संकट-मुक्त होता आंबेडकरवाद

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मंडल उत्तरकाल में जो ‘वाद’ सारे वादों को म्लान करते हुए नित्य नई बुलंदी छूते जा रहा है, वह और कोई नहीं आंबेडकरवाद है. इस बात को समझने के लिए पहले आंबेडकरवाद की परिभाषण समझ लेनी होगी. वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभीन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति,नस्ल,लिंग,इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत  ही आंबेडकरवाद है.इस वाद का औंजार है: आरक्षण. भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है. बहरहाल दलित,आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है,जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया. ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही. इसमें अध्ययन-अध्यापन ,पौरोहित्य,भूस्वामित्व,राज्य संचालन,सैन्य वृत्ति,उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी. स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं .

हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया: एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग(सवर्ण) और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे. इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित,आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए. लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई, क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा. इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया. यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा. इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही. वे गुलामों के गुलाम रहे. इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया.

 अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी. इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई. हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे. इससे धीरे-धीरे वे  सांसद -विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे. दलित –आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए. संविधान में डॉ.आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे पिछड़ी जातियों के भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए.

7 अगस्त, 1990  को प्रकाशित मंडल की रिपोर्ट स्वाधीनोत्तर भारत में सामाजिक न्याय के लिहाज से सबसे बड़ी घटना थी और यही बहुजनों के लिए काल भी बन गयी . मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही पूना-पैक्ट के जमाने से आरक्षण का सुविधाभोगी तबका एक बार फिर शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया. इसके प्रकाशित होने के बाद 24 जुलाई,1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप आज भारत का बहुजन प्रायः विशुद्ध गुलाम में तब्दील हो चुका है. 24जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ आंबेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं. इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों  में किया, नरेंद्र मोदी ने उतना प्रायः चार सालों में कर डाला है. मोदी राज में देखते ही देखते १प्रतिशत लोगों का  देश की 73%  तो टॉप की 10% आबादी का देश की प्रायः 90% धन-दौलत दौलत पर कब्ज़ा हो गया. इनके साथ 90% वंचित आबादी जहां मात्र 10% धन पर वहीं आंबेडकर के लोग 1% धन-संपदा पर जीवन वसर करने के लिए विवश हो गए. आंबेडकर के लोगों  के लिए जो सरकारी नौकरियां धनार्जन का एकमात्र स्रोत थीं, वह स्रोत लगभग पूरी तरह रुद्ध कर दिया गया है. आने वाले दिनों में इस समुदाय से किसी को डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनते देखना एक सपना बनने जा रहा है. यह सब हालात बतातें है कि मोदी राज   आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया . बहरहाल मोदी राज में जिस तरह आरक्षण को शेष करने का अभूतपूर्व प्रयास हुआ, उससे आंबेडकरवाद पर संकट इतना गहरा गया कि पिछली आंबेडकर जयंती पर मैंने जो लेख लिखा उसका शीर्षक था ,’संकट में आंबेडकरवाद’. लेकिन इस बार जब यह लेख लिख रहा हूँ तब उसका वह शीर्षक बदलने से खुद को न रोक सका. उसके पीछे 2019 में आये कुछ बदलाव हैं.

2014 के मई में सत्ता में आने के आंबेडकर प्रेम में बाकी  दलों को पीछे छोड़ने के बावजूद मोदी ने जिस तरह आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने में अपने पूर्ववर्तियों को शिशु बनाया, उससे लगा 2019 में इससे विरत होकर चुनावी वर्ष में खुद को मुकाबले में बनाये रखने के लिए बहुजनों का समर्थन जीतने लायक कुछ काम करेंगे. किन्तु 2019 में तो वे और खूंखार रूप धारण कर लिए. इसलिए अपने कार्यकाल के स्लॉग ओवर में बहुजनों के भावनाओं से खेलते हुए सवर्ण और विभागवार आरक्षण लागू करवाने के कुछ दिनों बाद देश की सर्वोच्च अदालत के माध्यम से 10 लाख आदिवासी परिवारों को उन जंगलों से दूर खदेड़ दिए जिन जंगलों पर उनका जीवन निर्भर करता है. उनके इन कामों से आरक्षित वर्गों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. सबसे पहले 7 जनवरी, 2019 को मोदी मंत्रीमंडल द्वारा आर्थिक आधार पर सवर्णों को नौकरियों और उच्चशिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा के साथ सोशल मीडिया पर ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा उभरने लगा, जो 9 जनवरी को राज्यसभा में आरक्षण का प्रस्ताव पारित होते ही सैलाब में बदल गया. जिसकी जितनी संख्या भारी का नारा सबसे पहले बहुजन बुद्धिजीवियों ने उठाया, उसके बाद एक-एक करके राजद के तेजस्वी यादव, सपा के धर्मेन्द्र यादव और विपक्ष की अनुप्रिया पटेल सहित कई अन्य नेताओं ने अपने-अपने तरीके से आरक्षण को 100 प्रतिशत तक बढ़ाकर सभी प्रमुख सामाजिक समूहों में बंटवारे की मांग उठाया. यह वह मांग थी जिसके लिए डाइवर्सिटी  समर्थक बुद्धिजीवी विगत डेढ़ दशक से प्रयास कर रहे थे . बाद में जब 13 पॉइंट रोस्टर के खिलाफ बहुजन छात्र और गुरुजन तथा लेखक –एक्टिविस्ट 5 मार्च को भारत बंद किये, संख्यानुपात में आरक्षण की मांग एवरेस्ट सरीखी बुलंदी अख्तियार कर ली. 5 मार्च के भारत बंद से जिस तरह सरकार 13 प्वाइंट रोस्टर का निर्णय वापस लेने के लिए मजबूर हुई,उससे बहुजन बुद्धिजीवियों की साईक में बड़ा बदलाव आ गया. उन्हें यकीन हो गया कि यदि संगठित होकर सड़कों  पर उतरा जाय तो सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए बाध्य किया जा सकता है.

