साल 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी, तो इसके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े दावे किये थे। उन्होंने यहां तक कहा कि आने वाला वक्त देश के कमजोर तबकों और गरीबों का है। पहली बार सत्ता में आने तक तो कमोबेश स्थिति थोड़ी बहुत ठीक रही, लेकिन साल 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद तो भाजपा सरकार ने जैसे गरीबों को रौंदने और अमीरों को और अमीर बनाने का फैसला कर लिया है।
हाल ही में आई खबर के मुताबिक भारत सरकार ने अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए आवंटित कुल राशि में से तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपए की राशि इस्तेमाल ही नहीं की गई है। इसका यह अर्थ है कि भारत सरकार बीते 4 सालों में दलित समाज के कल्याण के लिए ना तो आवश्यक योजना बना पाई न ही उन्हें लागू कर पाई है।
जो आंकड़े सामने आए हैं, वह बताते हैं कि साल 2017- 18 से लेकर सन 2020-21 के दौरान अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए 2.6 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे, लेकिन सरकार की लापरवाही का आलम यह रहा कि इसमें से 49 हजार 722 करोड़ रुपए बिना खर्च किए ही वापस कर दिए हैं। सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों और विभागों की योजनाओं में इस राशि का उपयोग होना था, जो कि नहीं हो सका है। इससे साफ है कि भाजपा की सरकार और इसके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दलितों के हितों को लेकर लापरवाह हैं, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो 50 हजार करोड़ की बड़ी राशि बिना खर्च हुए वापस नहीं चली जाती।
Rs 50,000 crore, or 20% of funds allotted for SC welfare, left unused by Modi govt in 4 years
इस पूरे मामले में एक अनोखी बात भी सामने आई है। खबर है कि नीति आयोग ने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को एक अजीब सलाह देते हुए कहा है कि इस आवंटित राशि का 60% दलितों में सर्वाधिक गरीब एक करोड़ लोगों को शर्त के साथ सीधे उनके खाते में जमा किया जाए। इस तरह का कैश ट्रांसफर साल में 4 बार ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ के जरिए किए जाने का सुझाव दिया गया है। इसके बाद का जो 40 प्रतिशत हिस्सा बचेगा, उसके बारे में सरकार तय करेगी कि वह उस राशि को कहां खर्च करेगी।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने इस सुझाव पर अमल करते हुए अनुसूचित जाति जनजाति के सबसे गरीब परिवारों की मदद के लिए एक नया ढांचा निर्मित किया है। मंत्रालय ने एक नई योजना का निर्माण किया है जिसे ‘प्रधानमंत्री सामाजिक समावेशीकरण अभियान योजना’ का नाम दिया गया है। इस योजना के विषय में सरकार बड़े-बड़े दावे करना शुरू कर चुकी है। हालांकि इस योजना को फिलहाल जरूरी अनुमति नहीं मिली है। इस विषय में भारत सरकार का कहना है कि यह योजना अनुसूचित जाति के सर्वाधिक गरीब एक करोड़ परिवारों को सीधे-सीधे मदद करेगी।
यहां सबसे ज्यादा निराशाजनक बात यह है कि साधारण गरीब परिवारों से जुड़े विभागों ने सबसे ज्यादा लापरवाही दिखाई है। कृषि मंत्रालय, स्कूल शिक्षा साक्षरता मंत्रालय, रोजगार एवं मजदूर मंत्रालय, पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय, परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य मंत्रालय, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय के विभिन्न विभागों ने अपने लिए 80% से अधिक आवंटित राशि का उपयोग ही नहीं किया है।
इतना ही नहीं, 1.33 लाख करोड़ रुपए जो कि 10 अलग-अलग विभागों को जारी किए गए थे, उनके खर्च की पड़ताल से पता चलता है कि उससे अनुसूचित जाति के लोगों को कोई फायदा ही नहीं हुआ है। पिछले 4 सालों में यह स्थिति लगातार बनी रही और कोरोना के दौरान यह आर्थिक अन्याय अपने चरम पर पहुंच गया है। इस वर्ष में एक अनुमान के मुताबिक लगभग 41 प्रतिशत आवंटित राशि बिना खर्च किए ही वापस चली गई है।
ये आंकड़ें साफ बताते हैं कि अनुसूचित जाति के लोगों के लिए ना तो सरकार संवेदनशील है और ना ही उसके विभाग। अलग-अलग योजनाओं में अनुसूचित जाति के करोड़ों परिवारों के लिए जो भी राशि आई, उसका बिना खर्च हुए वापस चले जाना अपने आप में बहुत कुछ बताता है। विशेष रुप से नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना की मार से पीड़ित अनुसूचित जाति के करोड़ों लोग आर्थिक रूप से बहुत अधिक परेशान हैं। ऐसे में सरकार एवं सभी विभागों द्वारा उनके लिए तय की गई धनराशि का बिल्कुल भी उपयोग नहीं कर पाना सरकार की लापरवाही को दर्शाता है। एक विशेष अर्थ में यह लापरवाही नहीं है, इसे गौर से देखा जाए तो भारत के दलित समाज के खिलाफ यह जानबूझकर किया गया आर्थिक अपराध है। सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इसके बारे में तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया और खुद बहुजन समाज में बड़ी चर्चा नहीं होती है। जरूरी है कि बहुजन समाज इस तरह के आर्थिक घोटाले को जाने।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।