तकरीबन ढाई दशक पहले आरपीआई के एक नेता ने संसद में यह प्रश्न उठाया था कि जिस तरह 15 अगस्त से पहले लाल किले पर झंडोत्तोलन के लिए जाते वक्त प्रधानमंत्री राजघाट पर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देते हैं, उसी तरह गणतंत्र दिवस 26 जनवरी के दिन राष्ट्रपति इंडिया गेट पर जाने से पहले संसद भवन स्थित संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर को याद क्यों नहीं करती? सवाल सीधा और सपाट था सो सरकार ने भी इसका सीधा सा जवाब दे दिया. सरकार का कहना था कि इस मौके पर किसी भी राष्ट्रीय नेता को श्रद्धांजलि नहीं दी जाती, इसलिए डा. अम्बेडकर को भी सम्मानित नहीं किया जाता है.
जवाब आने के बाद सब कुछ पहले जैसा हो गया. इस बीच रतनलाल केन नाम के एक व्यक्ति इसके लिए लड़ते रहे, हर साल राष्ट्रपति को चिठ्ठी लिखते रहे. आरटीआई ने अब इन्हें नया हथियार दे दिया था और उनकी लड़ाई भी धारदार हो गई. लेकिन जब जवाब सरकार से मांगना हो और वह ना देना चाहे तो कोई सूचना का अधिकार भी कुछ नहीं कर सकता. खासतौर पर भारत जैसे देश में. सवाल है कि प्रधानमंत्री द्वारा गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के पहले जब इंडिया गेट अमर जवान ज्योति पर सैनिकों को श्रद्धांजलि दी जा सकती है तो अपने कर्मवीरों और राष्ट्रनेताओं को जिन्होंने देश को संविधान दिया उनको क्यों भूल जाते हैं?
हालांकि आरटीआई के माध्यम से केन ने कई नई चीजें निकाली हैं, जो चौंकाने वाली है. रतनलाल के अपने तर्क हैं. अपनी मुहिम को जारी रखते हुए केन ने 13 दिसंबर 2011 को महामहिम राष्ट्रपति को पत्र लिख कर उनसे इस मामले में एनओसी की मांग की है. केन का कहना है कि हमें एनओसी दिया जाए कि सरकार हमारे इस मामले को सुलझाने में असफल रही है, ताकि हम इसे यूएनओ में उठा सके. हालांकि 13 दिसंबर के इस पत्र के इंतजार में वह अब तक हैं. जाहिर है उन्हें इसका जवाब नहीं मिला है. संविधान निर्माता बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के बारे में सरकार के दृष्टिकोण का एक चौंकाने वाला यह पहलू भी सामने आया है कि सरकार डा. अम्बेडकर को जहां स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती, वहीं उनके संविधान निर्माता होने के सवाल पर चुप्पी साध लेती है. आरटीआई के माध्यम से केन ने गृह मंत्रालय से यह सवाल किया कि क्या डा. अम्बेडकर स्वतंत्रता सेनानी हैं? या फिर क्या वह संविधान निर्माता हैं? तो गृह मंत्रालय के डीओपीटी से जवाब आया कि डा. अम्बेडकर स्वतंत्रता सेनानियों के वर्ग में नहीं आतें, तो वहीं संविधान निर्माता मानने के बारे में उसने चुप्पी साध ली.
गांधी और अम्बेडकर के बीच आजादी के समय से ही उभरे मतभेद यहां भी साफ दिखाई देते हैं. यहीं से एक सवाल यह भी उठता है कि फिर महात्मा गांधी जी को किस नीति और नियम के तहत राष्ट्रपिता की उपाधि दी गई. गड़बड़झाला की सूचना यहां भी है. केन द्वारा गृह मंत्रालय से महात्मा गांधी के राष्ट्रपिता होने के संबंध में जानकारी मांगने पर 2002 में तात्कालिन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने जवाब दिया कि जैसे दूसरे लोग महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहते हैं, वैसे मैं भी कहता हूं लेकिन गृह मंत्रालय के रिकार्ड के मुताबिक आज तक महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करने का कोई रिजोल्यूशन पास नहीं हुआ है. ना ही संविधान में ऐसा कोई अलंकरण देने की व्यवस्था है. सरकार किसी को ऐसा अलंकरण नहीं दे सकती. महात्मा गांधी के राष्ट्रपिता न होने के बावजूद सरकार उन्हें विशेष अलंकरण और स्वतंत्रता दिवस के पहले सम्मान देती है जबकि देश को संविधान देने वाले डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम संविधान की संक्षिप्त रुपरेखा तक में नहीं है.
इसके विपरीत्त महात्मा गांधी का वास्ता न तो संविधान निर्माण से था और न संविधान सभा से था, फिर भी उनका नाम और उनके फोटो संविधान के अंदर है. केन की मांग है कि संविधान निर्माता होने के कारण डा. अम्बेडकर को भी वाजिब सम्मान मिले. क्या इस गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने संविधान का गुणगान करने वाली सरकार और राजनीतिक दल इस बारे में सोचेंगे?
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
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