Thursday, February 6, 2025
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पद्मवाती और खिल्जी से जुड़े सवाल

पद्मावती फिल्म पर बहस अभी भी मुर्खता के दायरे में घूम रही है.

पहली बात की खिल्जी मुगल नहीं था.

दूसरी, कोई बेवकूफ ही कह सकता है कि ‘अगर राजपूत न होते तो भारत मुगलिस्तान होता’. मुगलों के पहले और मुगलों के बाद, भारत में जो भी मुस्लिम शासक आये, राजपूतों, जाटों, खत्त्रियों, ब्राह्माणो, यादव, कुर्मी, दलित सब के साथ मिलकर काम किया. हर मुस्लिम शासक के साथ, हमेशा हिन्दू खड़ा रहा है. खिल्जी प्रगतिशील शासक था. इतिहास में रानी पद्मिनी जैसा कोई पात्र है ही नही. जायसी की लिखी ‘पद्मावत’ सहित्य है इतिहास नही. पर उस साहित्यिक कृति में भी खिल्जी को क्रूर बादशाह नही दिखाया गया है. भंसाली की फिल्म इतिहास और सहित्य दोनो का विकृत रूप पेश करती है.

तीसरी, 1857 की लड़ाई में राजस्थान के बड़े राजपूत घरानो ने अन्ग्रेज़ों का साथ दिया. कई मुस्लिम और अन्य बिरादरियों के बड़े शासकों ने अन्ग्रेज़ों का साथ दिया. पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के कई छोटे-बड़े राजपूत ज़मिन्दार और किसान, जाटों तथा अन्य किसान बिरादरियों की तरह अन्ग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हुए.

ऐतिहासिक तथ्यों एवं मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावती’ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि 14वीं सदी के दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और ‘राजपूत सम्मान’ के प्रश्न पर कोई टकराव जैसी स्थिति नहीं रही है. महान सूफी कलमकार, इतिहासकार, भारतीय संगीत एवं खड़ी बोली के पितामाह अमीर खुसरो खिलजी के साथ चित्तौड़ अभियान में शामिल थे. अपनी फारसी भाषा में लिखी किताब ‘खज़ई-उल-फ़ुतूह’ में खुसरो अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक अभियानों, प्रशासनिक कार्यों और जन-संसाधनों के क्षेत्र में किए गए उसके कामों का उल्लेख करते हैं. खुसरो के हिसाब से 1303 ईस्वी में चित्तौड़ के राजा ने खिलजी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था और खिलजी ने उसे माफ भी कर दिया था. खुसरो के तकरीबन 50 सालों बाद, इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी भी इन्ही तथ्यों की पुष्टि करते हैं.

बीसवीं सदी के इतिहासकार और उनकी पुस्तकें जैसे श्री किशोरी लाल सरन (‘खिलजियों का इतिहास’), इरफान हबीब (‘Northern India under the Sultanate’), बनारसी प्रसाद सक्सेना (‘The Delhi Sultanate’), भी खुसरो और बरनी द्वारा लिखे गये तथ्यों की पुष्टि करतें हैं. आश्चर्य की बात यह है की अलाउद्दीन खिलजी से जुड़ा ‘जौहर’ वाला प्रसंग दिल्ली सम्राट के रणथंभौर हमले के समय सामने आता है. रणथंभौर पर खिलजी ने हमला 1301 में किया था. चित्तौड़ की चढ़ाई 1303 में की गयी.

मंगोल आतताइयों से भारत को बचाने में खिलजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. बगदाद से लेकर यूरोप, रूस और चीन तक खूंखार मंगोलों ने लगभग पूरी दुनिया में कोहराम मचा कर कब्जा कर लिया था. बलबन दिल्ली का पहला बादशाह था जिसने मंगोलों को शिकस्त दी. उसके बाद खिलजी ने मंगोलों को परास्त कर उनके अजेय होने का मिथक तोड़ा.

