आरएसएस के नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राकेश सिन्हा पुलिस के व्यवहार से काफी आहत हैं. उन्होंने अपने आहत मन की बात ट्विटर पर लिखा है. असल में उनकी भावना इसलिए आहत हुई है क्योंकि पुलिस ने उन्हें दलित एक्टिविस्ट समझ कर जबरन गाड़ी में बैठा लिया और अभ्रद भाषा (इसे गरियाना ही कहते हैं) का इस्तेमाल किया.
घटना दो अप्रैल को भारत बंद के दौरान नोएडा की है. राकेश सिन्हा घटना के समय नोएडा के फिल्म सिटी एरिया में एक न्यूज चैनल पर पैनल डिस्कशन के लिए गए थे. वह वहां से लौट रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें दलित प्रदर्शनकारी समझकर गिरफ्तार कर लिया. सिन्हा के ट्विट के मुताबिक “अनिल कुमार शाही के नेतृत्व में ज़बरन पुलिस उन्हें गाड़ी में बैठाकर ले गयी. उनका व्यवहार अशोभनिया था. धमकी भरा था. भीड़ जुटने पर 500 मीटर दूर जाकर छोड़ा. बाद में सफ़ाई दी. मुझे दलित एक्टिविस्ट समझ बैठे.”
आरएसएस नेता का कहना है कि पुलिस को किसी के साथ अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने से पहले कम से कम उस शख्स की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए. यहीं उन्होंने पुलिस की भी बात बताई है. जब राकेश सिन्हा ने अपना परिचय दिया तो पुलिस ने उन्हें बताया कि उन्हें लगा कि राकेश सिन्हा दलित प्रदर्शनकारी हैं इसीलिए गलती से उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया.
यहां सवाल यह है कि पुलिस ने संघ के नेता को दलित प्रदर्शनकारी समझ कर जबरन गाड़ी में बैठा लिया. उन्हें गालियां दी. बाद में यह जानकर कि वह दलित प्रदर्शनकारी नहीं बल्कि समान्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाले संघ के नेता हैं तो पुलिस ने उन्हें तुरंत छोड़ दिया. तो क्या दलित प्रदर्शनकारियों की कोई गरिमा नहीं होती और पुलिस जैसे चाहे उनके साथ अभद्रता कर सकती हैं?? 2 अप्रैल को प्रदर्शन में शामिल सभी लोग कोई आम नागरिक या राजनैतिक प्रदर्शनकारी नहीं थे, बल्कि उसमें कई लोग सरकारी कर्मचारी और अधिकारी थे, पत्रकार, डॉक्टर और वकील थे. क्या उनकी कोई गरिमा नहीं थी? क्या प्रदर्शनकारियों के कोई नागरिक और मौलिक अधिकार नहीं थे?
अपनी मांगों के पक्ष में शांतूपूर्ण प्रदर्शन करना तो किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है, चाहे वो संघ का नेता हो या फिर दलित प्रदर्शनकारी. लेकिन शायद भारत की सच्चाई यही है कि यहां किसी व्यक्ति के साथ व्यवहार उसके मौलिक अधिकार को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है, बल्कि उसकी जाति, धर्म और उसका पद देखकर किया जाता है. आरएसएस नेता को इसके खिलाफ भी आवाज उठानी चाहिए. भाजपा शासित राज्यों में लगातार दलितों के नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है. दलितों पर एक के बाद एक अत्याचार हो रहे हैं. संघ के इन नेता महोदय को अपने संगठन के मंच से इस बात पर भी आवाज उठानी चाहिए.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।