सीवर में लोगों और शहरों की गंदगी साफ़ करने वाले कर्मी सालाना सैकड़ों की संख्या में मर रहे हैं, सालाना हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मजदूरों की मजदूरी और रोजगार के ठिकाने नहीं हैं. पंद्रह लाख रोजगार इसी साल खत्म कर दिए गये. नोटबंदी के बाद से किसान मजदूर और छोटे व्यापारी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए हैं. इस पर तुर्रा ये कि आगे बेरोजगारी और सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ता ही जाने वाला है.
इसका भारत की नैतिकता और सभ्यता से कोई संबंध है?
इसे ऐसे देखिये, आज जब इतने किसान मर रहे हैं और इतने सफाई कर्मी गटर साफ़ करते हुए मारे जा रहे हैं. सामाजिक वैमनस्य और अविश्वास बढ़ता जा रहा है. तब भी इस समाज की सामूहिक चेतना में धर्मगुरुओं, नेताओं, समाज के ठेकेदारों के मन में कोई सवाल नहीं उठ रहा है. समाज में एक आम आदमी अपने ही जैसे लोगों के रोज इस तरह मरते जाने पर कोई दुख नहीं हो रहा है.
इसका सीधा मतलब ये है कि ये एक सभ्य समाज नहीं है. भारत का समाज असल में बहुत ही स्वार्थी और विभाजित या एकदूसरे का शोषण करने वाली जमातों की एक बर्बर भीड़ है. इसमें सामूहिक हित सार्वजनिक सम्पत्ति, सामूहिक हित के साझे प्रयास या एक साझे भविष्य की कल्पना तक नहीं है.
सोचिये आज मीडिया, इन्टरनेट, कम्प्यूटर और यूरोपीय शिक्षा और ज्ञान विज्ञान के आने के बावजूद भारतीय समाज की सभ्यता की ये हालत है तो इन्होने अतीत में मध्यकाल में या प्राचीन इतिहास में क्या-क्या न किया होगा? सोचकर ही रूह कांप उठती है. कैसी हैवानियत न बरपाई होगी इन्होंने अपनी गरीब जनता और स्त्रीयों पर.
सती प्रथा, विधवाओं का शोषण, शूद्रों का उत्पीड़न, देवदासी प्रथा, हरिबोल प्रथा, बहु झुठाई प्रथा, बेगार, बंधुआ मजदूरी, दास की खरीदी विक्रय, जमीन के साथ मजदूरों तक को बेचने की परम्परा, स्त्रियों शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखने के धार्मिक आदेश, एक ही अपराध के लिए अलग अलग जातियों के लिए अलग दंड विधान, इत्यादि न जाने कितनी ही बातें हैं जो ब्रिटिश राज के दौर में रिकार्ड की गयी हैं. अगर न की जातीं तो इन्हें भी पुराणों की गप्प में घोट पीसकर किसी मिथक या परियों की कहानी में छुपा दिया जाता.
अब इस बात को दूसरे ढंग से देखिये. ये मामला इतिहास लेखन और इतिहास बोध से भी गहराई से जुड़ता है. ऐसा असभ्य, बर्बर और पाखंडी समाज अपना इतिहास किस मुंह से लिखेगा? उस इतिहास में क्या लिखेगा?
भारत में इतिहास नहीं लिखा गया. इस सवाल का उत्तर इसी बात में छिपा है. चोर लुटेरे या हत्यारे अपना इतिहास लिखेंगे भी कैसे? अपने ही बहुसंख्य लोगों का खून चूसने वाली सत्ताएं अपना इतिहास कैसे, किसके लिए और क्यों लिखेंगी?
मेरे लिए इतिहास बोध असल में नैतिकता बोध से जुड़ा हुआ सवाल है. एक अनैतिक समाज एक स्वस्थ इतिहास बोध को न तो जन्म दे सकता है न उसे बनाये रख सकता है. इसीलिये वो अपने इतिहास से अपने ही क्रमिक विकास के चरणों से शिक्षा नहीं ले सकता और बार बार उन्ही गलतियों को दोहराता है.
(लेखक के निजी विचार हैं)
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।