खिल्जी ने एक के बाद एक लड़ाइयों में मंगोलों को हरा कर उनकी कमर तोड़ दी. जरन-मनजूर (1297-1298), सिविस्तान (1298), कीली (1299), दिल्ली (1303), अमरोहा (1305) के युद्धों में मंगोलों को मुंह की खानी पड़ी. 1306 ईस्वी में खिलजी की फौजों ने रावी नदी के तट पर मंगोलों पर निर्णायक जीत हासिल की. उसके बाद, खिलजी के सेनपतियों ने मंगोलों को अफगानिस्तान तक खदेड़ा. रणथंभौर की लड़ाई और घेरेबन्दी लम्बी चली. खून की नदियां बह निकलीं. राजा हम्मीरा का क़िला अभेद्य माना जाता था. खिलजी अपने युध्द कौशल और तकनीक की वजह से जीता. उसके पास बड़ी-बड़ी चट्टान नुमा मिसाइल फेंकने वाली मशीनें थीं. क़िले के चारों तरफ फैली खाई को खिलजी बुने हुए बोरों से भरने में कामयाब रहा. रणथंभौर की लड़ाई और घेरेबन्दी लम्बी चली. खून की नदियां बह निकलीं. राजा हम्मीरा का क़िला अभेद्य माना जाता था. खिलजी अपने युध्द कौशल और तकनीक की वजह से जीता. उसके पास बड़ी-बड़ी चट्टान नुमा मिसाइल फेंकने वाली मशीनें थीं. क़िले के चारों तरफ फैली खाई को खिलजी बुने हुए बोरों से भरने में कामयाब रहा.

दूसरी तरफ, राजपूत द्वारा रचित ‘हम्मीरा महाकाव्य’ इस बात की पुष्टि करते हैं कि हम्मीरा का सगा भाई भोज, उसका प्रमुख सेनापति रीतिपाल, खिलजी से जा कर मिल गये थे. सर्जन शाह नाम के एक बौद्ध व्यापारी का जिक्र आता है. हम्मीरा से खुन्नस के कारण, सर्जन शाह ने रणथंभौर क़िले के अन्दर खाने-पीने की सामग्री में ज़हर मिला दिया था. तो राजपूतों के पक्ष में मुस्लिम मंगोल लड़े और खिलजी के पक्ष में भोज, रितिपाल जैसे कई हिन्दू राजपूत. खिलजी का रणथंभौर और फिर चित्तौड़ पर हमला एक बड़े राजनीतिक अभियान का हिस्सा था. इस प्रक्रिया में दिल्ली के सुल्तान ने गुजरात (1304), रणथंभौर (1301), चित्तौड़ (1303), मालवा (1305), सिवाना (1308) और जालौर (1311) पर आधिपत्य जमाया.

मलिक मुहम्मद जायसी भक्ति-सूफी आन्दोलन के प्रमुख कवि थे. उनका परिवार रायबरेली, अवध के जैस क़स्बे में बसा था. 1540 ईस्वी के आस -पास जायसी ने अवधी भाषा में पद्मावत की रचना की. अनारकली और जोधा बाई की तरह, रानी पद्मिनी भी साहित्यक पात्र है. साहित्य के रूप में, जायसी की पद्मावत, तथ्य, कहानी, कल्पना का मिश्रण है. पद्मावती एक रोचक, भावनात्मक एवं प्रेम के प्रति समर्पण का अलग संसार पैदा करती है. इस संसार में प्रेम प्राथमिक है. हवस, लोलुपता, महत्वाकांक्षा अन्ततः मायाजाल का हिस्सा है. जायसी ने रणथंभौर और चित्तौड़ की अलग-अलग घटनाओं से श्रीलंका की रानी पद्मिनी के बारे में प्रचलित किन्वन्दितियों का मिश्रण कर दिया.

जायसी के महाकाव्य में खिलजी माया का प्रतिरूप है. राणा रतन सेन ‘मस्तिक्ष’ और रानी पद्मिनी हुस्न के अलावा ‘बुद्धि’ का प्रतीक हैं. जायसी लिखते हैं: राघव दूत सोई सैतानू . माया अलाउदीन सुलतानू .. प्रेम-कथा एहि भाँति बिचारहु. बूझि लेहु जौ बूझै पारहु. जायसी के संसार में माया या मस्तिष्क भी केवल बिम्ब हैं. असल में पद्मावती काव्य में जायसी दुनिया की निरन्तर बदलती हुई स्तिथियों, जहां किसी चीज़ में कोई ठहराव नहीं है, धन, वैभव, रूप, श्रृंगार, आते और जाते हैं, पर अपना सहित्यिक मत पेश करते हैं. कैसे माया और प्रेम में टकराव होता है; कैसे प्रेम सच है; पर कामना भ्रम पैदा करती है. कामना प्रेम का वस्तुकरण करती है. कामना प्रेम को आत्मगत विषय के रूप में देखने के बजाय उसे एक वस्तु बना देती है. कामना प्रेम को अपने विपरीत में बदल देती है. एक वस्तु के रूप प्रेम हाड़-मांस की चीज़ बन जाता है-एक ऐसी चीज़ जिसको सिर्फ ‘हासिल’ किया जा सकता है, ‘पाया’ नहीं जा सकता. इस प्रक्रिया में प्रेम का मानवीय पक्ष क़ुर्बान हो जाता है.

