यह जंगल में भागकर घास की रोटी खाने वालों की कहानी नहीं है.. न अस्सी घाव खाकर मुंह छुपाने वालों की दास्तान है.. यह रणछोड़, घुटनाटेकू या देश की जनता के साथ गद्दारी करने वाले हिन्दू राजाओं की भी बात नहीं है.. यह ज़िन्दा इतिहास है शौर्य, पराक्रम और अपनी मिट्टी के लिए जान तक न्यौछावर करने वाले एक आदिवासी योद्धा की.. गोँडवाना के उस शूरवीर की, जिसने देशी ब्राह्मणी व्यवस्था के साथ मिलकर यहां अपना हुकूमत चलाने वाले अंग्रेज़ों के आगे कभी अपनी हार नहीं मानी और उनसे लोहा लेता रहा.. यह गौरवशाली बयान है उस मूलनिवासी शूरवीर का, जिसने अपनी धरती की आन-बान-शान को सबसे आगे रखा और खुद शहीद होकर भी गोंडवाना के मान को ऊंचा उठाया…यह हक़ीक़त है- गोँड महाराजा बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके की, जिन्हें 21 अक्टूबर, 1858 को अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने के चलते अंग्रेज़ों ने फांसी पर लटका दिया था.. सवर्ण इतिहासकारों ने इस महान घटना को दर्ज़ नहीं किया, लेकिन यह एक ज़िन्दा इतिहास है, जो हमेशा मौजूद रहेगा.
बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके का जन्म 12 मार्च 1833 को हुआ था. वह पुलायसर बापू और जुर्जा कुंवर के बड़े बेटे थे. पुलायर बापू महाराष्ट्र के चंडा ओपी और बेरार जिले के अंतर्गत आने वाले घोट के मोलमपल्ली के बड़े जमींदार थे. गौंड परंपरा के अनुसार शेडमाके की शुरूआती शिक्षा घोटुल संस्कार केंद्र से हुई, जहां उन्होंने हिंदी, गोंडी और तेलुग के साथ-साथ संगीत और नृत्य भी सीखा. इंगलिश सीखने के लिए उनके पिता ने उन्हें छ्त्तीसगढ़ के रायपुर भेजा. रायपुर से शिक्षा प्राप्त करने के बाद शेडमाके वापसी मोलापल्ली आए. 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने आदिवासी परंपरा के अनुरूप राज कुंवर से विवाह किया.
1854 में, चंद्रपुर ब्रिटिश रूल के अंतर्गत आया. शेडमाके ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. 1857 के दौरन, जब पूरा भारत स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ा, शेडमाके ने 500 आदिवासी युवाओं को इकट्टा कर सेना बनाई और उन्हें लड़ने के लिए तैयार किया. उन्होंने आदिवासी सेना के साथ मिलकर राजघड क्षेत्र को ब्रिटिशों से छुड़वाकर अपना कब्जा जमाया. जब यह खबर चंद्रपुर पहुंची तो ब्रिटिश कलेक्टर मि. क्रिक्टन ने ब्रिटिश सेना को युद्ध के लिए भेजा, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही नंदगांव घोसरी के पास ब्रिटिश सेना को हरा दिया. मि. क्रिक्टन ने फिर से सैन्य दल युद्ध के लिए भेजा जोकि संगनापुर और बामनपेट में हुआ लेकिन यहां ब्रिटिश सेना हार गई.
इन दोनों जीत से शेडमाके का मनोबल बढ़ा और उन्होंने 29 अप्रैल 1858 को चिंचगुडी स्थित उनके टेलीफोन शिविर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में टेलीग्राफ ओपरेटर्स मि. हॉल और मि.गार्टलैंड मारे गए थे जबकि मि. पीटर वहां से भागने में कामयाब रहा और उसने पूरी घटना की जानकारी मि. क्रिक्टन को बताई. मि. क्रिक्टन ने शेडमाके को गिरफ्तार करने के लिए कूटनीतिक चाल चली. एक तरफ वह नागपुर के कैप्टेन शेक्सपियर्स से उन्हे पकड़ने के लिए पूछ रहे थे और दूसरी तरफ वह अहेरी की जमींदारनी रानी लक्ष्मीबाई से उसे पकड़ने का दवाब बना रहे थे. शेडमाके इससे वाकिफ नहीं थे. 18 सितंबर 1858 को शेडमाके को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें चंडा सेंट्रल जेल लाया गया, 21 अक्टूबर 1858 को बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके को चंडा के खुले मैदान में फांसी दे दी गई.
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