिलसिला थम जाने की उम्मीद दिखने लगी, तभी एक और घटना सामने आ गयी।
एक और नस्लीय हत्या
ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों में घोषणा के दो दिन बाद ही 12 जून को अटलांटा में एक श्वेत पुलिस अफसर द्वारा रेशर्ड ब्रुक्स नामक एक अश्वेत की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। ब्रुक्स पार्किंग में खड़ी कार में सो रहा था। पुलिस को लगा वह नशे मे हैं। पूछताछ में पुलिस से झड़प हो गयी और ब्रुक्स पुलिस अफसर का गन छीनकर भाग निकला। दूसरे अफसर ने उसका पीछा किया। इतने मे ब्रुक्स पलटा और उसने पुलिस अफसर पर गन तान दी। तभी अफसर ने उस पर गोली दाग दी। बाद में अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। घटना के बाद श्वेत पुलिस चीफ एरिका शिल्ड्स ने इस्तीफा दे दिया। उसकी जगह उनके जूनियर अश्वेत पुलिस अधिकारी रॉडनी ब्रायंट की तैनाती हो गयी। उधर 13 जून को प्रदर्शनकारियों ने उस रेस्तरां में आग लगा दी, जहां ब्रुक्स को गोली मारी गयी थी। अब अटलांटा की घटना के बाद लगता है फ्लॉयड की मौत के बाद धरना-प्रदर्शनों का जो सिलसिला हुआ लगता है वह ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधार का आश्वासन दिये जाने के बावजूद आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा।
फ्लॉयड को न्याय दिलाने के अभियान मेँ शामिल हुये विश्वविख्यात एक्टर-स्पोर्ट्समैन!
बहरहाल फ़्लॉयड की मौत के बाद जिस तरह अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया के गोरों के साथ ढेरों देशों के नामचीन बुद्धिजीवी, संगीतज्ञ, एक्टर, स्पोर्ट्समैन अश्वेतों के समर्थन में उतर आए, उसे हमेशा याद किया जाएगा। कैसे कोई भूल पाएगा कि फ्लायड को न्याय दिलाने के अभियान में टेनिस के मौजूदा दिग्गज और बिग थ्री में शामिल रोजर फेडरर, राफेल नडाल और नोवक जोकोविक भी शामिल हुये थे। बिग थ्री से पहले कई अश्वेत खिलाड़ी भी फ्लॉयड को न्याय दिलाने के लिए आगे आए थे, जिनमें गोल्फर टाइगर वुड्स, पूर्व श्रीलंकाई क्रिकेटर कुमार संगकारा, वेस्ट इंडीज के कप्तान डरेन सामी, क्रिस गेल जैसे बड़े नाम रहे।
चुप्पी साधे रहे भारतीय फिल्मी और खेल सितारे
अब जहां तक भारत का सवाल है जॉर्ज फ्लॉयड को इंसाफ दिलाने के लिये न तो भारत के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर रहे हैं, न ही विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, धोनी जैसे स्पोर्ट्समैन और अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण इत्यादि जैसे स्पोर्ट्स और फिल्म स्टार्स ने ही कोई बयान जारी किया। लेकिन भारत के सेलेब्रेटी स्तर के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट, स्पोर्ट्समैन और फिल्म स्टार भले ही चुप्पी साधे हो, पर फ्लॉयड की मौत को लेकर भारत में भारी संख्या में लोग मुखर हुये और मुखर होने वाले अधिकांश लोग उन समुदायों से हैं, जिन्हें जाति-भेद का सामना करना पड़ता है। हालांकि अगस्त 2014 में फर्ग्यूशन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवंबर 2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाये जाने से इंकार करने एवं 18 मई, 2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद भी अमेरिका में बड़े पैमाने आज जैसे धरना- प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ था। पर भारत के वंचित समुदायों के लोग आज की भांति उद्वेलित नहीं हुये।
इस बार जिस मात्रा में गोरे अश्वेतों के समर्थन में उतरे वैसा पहले के आंदोलनों में नहीं दिखा। एक ऐसे दौर में जबकि मोदी के अमेरिकी क्लोन ट्रम्प अमेरिकी बहुसंख्यकों (गोरों) में अल्पसंख्यकों (अश्वेत,रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स,एशियन पैसेफिक) के प्रति नफरत को तुंग पर पहुंचा कर सत्ता दखल किया हो और इस नफरत की आग को जलाए रखने के लिए का लगातार सत्ता का इस्तेमाल किए जा रहा हो, गोरों का अश्वेतों के समर्थन में अभूतपूर्व संख्या में सड़कों पर उतरना और उग्र धरना- प्रदर्शन करना पूरी दुनिया के साथ भारत के लोगों को भी विस्मित किया और कुछ ज्यादा ही विस्मित किया।
फ़्लॉयड की समस्या को लेकर: पहली बार उद्वेलित हुये बहुजन