परवर्तीकाल में 5 मार्च के भारत बंद के पीछे अग्रणी भूमिका निभाने वाले छात्र और गुरुजनों ने 2 अप्रैल,2018 के भारत बंद के शहीदों की शहादत को याद करने के लिए 2 अप्रैल,2019  को ‘रामलीला मैदान चलों’ का आह्वान किया. उनके आह्वान पर भारी संख्या में छात्र-शिक्षक तथा लेखक-एक्टिविस्ट जमा हुए. उनकी उपस्थिति में उन्होंने 15 सूत्रीय एक दलित एजेंडा जारी किया. इस एजंडे में आरक्षण को 100 प्रतिशत तक विस्तार देते हुए सरकारी और निजीक्षेत्र की नौकरियों, न्यायपालिका, सप्लाई, ठेकों इत्यादि में जिसकी जितनी सख्या भारी का फार्मूला लागू करने की मांग उठाया गया. यहाँ तक कि बैंको द्वारा दिए जाने वाले लोन  में भी सामाजिक विविधता का सिद्धांत लागू करने की मांग उठाई गयी. दलित बुद्धिजीवियों ने दिल्ली के रामलीला मैदान से जारी दलित एजेंडा सभी राजनीतिक दलों के पास भेंजा  , ताकि वे उसे लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में शामिल कर सकें. भारी संतोष का विषय  है कि विगत कुछ दिन में विभिन्न पार्टियों के जो घोषणापत्र जारी हुए हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है राजनीतिक दलों ने बहुजन बुद्धिजीवियों के संख्यानुपात में सर्वव्यापी आरक्षण का सिद्धांत को सम्मान दिया है. जिन प्रमुख दलों के घोषणापत्रों में बहुजन बुद्धिजीवियों के एजेंडे को अच्छा स्पेस मिलता दिख रहा है,उनमे राजद और कांग्रेस सबसे आगे है. राजद के घोषणापत्र का थीम ही ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ है. इन दोनों के ही घोषणापत्र में जिस तरह आरक्षण को विस्तार दिया गया है, वैसा आजाद भारत में कभी नहीं हुआ. इनके घोषणापत्रों में जाति जनगणना कराने , प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के साथ , निजीक्षेत्र की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं व न्यायपालिका के साथ सप्लाई –ठेकों इत्यादि में संख्यानुपात में आरक्षण देने की बात कही गयी है. राजद-कांग्रेस के घोषणापत्र में आरक्षण का विस्तार दरअसल प्रधानमंत्री मोदी के आंबेडकरी आरक्षण के खिलाफ अपनाये गए क्रूर रवैये की परिणिति हैं,जिसकी प्रतिक्रिया में बहुजनों में आरक्षण की मात्रा 100 प्रतिशत तक बढाकर उसका वाजिब बंटवारे करने की उग्र चाह पैदा हुई है. बहुजन बुद्धिजीवियों के दलित एजेंडे तथा राजद-कांग्रेस के घोषणापत्र में बहुजनों की इस चाह का प्रतिबिम्बन हुआ है. इस चाह के पनपने के फलस्वरूप जिस तरह अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में आरक्षण नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार फिल्म-मीडिया इत्यादि राष्ट्र के जीवन के हर क्षेत्र तक विस्तारलाभ किया, वैसा भारत में भी होता दिख रहा है.आरक्षण को लेकर दलित, आदिवासी ,पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबको के छात्र-गुरुजन,लेखक-एक्टिविस्टों और नेताओं में आये इस बदलाव को देखते हुए अब दावे के साथ कहा जा सकता है कि आंबेडकरवाद संकट-मुक्त हो गया है. यदि लोकसभा चुनाव में बहुजन मतदाता राजद-कांग्रेस इत्यादि को सत्ता में लाने में सफल हो जाते हैं, इसका सुफल जल्द मिलना मिलना शुरू हो जायेगा.

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.संपर्क-9654816191

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