पद्मावती, क्षात्रधर्म और सामंतवाद

पद्मावती में जायसी अलाउद्दीन खिलजी को आक्रान्ता के रूप में प्रस्तुत नहीं करते. खिलजी एक आम इन्सान है, जो अपनी कामनाओं का दास है; और जो ‘भाग्य’ या प्रकृति या प्रेम जैसी भावना के नियमों से वाकिफ नहीं है. वो इस बात से भी वाकिफ नहीं है कि पद्मिनी का वस्तुकरण कैसे पद्मिनी को हक़ीक़त में उससे दूर ले जाता है! क्योंकि वस्तुकरण किसी भी आत्मगत विषय को ‘सम्पत्ति’ में तब्दील कर देता है!

खिलजी का रतन सेन से युध्द ही नहीं हुआ

फिल्म के विपरीत, जायसी की पद्मावती में खिलजी और पद्मिनी के पति रतन सेन में कभी युध्द होता ही नहीं है. खिलजी की कामना रानी पद्मिनी का वस्तुकरण करती है. इस वस्तुकरण की वजह से पद्मिनी एक ‘सामन्ती सम्पत्ति’ में तब्दील हो जाती है. सामन्ती सम्पत्ति के रूप में, पद्मिनी को कोई भी प्राप्त करने की कोशिश कर सकता है. जायसी इस बात को दिखाते हैं कि कैसे रतन सेन की मौत, खिलजी की तलवार से नहीं, बल्कि कुम्भल्नेर के हिन्दू राजा देवपाल से मल्ल युध्द के दौरान हुई.

यूरोपीय सहित्य में सामंती-मध्ययुगीन दौर के उत्तरार्ध में वीरता की एक नई धारा उभरी. यूरोपीय कवियों और वीर रस के लोक-गीतों में भी अचानक प्रेम के पहलू उभरने लगे. वीरों की प्रेम कथायें सामने आयीं. सामन्ती-मध्ययुग का उतरार्ध प्रगतिशील-पूंजीवाद के नये बीजों के फूटने का समय था. उस समय के सहित्य में chivarlous love poetry यानी वीरों की प्रेम कथायें समान्तवाद विरोधी मानी गयीं. क्योंकि इनमें नारी, ‘हासिल करने वाली सामन्ती सम्पत्ति’ नही रह गयी. बल्कि प्रेम का पात्र बनी. पहली बार, नारी की अपनी व्यक्त्तिगत पहचान, एक प्रेमिका के रूप में ही सही बनी.

जायसी ने पद्मावती 16वीं शताब्दी में लिखी. जब भारत में भी प्रोटो-स्वस्थ पूंजीवादी पृवृत्तियां दाखिल हो कर सामन्ती ढांचे और संस्कृति से टकरा रही थीं. जायसी के समय शेरशाह सूरी दिल्ली का बादशाह था. एक दशक बाद अकबर का दिल्ली पर कब्ज़ा हुआ. शेरशाह सूरी और अकबर दोनों ने, अलग-अलग राजघराने के होते हुए भी, भारत को छोटे-छोटे राज्यों में बिखरे हुए सामन्ती समाज को बदल कर रख दिया.

राम चरित मानस की भूमिका

तुलसीदास भी 16वीं सदी के भक्ति-रस के कवि थे. उन्होंने भगवान राम की लीलायें संस्कृत के बजाय अवधी भाषा में लिख कर, भगवान को भक्ति, प्रेम और मानवीय आस्था का प्रतीक बनाया. सामन्ती प्रलापों में जकड़े काशी के पण्डित इसीलिए तुलसीदास से नफरत करते थे. बाद में 17वीं शताब्दी में, रीतिकाल के दौरान, कविता पूरी तरह सामंतवाद से परे, मानवीय, एन्द्रियवादी रंग में ढल गयी.

