नई दिल्ली। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) इंदौर और तिरुचिरापल्ली में वंचित समुदायों से फैकल्टी सदस्यों की भर्ती में बड़ी कमी है। ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियों के लिए आरक्षित पद खाली पड़े हैं, जो इन संस्थानों के सकारात्मक कार्यवाहियों की अनुपालना पर सवाल उठाते हैं। एक आरटीआई जवाब के माध्यम से मिली जानकारी से पता चलता है कि आईआईएम इंदौर में एससी और एसटी केटेगरी में कोई भी अध्यापक नहीं है जबकि सामान्य वर्ग के सभी पद भरे जा चुके हैं.
ऑल इंडिया ओबीसी स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एआईओबीसीएसए) के अध्यक्ष किरण कुमार गौड़ द्वारा मांगी गई आरटीआई पर आईआईएम इंदौर से जवाब प्राप्त किया गया जिसके अनुसार, सस्थान में 150 फैकल्टी पदों में से कई आरक्षित श्रेणी के पद खाली हैं:
- ओबीसी पद: केवल 2 सहायक प्रोफेसर नियुक्त किए गए हैं.
- एससी और एसटी पद: न तो अनुसूचित जाति (एससी) और न ही अनुसूचित जनजाति (एसटी) से कोई फैकल्टी सदस्य नियुक्त किया गया है.
- ईडब्ल्यूएस: केवल 1 सहायक प्रोफेसर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) से नियुक्त किया गया है.
दलित दस्तक से किरण कुमार गौड़ ने बताया कि कुल 150 फैकल्टी पदों में से 106 जनरल कैटेगरी के उम्मीदवारों द्वारा भरे गए हैं, जिससे 41 पद खाली रह गए हैं. एससी और एसटी की पूरी अनुपस्थिति और ओबीसी की कम संख्या विविधता और समावेशन पर गंभीर प्रश्न उठाते हैं.
आईआईएम तिरुचिरापल्ली की स्थिति भी चिंताजनक है। वहां 83.33% ओबीसी, 86.66% एससी, और 100% एसटी फैकल्टी पद खाली हैं, जबकि सभी जनरल कैटेगरी पद भरे गए हैं. यह भर्ती प्रक्रिया में एक व्यापक प्रणालीगत समस्या को दर्शाता है, जहां वंचित समुदायों को फैकल्टी पदों से बाहर रखा गया है.
इन खुलासों पर विभिन्न नागरिक समाज समूहों और छात्र संगठनों ने कड़ी आलोचना की है, जो कहते हैं कि यह न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों की शैक्षणिक आकांक्षाओं को भी कमजोर करता है.
एआईओबीसीएसए के अध्यक्ष किरण कुमार गौड़ ने कहा, “यह संविधान के प्रावधानों का बड़ा उल्लंघन है, आईआईएम जैसे संस्थान समावेशन और समान अवसर के प्रतीक होने चाहिए, लेकिन ये आंकड़े एक भेदभाव और जातिगत असमानता की कठोर वास्तविकता को दर्शाते हैं.”
भर्ती में नहीं होती रोस्टर की पालना
गौड़ ने आगे बताया कि चिंता की बात है कि आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में भर्ती प्रक्रिया में रोस्टर की पालना नहीं की जा रही है. इसके साथ ही सवर्ण, दलित, आदिवासी व पिछड़े शिक्षकों की नियुक्ति के आंकड़ों को भी छिपाया जा रहा है.
आलोचकों का कहना है कि सीटों की उपलब्धता और ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियों के उम्मीदवारों की योग्यता के बावजूद, इन समूहों से शिक्षकों की नियुक्ति करने में अनिच्छा जाति-आधारित भेदभाव के गहरे मुद्दों को दर्शाती है.
संकाय प्रतिनिधित्व में विविधता की कमी के दूरगामी निहितार्थ हैं, न केवल सामाजिक न्याय के लिए बल्कि भारत के प्रमुख प्रबंधन संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता और विविध दृष्टिकोणों के प्रतिनिधित्व के लिए भी ये ट्रेंड उचित नहीं है. सामाजिक-आर्थिक विभाजन को पाटने के उद्देश्य से सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के साथ, शिक्षा जगत में हाशिए के समुदायों का निरंतर कम प्रतिनिधित्व तत्काल सुधारों की आवश्यकता पर जोर देता है.
‘दलित दस्तक’ में डिजिटल कंटेंट एडिटर अरुण कुमार वर्मा पिछले 15 सालों से सक्रिय पत्रकार हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता करने के बाद अरुण वर्ष 2008 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। हिंदी दैनिक अमर उजाला से पत्रकारिता की शुरुआत करने के पश्चात राजस्थान पत्रिका व द मूकनायक जैसे प्रिंट व डिजिटल मीडिया संस्थानों में बतौर रिपोर्टर और एडिटर काम किया है। अरुण को 2013 में पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए ‘पण्डित झाबरमल पत्रकारिता पुरस्कार’ व वर्ष 2015 में प्रतिष्ठित ‘लाडली मीडिया पुरस्कार’ जीता है। अरुण उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के मूल निवासी है।