नई दिल्ली। 24 साल पहले, बिहार में आज ही के दिन वो हुआ था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने राष्ट्रीय शर्म करार दिया था. ये घटना बिहार के इतिहास की सबसे भयावह घटना थी जिसे दुनिया लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के नाम से जानती है. इस नरसंहार में बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया था.
1 दिसंबर 1997 की रात कई परिवार अनाथ हो गए, कई परिवारों में एक महिला भी नहीं बची, कई में सिर्फ बच्चे ही रह गए और कई जन्म लेने से पहले ही अपनी माओं की कोख में ही मार दिए गए.
क्या हुआ था उस रात
उस रात बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में 58 लोगों को गोली मार दी गई. जिनमें 27 औरतें और 10 बच्चे भी शामिल थे, मरने वालों में 1 साल का बच्चा भी था. महिलाओं के स्तन काट दिए गये थे, हैवानियत इस कदर थी कि सोन नदी के किनारे बसे इस गाँव की मिट्टी खून से लाल हो गई थी. गोलियों का ये खेल तीन घंटे तक चला था. हत्यारे शॉल ओढ़कर आए थे और फिर इस गाँव की छाती लहुलुहान कर कहीं गुम हो गए.
अगले दो दिन तक लोग लाशों को सीने से लगाए रोते रहे, न्याय मांगते रहे. खबरें दुनिया भर में पहुंची तब मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने दौरा किया, सांत्वना दी, मुआवजे का ऐलान किया. जिसके बाद लाशें ट्रकों में भर कर लायी गईं और 3 दिसम्बर को अंतिम संस्कार किया गया. लोगों को सरकार पर एतबार था लेकिन लाख एडियाँ रगड़ने के बाद भी सरकार मुआवजे या सरकारी नौकरियां, कुछ नहीं दे पाई.
कैसे हुई शुरुआत
ये नरसंहार किसी एक दिन की दुश्मनी की वजह से नहीं था बल्कि इसकी पटकथा 5 साल पहले यानी 12 फरवरी 1992 को लिखी जा चुकी थी. जब गया के बाड़ा गांव में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के सदस्यों ने 40 भूमिहारों को मौत के घाट उतारा दिया था. इस मामले में 9 लोगों को सजा सुनाई गई, जिनमें से 4 को पहले फांसी की और बाद में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
इसके बाद 1997 में लक्ष्मणपुर-बाथे में पिछड़ी और अगड़ी जातियों के बीच जमीनी विवाद हुआ और फिर 1992 का बदला लेने के मकसद से रणवीर सेना के 100 सदस्य लक्ष्मणपुर-बाथे पहुंच गये और इस नरसंहार को अंजाम दिया.
जब लोग सरकार से हार गये तब उन्होंने न्यायालय से आस लगाई लेकिन अफ़सोस, कानून भी उन्हें कुछ न दे सका.
और हत्यारें निर्दोष साबित हुए….
58 लोगों की हत्या करने वाले रणवीर सेना के 100 सदस्यों में से 46 लोगों को दोषी बनाया गया. जिनमें से एक सरकारी गवाह बन गया और 19 को निचली अदालत ने बरी कर दिया था. इसके बाद पटना की एक विशेष अदालत ने 7 अप्रैल, 2010 को 16 दोषियों को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई. लेकिन पटना हाइकोर्ट के 9 अक्तूबर, 2013 के फैसले में सभी दोषियों को बरी कर दिया.
इसके बाद राबड़ी सरकार ने फिर से एसआईटी गठित करने की बात की और मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ले जाने की बात भी कही. लेकिन फिर क्या हुआ और क्या नहीं ये सभी के सामने है. कोर्ट ने सभी दोषियों को बरी करते हुए ये निष्कर्ष निकला कि जिन 58 लोगों को हैवानियत के साथ मार डाला गया दरअसल उन्हें किसी ने नहीं मारा वो आपस में ही लड़ कर मारे गये थे.
आज भी राष्ट्रीय शर्म!
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को कई साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी जातिगत हिंसा, अन्याय और हैवानियत का इससे बड़ा उदहारण शायद बिहार के इतिहास में कहीं और देखने को नहीं मिलता है. ये घटना 24 साल पहले भी राष्ट्र के लिए शर्म थी और आज भी ये इस आजाद लोकतंत्र के लिए राष्ट्रीय शर्म है.
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