भरतीय इतिहास में 14वीं सदी

यूरोप की तरह, भारत में भी, 14वीं सदी से बदलाव आने शुरू हो गये थे. 1296-1316 का अलाउद्दीन खिलजी का काल अभूतपूर्व था. इलाहबाद के पास कड़ा-मानिकपुर से लेकर पंजाब में दीपलपुर तक, खिलजी ने सिंचाई और सड़क इत्यादि बनवायी. शेरशाह सूरी और अकबर से पहले, खिलजी ने बिखरे सामन्ती सैन्य बल के स्थान पर, एकीकृत सेना की नींव रखी. खिलजी ने ज़मीन का व्यापक सर्वेक्षण करवाया और राज्य का सीधे किसान से सम्बन्ध बनाने की कोशिश की.

कैम्ब्रिज इकोनॉमिक हिस्ट्री आफ इण्डिया के अनुसार, “अलाउद्दीन खिलजी की कर प्रणाली सबसे लम्बे समय तक, एक संस्था के रूप में जीवित रही. बीसवीं सदी तक भी. खिलजी ने ही तय किया था ज़मीन का कर ही किसानों से लिया जाये. बाकी सारे कर, जिनकी उत्पादकता से कोई लेना-देना नहीं है, और जो सामंत जबरन वसूलते हैं, फिजूल हैं.

खिलजी के सुधार कार्य और उसकी ‘हिन्दू-परस्ती’

खिलजी ने मंडियां बनवाईं, चीज़ों के दाम तय किए और गांव-शहर के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया को तेज किया. अकबर के दो सौ साल पहले, खिलजी ने हिन्दू रानियों से शादी करने की परम्परा की नींव डाली. इस क्रम में खिलजी ने गुजरात के वाघेलों की राजकुमारी कमलदेवी और देवगिरी के राजघराने की राजकुमारी झाट्यपाली से शादी रचाई. इन रानियों को इस्लाम नहीं क़ुबूल करवाया गया. उस समय के इतिहासकारों ने इन शादियों को ‘राजनीतिक गठबंधनों’ की संज्ञा दी. पहले-पहल, खिलजी ने विरोधियों के मन्दिर और मस्जिद तुड़वाए. फिर, हिन्दू राजाओं के साथ मेल हुआ और समझौते के बिंदु निकाले गये. खिलजी ने कई मन्दिर बनवाये. 1305 में लिखे दस्तावेज़ में अमीर खुसरो लिखते हैं की खिलजी ने हिन्दू ज़मींदारों के प्रति इतनी नरमी बरती जितनी उन लोगों को भी उम्मीद नहीं थी. कुछ मुस्लिम अतिवादियों ने बादशाह के इस सौहार्दपूर्ण रूप की आलोचना की.

अलाउद्दीन खिलजी एक नया मज़हब शुरू करना चाहता था

अकबर पहला बादशाह नहीं था जिसने ‘दीन-ए-इलाही’ के बारे में सोचा. हिन्दुस्तान की धरती पर खिलजी को सबसे पहले लगा की एक नया मज़हब जो सारे विभेद मिटा दे, शुरू करना चाहिये. 14वीं सदी के अन्य मुस्लिम लेखक और उलेमा जैसे ज़ियाउद्दीन बरनी खिलजी पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि, “खिलजी को इस्लाम में आस्था उतनी ही थी जितनी एक अनपढ़-जाहिल को होती है”. बरनी खुद ही खिलजी के नये मज़हब बनाने के प्रयासों की आलोचना करता है. बरनी खिलजी पर ‘हिन्दू-परस्त’ होने का भी आरोप लगाता है. यह महत्वपूर्ण है कि 1316 में खिलजी कि मौत के बाद, उसकी हिन्दू रानी से पैदा हुई औलाद क़ुतुबुद्दीन शाह को सबसे पहले उसके अज़ीज़ सेना नायक मलिक कफूर ने गद्दी पर बैठाया.

जायसी के बाद पद्मावती के कम से कम दो और रूप सामने आये. पर कहानी में निर्णायक मोड़ ब्रिटिश लेखक जेंम्स टॉड ने अपनी मशहूर पुस्तक Annals and Antiquities of Rajasthan ने दिया. टॉड ही था जिसने पद्मावती से प्रेम प्रसंग गायब करके, पूरी दास्तान को एक वहशी मुस्लिम राजा के हवस के रूप में पेश किया. टॉड उस समय राजपूतों के इतिहास की अलग श्रृंखला बना रहा था. जिसके तहत राजपूतों का मुसलमानों से और अन्य हिन्दू जातियों से सम्बन्धों को दूर ले जाया गया. राजपूतों को कृषक समाज से अलग कर, एक शुद्ध लड़ाकू क़ौम के बतौर पेश किया जा रहा था. इसके पीछे राजस्थान के वो घराने थे जो अंग्रेजों की स्वामी भक्ति में लगे थे.