वास्तव मे अमेरिकी प्रभुवर्ग का कालों के समर्थन में उतरने ने अगर सबसे अधिक किसी को चौकाया तो वह भारत का वंचित बहुजन समाज ही है। भारतीय लेखकों और मीडिया के सौजन्य से आम भारतीयों में यही धारणा थी कि जिस तरह भारत का प्रभुवर्ग दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार करते हैं, कुछ वैसा ही अमेरिका के गोरे वहाँ के अश्वेतों के साथ करते हैं। किन्तु विगत दो सप्ताह से आ रही धरना-प्रदर्शनों की खबरों ने अमेरिकी गोरों के प्रति बनाई धारणा को खंड – खंड कर दिया है। इसलिए भारतीय प्रभुवर्ग और सेलेब्रेटीज़ के खिलाफ तंज़ भरी बातों से यहाँ का सोशल मीडिया पट गया।
प्राख्यात पत्रकार महेंद्र यादव ने लिखा – ‘कोरोना का डर पीछे छूट गया है।इंसानियत और नागरिक अधिकारों को बचाना ज्यादा जरूरी लग रहा है। खास बात ये है कि डेरेक को कड़ा सजा देने की मांग करने वालों में श्वेत लोग ही ज्यादा हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की जान नहीं बचाई जा सकी, लेकिन श्वेत अमेरिकियों ने इंसानियत तो बचा ही ली। डेरेक चाउविन नौकरी से निकाला जा चुका है। 25+10=35 साल की सजा होना भी तकरीबन तय ही है। दूसरी ओर ऐसा मुल्क भी है जहां जाति पूछकर गोली मारने वाला शान से नौकरी करता है। इंस्पेक्टर से लेकर आम नागरिकों की मॉब लिंचिंग करने वालों को मंत्री माला पहनाकर सम्मानित करते हैं। हां, “खास परिस्थितियों” में एक करोड़ का मुआवज़ा और हत्या के संदेह के घेरे में आ रही मृतक की पत्नी को क्लीन चिट देते हुए क्लास वन की नौकरी दे दी जाती है।’
डॉ. आंबेडकर के अनुसार, सामाजिक विवेक से शून्य हैं हिन्दू!
बहरहाल अमेरिका के गोरे अपने यहां के अश्वेतों के प्रति क्यों करुणशील रहते हैं और भारत के सवर्ण दलितों के प्रति क्यों उदासीन रहते हैं, इस सवाल से टकराने का वर्षों पहले बलिष्ठ प्रयास डॉ. आंबेडकर ने ही किया था। स्मरण रहे ज्ञानार्जन के सिलसिले में डॉ. आंबेडकर को तीन साल अमेरिका में गुजारने का अवसर मिला। वहां रहने के दौरान ही उन्हें बुकर टी. वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन जैसे महामानवों के विषय में जानने का अवसर मिला जो बाद मेँ उनके दलित – मुक्ति आंदोलन में उतरने का अन्यतम कारण बना। गोरों के मुकाबले भारत के हिंदुओं, खासकर सवर्णों का व्यवहार कितना अमानवीय है, इसका तुलना करने का बेहतर अवसर उन्हें उसी दौरान मिला।
अमेरिका और भारत के प्रभुवर्ग के क्रमशः अश्वेतों और दलितों के प्रति सामाजिक व्यवहार और त्याग इत्यादि के विषय मेँ डॉ. आंबेडकर का अनुभव ‘बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय’ के खंड 9 के पृष्ठ 145-156 पर ‘हिन्दू और सामाजिक विवेक का अभाव’ शीर्षक से लिपिबद्ध है। इसके पृष्ठ 156 पर दोनों देशों के प्रभुवर्ग के पार्थक्य को चिन्हित करते हुये बाबा साहेब लिखते हैं- ‘यह अंतर क्यों है? अमेरिका में लोग अपने यहाँ के नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए सेवा और त्याग कर इतना कुछ क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है अमेरिकियों मे सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है। ऐसा नहीं कि हिंदुओं में उचित- अनुचित, भला-बुरा या नैतिकता का विचार नहीं है। हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के प्रति उनका जो नैतिक विवेक है, वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक ही सीमित है।’
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क- 9654816191
डायवर्सिटी मैन के नाम से विख्यात एच.एल. दुसाध जाने माने स्तंभकार और लेखक हैं। हर विषय पर देश के विभिन्न अखबारों में नियमित लेखन करते हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं और दुसाध प्रकाशन के नाम से इनका अपना प्रकाशन भी है।
भारत में जातिवाद एक सच्चाई है।सवर्ण वर्ग दलित को अपने से छोटा समझता है।
लेकिन दलितों में भी कई वर्ग हैं।अक्सर आर्थिक रूप से ठीक ठाक दलित अपने से
कम सम्पन्न या अछूत वर्ग से दूरी बनाकर रहता है।
आजादी के बाद भारतीय समाज ने दलितों को संबिधान में दिये अधिकारों पर कोई
आपत्ति नहीं जताई और दलितों ने भी इसका भरपूर लाभ लिया।आज सरकार उस
विचारधारा वाले लोगों की है जो इसके विरोधी थे लेकिन अल्पमत में होने के कारण
कुछ कर नहीं पाये।अब सत्ता इनके हाथ में है इसलिए ये दलितों को फिर पहली वाली स्थिति में वापस ले जाना चाहते हैं।
ऐसी स्थिति में कोई दलतों के साथ कैसे खड़ा हो सकता है।एक बात और इन दलित विरोधी विचारधारा वाले लोगों को सत्ता में लाने के लिये दलितों का पढ़ालिखा
वर्ग शामिल है जो आजकल भगवा ध्वज फहराने में बहुत जोर शोर से आगे रहता है।