23 अगस्त 2017 को दलित लेखक संघ के अध्यक्ष कर्मशील भारती का मेरे पास फोन आया कि लीलवान जी को क्या हो गया, उनकी तबियत ख़राब थी क्या? कुछ बहकी-बहकी सी बातें कर रहे थे. मैंने कहा– नहीं तो अभी कुछ दिन पहले तो मेरी मुलाकात हुई थी. बिलकुल ठीक ठाक थे. मैंने उनके सेल फ़ोन पर फोन मिलाया तो नोट रीचेबल था. दूसरा स्विच ऑफ था. लगातार प्रयास के बाद भी उनसे संपर्क नहीं हो पाया. मैंने दिलीप कठेरिया और फिर सूरज बडत्या को संपर्क किया. दिलीप ने भी कुछ बहकी-बहकी बातों का जिक्र किया. फिर तो दिन भर उनके गाँव-घर, दोस्त, ऑफिस, पत्नी इत्यादि जहाँ भी मेरे संपर्क हो सकते थे, मैंने प्रयास किया लेकिन उनका कोई पता नहीं चला. अंततः उनके ऑफिस और पत्नी से संपर्क से पता चला कि उनकी तबीयत पिछले कई दिनों से ठीक नहीं थी. उनकी पत्नी ने बताया कि वे आज सुबह लगभग चार बजे अपनी माँ से मिलने गाँव जाने के लिए मुझसे जिद करके निकले थे.
अजीब-अजीब से ख्यालों में मुझे रात भर लगभग नींद नहीं आयी. मेरी पत्नी और बच्चे भी चिंतित थे. रात के लगभग पौने तीन बजे मेरे फोन की घंटी बजी और मैंने दूसरी-तीसरी घंटी में ही फोन उठाया तो किसी पुलिस वाले का फोन था. उन्होंने बताया कि आप लीलवान जी को जानते हैं? हाँ, मेरे मित्र हैं. उनका एक्सीडेंट हो गया है, वे सड़क पर रोड के किनारे बेहोशी की हालत में हमें मिले थे. हमने उन्हें गुड़गाँव के सिविल अस्पताल में भर्ती कराया है. उन्होंने अपना नाम एस एच ओ अजय वीर सिंह बताया. मैंने उनसे पूछा – आपको मेरा फ़ोन कहाँ से मिला. लीलवान जी के फ़ोन से मैंने आपका नंबर लिया है. उनका फोन टूट गया है. उसकी सिम से मैंने ये नंबर लिया है और हमने बहुत सारे लोगों को इसी तरह संपर्क किया है.
ये सुनकर मानों मेरे पैरों से ज़मीन किसक गयी. मैंने तुरंत अपनी पत्नी और बच्चों को बताया और उनकी पत्नी, दिलीप जी, उनके बड़े भाई के घर पर इस हादसे की खबर दी. मैं सिविल अस्पताल के लिए तैयार ही हो रहा था कि मैंने दोबारा उनके भाई के घर फोन किया तो पता चल कि वे यहाँ तो नहीं हैं. यहाँ के डॉक्टर उन्हें एम्स के ट्रामा सेंटर लेकर गए हैं. मैंने कहा – आप लोग वहीँ पहुंचें मैं वहीँ पहुँचता हूँ. लगभग आधे घंटे के अन्दर मैं ट्रामा सेंटर पहुँच गया. मैंने देखा लीलवान जी बेहोशी की हालत में थे. उनका सी टी स्कैन कराया गया. डॉक्टरों से पता चला कि उनकी हालत बेहद चिंताजनक है. इस बीच उनके घर के लोग पहुँच गए, दिलीप जी भी आ गए. उस दिन के बाद वे कभी होश में नहीं आये.
ये एक हादसा था या इसके पीछे कोई गहरी साजिश है यह कहना मुश्किल है. अगर ये साजिश है तो इसके पीछे निश्चित ही उन ताकतों का हाथ हो सकता है जिनके विरोध में उनका पूरा कविता कर्म हो रहा था. लीलवान जी से मेरी मुलाकात मेरे गाँव में 2 जून 2002 को मेरे गाँव राजोकरी में बाबासाहेब की प्रतिमा की स्थापना के समय हुई थी और मुझे याद है कि उन्होंने अपना वक्तव्य अंग्रेजी में दिया था. संभवतया उन्हें उस समय प्रोफ़ेसर तुलसी राम लेकर आये थे जो उस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल हुए थे. गाँव के लोगों को भले ही उनकी बात भले ही समझ में नहीं आयी हो लेकिन उनकी बातों में व्यवस्था के प्रति जो गुस्सा और समाज के प्रति चिंता थी वह आसानी से समझी जा सकती थी. यद्यपि उनकी पोस्टिंग ज्यादातर दिल्ली से बाहर ही रही लेकिन जब भी वे दिल्ली आते तो अक्सर उनकी कविताओं में व्यवस्था के प्रति व्याप्त असंतोष लगातार और गहरा होता गया.