उपनिवेशवाद, फासीवाद और भंसाली की पद्मावती

फासीवाद आधुनिक समाज पर सामन्ती मूल्य थोपता है. फासीवाद की ज़मीन उपनिवेशवाद तैयार करता है. सबसे पहले अंग्रेजों ने मुगलों के समय से विकसित हो रहे आन्तरिक पूंजीवाद की भ्रूण हत्या की, उद्योग नष्ट किये. और मुगल-राजपूत-मराठा-अवध काल में पनप रही देसी आधुनिकता एवं प्रारम्भिक पूंजीवाद का गला घोंट दिया. बंगाल से लेकर पूरे भारत में समान्त्वाद को पुन: स्थापित किया. भंसाली की पद्मावती खिलजी को वैसे ही पेश करती है, जैसे जेम्स टॉड ने किया. एक बर्बर, मुस्लिम आक्रांता के रूप में. और यही आरएसएस भी चाहता है. ऐसे में भंसाली संघ का ही काम कर रहे हैं.

पद्मावती फिल्म के माध्यम से संघी राजपूतों को उकसा रहें हैं

बीजेपी गुजरात में बुरी तरह हार रही है. गुजरात में संघ परिवार की हार, लोकतन्त्र के माध्यम से सत्ता हासिल करने की उसकी कोशिश की हार है. अब इसके बाद संघ सत्ता हथियाने का गैर-लोकतान्त्रिक तरीका अपनाएगा. राजस्थान के बड़े राजपूत घराने कहतें हैं की अंग्रेज तो भारत उनको दे कर 1947 में गये थे. ये तो नेहरू बीच में लोकतन्त्र ले आया और सारा खेल खराब कर दिया. अब राजस्थान के बड़े राजपूत घराने करणी सेना का समर्थन कर रहे हैं. उसे फंडिंग कर रहे हैं. संघ तो पहले से ही माहौल को खराब करने की फिराक में था. और अब बड़े राजपूत घराने और संघ के हित फिलहाल मिल गये हैं. लेकिन राजस्थान के बाहर आम राजपूत इस आन्दोलन का समर्थन नहीं कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य-प्रदेश के राजपूत राजस्थान के बड़े राजघरानों को गद्दार मानते हैं. 1857 की पहली जंग-ए-अज़ादी में कुछ अपवादों को छोड़, राजस्थान के सभी राज घरानों ने अंग्रेजों का साथ दिया था.

भंसाली की पद्मावती राजपूत घरानों और आरएसएस को एक अस्थायी गठ बंधन में बांधती है. जैसे-जैसे फिल्म की रिलीज़ डेट नज़दीक आयेगी, हिंसा को बढ़ावा दिया जायेगा. भाजपा राज सत्ता का एक हिस्सा भंसाली का समर्थन देगा. दूसरा हिस्सा करणी सेना का समर्थन करेगा. गुजरात में क्षत्रियों का एक बड़ा समूह है जो ओबीसी श्रेणी में आता है. इन गुजराती क्षत्रियों में अपनी जाति को लेकर ‘हीन भावना’ है. अभी तक यह तबका कांग्रेस की तरफ झुका था. फिल्म पद्मावती पर उन्माद इस हिस्से को भाजपा के पक्ष में गोलबंद कर सकता है. उत्तर प्रदेश में भी नगर निकाय के चुनाव हैं. भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है. यहां योगी खुद ठाकुर हैं. वो भी चाह रहे हैं की फिल्म को लेकर बवाल हो. और उत्तर प्रदेश का ठाकुर-राजपूत भाजपा के पक्ष में गोलबंद हो. मुस्लिम बारावफात त्योहार भी 1 दिसंबर के आस-पास पड़ रहा है. ऐसे में बड़े दंगे भी हो सकते हैं. कम से कम आरएसएस तो कुछ इसी तरह से सोच रहा है.

– अमरेश मिश्रा, इतिहासकार, लखन

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