आज भारतरत्न उस डॉ.बी.आर. आंबेडकर की 130 वीं जयंती है, जिनके विषय में बहुत से नास्तिक बुद्धिजीवियों की राय है कि बहुजनों का यदि कोई भगवान हो सकता है तो वह डॉ. आंबेडकर ही हो सकते हैं, जिनकी तुलना लिंकन, बुकर टी . वाशिंग्टन, मोजेज इत्यादि से की जाती है। मानवता की मुक्ति में अविस्मरणीय योगदान देने वाले ढेरों महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व समय के साथ म्लान पड़ते जा रहा है पर, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर वह महामानव हैं, जिनकी स्वीकृति समय के बढ़ती ही जा रही है। यही कारण है इंग्लैंड की महारानी तथा राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख एलिज़ाबेथ द्वितीय ने बीते दिनों 14 अप्रैल,2021 को ‘डॉ.बी.आर.आंबेडकर इक्वेलिटी डे’ के रूप में मनाने का फरमान जारी किया है।
रानी एलिज़ाबेथ द्वितीय का यह फरमान इस बात का संकेतक है कि डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती जा रही है। उनकी इस घोषणा से कोरोना के दहशत भरे माहौल में घरों में बैठकर आंबेडकर जयंती मनाने के लिए विवश आंबेडकरवादियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ है। बहरहाल समय के साथ-साथ आंबेडकर और उनके वाद की स्वीकृति भले ही नित नयी उंचाई छूती जा रही हो, किन्तु देश-विदेश में फैले कोटि-कोटि आंबेडकरवादियों में बहुत कम लोगों को इस बात का इल्म है कि खुद भारत में आंबेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है। ऐसे में आज इतिहास ने आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने की बड़ी जिम्मेवारी बहुजनवादी दलों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के कन्धों पर डाल दिया है। इसे देखते हुए आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने में होड़ लगाना सामाजिक न्यायवादी दलों, बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का अत्याज्य कर्तव्य बन गया है। ऐसे में इस दिशा में अपना कर्तव्य निर्धारित करने के पहले आंबेडकरवादियों को आंबेडकरवाद और इस पर आये संकट को ठीक से समझ लेना जरुरी है।
वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति, नस्ल, लिंग इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है और इस वाद का औजार है- आरक्षण। भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है। बहरहाल दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया। ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य वृत्ति, उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं।
हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया: एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी सवर्ण वर्ग और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे। इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए, लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा। इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया। यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा। इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही। वे गुलामों के गुलाम रहे। इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया।
अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी। इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई। हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे। इससे धीरे-धीरे वे सांसद-विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। दलित–आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए। संविधान में डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे पिछड़ी जातियों के लिए भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए। लेकिन 7 अगस्त, 1990 को प्रकाशित मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद आंबेडकरवाद ने जरुर नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया, उसी रिपोर्ट से इसके संकटग्रस्त होने का सिलसिला भी शुरू हुआ।
मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी तबका शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया। इसके प्रकाशित होने के साल भर के अन्दर ही 24 जुलाई,1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप ही आज आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया है। 24 जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ आंबेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं। इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों में किया, आंबेडकर प्रेम के दिखावे में सबको बौना बना चुके नरेंद्र मोदी ने उतना प्रधानमंत्री के रूप में पिछले कुछ सालों में कर डाला है।
बहरहाल आरक्षण के खात्मे के मकसद से नरसिंह राव ने जिस नवउदारवादी अर्थनीति की शुरुआत किया एवं जिसे आगे बढ़ाने में उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे से होड़ लगाया, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की है। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स प्राय इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है। संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं। शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह विनिवेशीकरण और निजीकरण के लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद सवर्णों को सौपें जा रहे हैं उससे डॉ। आंबेडकर द्वारा रचित संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक – पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को संविधान सौपने के पूर्व 25 नवम्बर, 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से चेतावनी देते हुए कहा था,’ संविधान लागू होने के बाद हम एक विपरीत जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता: प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार मिलेगा और उस वोट का समान मूल्य होगा। किन्तु राजनीति के विपरीत आर्थिक और सामजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता। हमें इस असमानता को निकटतम भविष्य में ख़त्म कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।’ डॉ. आंबेडकर की उस चेतवानी को ध्यान में रखते हुए आजाद भारत के शासकों ने शुरुआत के प्रायः चार दशकों तक विषमता के खात्मे की दिशा में कुछ काम काम किया । इसी क्रम में ढेरों सरकारी उपक्रम खड़े हुए: बैंको, कोयला खानों इत्यादि का राष्ट्रीयकारण हुआ। किन्तु 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने का बाद जब देश का शासक वर्ग आंबेडकरवाद को संकटग्रस्त करने की दिशा में अग्रसर हुआ, मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या (आर्थिक और सामजिक –गैर-बराबरी) भारत में विस्फोटक बिंदु पर पहुच गयी। आज आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्य, जिस तरह विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के बहिष्कार का एक तरह से अभियान चल रहा है, उसके फलस्वरूप, जिन वंचित जातियों को विश्व प्राचीनतम शोषकों से आजादी दिलाने के लिए डॉ। आंबेडकर ने वह संग्राम चलाया जिसके फलस्वरूप वह मोजेज, लिंकन, बुकर टी। वाशिंग्टन की कतार में पहुँच गए: वह जातियां आज विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुकी हैं।ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था।
बहरहाल भारत में आज वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए शासक दलों ने आंबेडकरवाद को संकटग्रस्त करने के क्रम में जिन स्थितियों और परिस्थितियों का निर्माण किया है , उसमें बहुजनों को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की लड़ाई की तरह एक नए स्वाधीनता संग्राम छेड़ने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है। और इस संग्राम का लक्ष्य होना चाहिए आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा, जिसका सपना सिर्फ बाबा साहेब ही नहीं लोहिया, सर छोटू राम, बाबू जगदेव प्रसाद, मान्यवर कांशीराम इत्यादि ने भी देखा था। चूँकि सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि शक्ति के स्रोतों के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य अन्यायपूर्ण बंटवारे से होती रही है, इसलिए बहुजनों के स्वाधीनता संग्राम का एजेंडा शक्ति के स्रोतों का भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों – सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य न्यायपूर्ण बंटवारे पर केन्द्रित होना चाहिए। ऐसे में अगर आंबेडकरवाद के संकटग्रस्त होने से भारत सहित यहाँ की तमाम वंचित जातियों का भविष्य संकटग्रस्त नजर आता है तो आंबेडकरवादियों को आज से ही अपने स्वाधीनता संग्राम को अंजाम तक पहुँचाने की परिकल्पना में निमग्न हो जाना चाहिए।
डायवर्सिटी मैन के नाम से विख्यात एच.एल. दुसाध जाने माने स्तंभकार और लेखक हैं। हर विषय पर देश के विभिन्न अखबारों में नियमित लेखन करते हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं और दुसाध प्रकाशन के नाम से इनका अपना प्रकाशन भी है।