स्कूली शिक्षा के शुरुआती दिनों में ही मुझे रविन्द्र नाथ टैगोर का नाम पता चल गया था. लेकिन अण्णा भाऊ साठे का नाम जानने में मुझे अगले 20 सालों तक और इंतजार करना पड़ा. अण्णा भाऊ साठे का नाम मुझे तब पता चला जब मैं महाराष्ट्र के एक अखबार से जुड़ा और महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादियों के संपर्क में आया. और मैं हैरान रह गया कि आखिर इतना बड़े साहित्यकार की कहानी देश के भीतर एक राज्य तक ही क्यों सीमित है. अण्णा भाऊ साठे ऐसे महान साहित्यकार हैं, जिनकी प्रतिभा का डंका दुनिया के 27 देशों में बजता था. लेकिन भारतीय साहित्यकारों के बीच वह अछूत हैं.
जी हां, अण्णा भाऊ साठे, जिन्होंने अपनी कलम की मशाल बनाकर दलित, मजदूर, गरीब, झुग्गी-झोपड़पट्टी वासियों की समस्या को विश्व के पटल पर रखा. एक अगस्त को इस महानायक की जयंती होती है. महाराष्ट्र के सांगली जिले के वालवा तहसील के वाटे गांव में बेहद गरीब, दलित–मातंग परिवार में एक जनवरी 1920 को अण्णा भाऊ साठे का जन्म हुआ था. पहले उनका नाम तुकाराम रखा गया था लेकिन बाद में वह अण्णा भाऊ नाम से जाने गये.
उनके जीवन की सबसे क्रांतिकारी घटना यह रही कि अण्णा भाऊ स्कूली शिक्षा नहीं ले पाएं. सड़क किनारे दुकानों पर लगे साइन बोर्ड पढ़कर उन्होंने अक्षरों को पहचानना सीखा. उन्होंने खुद साक्षर होकर कलम थाम लिया और विश्वविख्यात साहित्यकार बने. बिना किसी युनिवर्सिटी में गए विश्वस्तरीय साहित्य रचने वाले अण्णाभाऊ अपने दौर के इकलौते साहित्यकार हैं. विश्व के 27 भाषाओं में छपने वाला साहित्यकार विश्वविख्यात तो बन गया, लेकिन उन्हें अपने देश भारत में ही वो ख्याति नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे.
अण्णा भाऊ ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण साहित्य की रचना की. उनके 20 कहानी संग्रह, नाटिका, 12 लोकनाट्य, एक यात्रा वृतांत, 30 उपन्यास, 10 लोकप्रिय पोवाडे के साथ ही अनेक साहित्य कृतिया प्रकाशित हुए. उनके उपन्यास पर 8 फिल्में भी बनीं. उनके द्वारा लिखे साहित्य का रशियन, फ्रेंच, अंग्रेजी के साथ देश-विदेश की 27 भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुआ. अण्णा भाऊ की रचना को देश-विदेश के अनेक पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए. कहा तो यह भी जाता है कि रूस में अण्णाभाऊ के साहित्य के इतना पसंद किया गया कि भारत और रूस के आपस के संबंध ज्यादा बेहतर हो गए.
साहित्य के अलावा उनके जीवन का एक पहलू आंदोलनकारी का भी था. मुंबइ के दादर स्थित मोरबाग कपड़ा मिल में 1936-37 में मजदूरी करते हुए वो श्रमिक आंदोलन से जुड़ गए. उस दौरान वह रशियन साम्यवादी क्रांति से प्रभावित थे. अण्णाभाऊ साठे ने अपने गीत एवं साहित्य को पूंजीवादी व्यवस्था और मजदूरों के शोषण के खिलाफ शस्त्र बनाया. अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उनकी कलम आग उगलती थी. लोक नाटिका के माध्यम से उन्होंने सोये हुये समाज को जगाने का काम किया. अगर यह कहा जाए कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में उनकी कलम तथा वाणी ने जान फूंकी तो गलत नहीं होगा. मातंग समाज के बागी नायक ‘फकीरा’ के जीवन पर ‘फकीरा’ शीर्षक से ही लिखे उपन्यास से उन्हें काफी प्रसिद्धी मिली. इसके लिए उन्हें अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले तथा उन्हें महाराष्ट्र का मैक्सिम गोर्की कहा गया.
हालांकि शुरू में कम्युनिस्ट प्रभाव वाले अण्णाभाऊ बाद में आम्बेडकरवादी विचारधारा के हो गए. बाद के दिनों में अण्णा भाऊ भारतीय वर्ण व्यवस्था के विनाश के लिए आंबेडकरी विचारधारा के अलावा अन्य विकल्प ना होने की बात कहते थे. उनका विचार था कि पूरी व्यवस्था बदले बगैर देश के गरीब, श्रमिक, दलित व किसानों को न्याय नहीं मिलेगा. यही वजह रही कि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता पर ही सवाल उठाया था. 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ और देश भर में जश्न मनाया जा रहा था, तब अण्णा भाऊ ने सवाल उठाया कि स्वाधीनता किसे मिली? पूंजीपति को या जन सामान्य को? ऐसे सवाल उठाकर अण्णाभाऊ ने जहां आमजन को विचलित कर दिया तो सरकार को परेशान कर दिया. हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ बगावत अण्णा भाऊ का स्थायी भाव था. उनकी जयंती पर उनको नमन.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।