इधर, 2014 के बाद जब से नयी सरकार का गठन हुआ, उनकी कविता प्रखर से प्रखरतर होती चली गयी. समस्त हिन्दीलोक में लीलवान को मैंने जहाँ एक बेहद शांत व्यक्ति के रूप में पाया वहीँ कवि और आलोचक के रूप में उनकी कविता और आलोचना अपने उस उत्कर्ष पर पहुँच रही थी जो अब तक न केवल सम्पूर्ण दलित साहित्य बल्कि गैर-दलित साहित्य में भी दूर-दूर तक उनका कोई सानी नहीं था. संभवतया अन्दर ही अन्दर लोगों को इस बात पर यकीन नहीं हो पा रहा था कि हिंदी जगत और समस्त भारतीय भाषाओं के लिए दिए जाने वाले हिंदी, साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ के पुरस्कारों के लिए भले वे नामित नहीं हुए हों पर इन सबसे उपर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान के लिए उनका नामित होना कम अचरज की बात नहीं थी. और वे इसके लिए खासे उत्साहित थे. क्यों न हो, किसी दलित लेखक का वहां पहुंचना, इस बीहड़ सामाजिक-सांस्कृतिक भारतीय व्यवस्था में एक दु:स्वप्न जैसा था.
11 नवम्बर 1966 को दिल्ली के बेर सराय में जन्मे जय प्रकाश लीलवान मूलतः हरियाणा के बहादुरगढ़ के पास निलोठी गाँव (जिला झज्जर) के थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में और एमए, एमफिल जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई. उनकी कविताओं में ‘अब हमें ही चलना है’ (2002), ‘नए क्षितिजों की ओर’ (2009), ‘समय की आदमखोर धुन’ (2009), ‘ओ भारत माता! हमारा इंतजार करना’ (2013), ‘लबालब प्यास’ (2017), ‘कविता के कारखाने में’ (2017), ‘धरती के गीतों का गणित’ (2017), ‘गरिमा के गीतों का गणित’ (2017), ‘मेरे देश के गुलामों के गीत’ तथा ‘हमारी सहस्राब्दी के समयों की आदमखोर धुन’ (जिसका उन्होंने अंग्रेजी में स्वयं अनुवाद किया– Songs of Slaves from My Country and the Man-Eater Tune of Times of Our Millennium) प्रमुख है. 26 अगस्त, 2017 को गुडगाँव के मेदंता अस्पताल में वे जिन्दगी से लड़ते लड़ते हार गये.
निश्चित तौर पर लीलवान जी की कविता अपने समय से बहुत आगे की कविता है. मेरा विश्वास है कि जब उनके सम्पूर्ण रचना कर्म का मुल्यांकन होगा निश्चित ही वे अब तक के सारे स्थापित मानदंड धाराशाई हो जायेंगे. उनकी कविताओं पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों, आलोचकों की बानगी देखिये – एक और वर्तमान के लगभग पूरी दुनिया फासीवादी-भजन, जातिवादी-दमन और पूंजीवादी-पतन तथा शोषण के नए-नए संस्करण देने में मगन और संलग्न है तो दूसरी और लगभग अकेला खड़ा कवि उपरोक्त के पूरा झूट-झाठ और तामझाम की आचार-संहिताओं के समानांतर नयी दुनिया के लिए नए आचरण का पूरा व्याकरण और सद्ज्ञान के विज्ञान का महाकाव्यात्मक उपहार लेकर आया है (प्रो. नित्यानंद तिवारी). भौतिकी के क्षेत्र में डायनामाईट का आविष्कार अल्फ्रेड नोबेल ने किया था मगर साहित्यिक-अभिव्यक्तियों के भाषिक-डायनामाईट का आविष्कार निश्चिय ही लीलवान के जीनियस कवि द्वारा घटित हुआ है. जय प्रकाश कर्दम ने उनके साहित्य को भविष्य का घोषणापत्र कहा है. सूरज बडत्या उन्हें भरी-पूरी कविता के अपवाद और उस्ताद दोनों मानते हैं. प्रो. अजमेर सिंह काजल के शब्दों में वे असाधारण और अद्भुत कविता के धनी है. प्रो. चौथी राम यादव के शब्द्रों में वे जाति-प्रथा का दमनात्मक तथ्यों और सत्यों को अद्भुत और असरदार रूप से उजागर करनेवाले बेजोड़ कवि हैं.
जय प्रकाश लीलवान की सम्पूर्ण कविता व्यवस्था के प्रति न केवल व्यापक विद्रोह की कविता है बल्कि वे कविता के माध्यम से एक नया संसार रचते हैं जो बहुजन संघर्ष से और आगे सीधे-सीधे सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति के पक्ष में खड़ा दिखाई देते हैं. वे अपना आदर्श जहाँ बाबासाहेब अम्बेडकर को मानते हैं वहीँ वे बुद्ध तक की यात्रा करते हैं. लेकिन ये यात्रा केवल भावुक और आस्थावान यात्रा नहीं, बल्कि नई स्थापनाओं की यात्रा है. एक और उनका रचनाकर्म दुनिया में अश्वेत आन्दोलन की याद दिलाता है वहीँ भारतीय समाज में फैले जाति और तमाम तरह के भेदभाव से एक कवि के रूप में निरंतर लड़ते योधा के रूप में उन्हें याद किया जाएगा.
सुदेश तनवर द्वारा लिखित
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