मेरी एक मित्र मुंबई मे रहती हैं। लॉकडाउन से ठीक एक हफ्ता पहले एक लड़की ने उन्हे महाराष्ट्र के किसी गाँव से फोन किया। वह लड़की लगभग रोते हुए उनसे बोली कि मैं पीएचडी कर रही हूँ और बहुत परेशान हूँ। उसके पीएचडी गाइड ने बीते तीन सालों मे ना तो उसका प्रपोजल पढ़ा न पढ़ने के लिए कोई किताब या पेपर सजेस्ट किया ना ही मीटिंग के लिए टाइम दिया है। वह लड़की एक छोटे से गाँव से आती है, उसके माता पिता दूसरों के खेत पर मजदूरी करते हैं उसके सरनेम से ही पता चलता है कि वह तथाकथित नीचली जाति से आते है। गाइड महोदय इस बेचारी को तीन साल से टाल रहे हैं। अपने थीसिस चैप्टर के ड्राफ्ट लेकर उनके आगे पीछे डोलती रहती है लेकिन ‘महामहिम’ को देखने तक की फुरसत नहीं है।
यह लड़की आत्महत्या के विचारों से घिर गयी, बहुत उदास रहने लगी और फेसबुक पर उखड़ी-उखड़ी पोस्ट लिखने लगी। मेरी मित्र ने इस लड़की को हिम्मत बंधाई और आगे का रास्ता समझाया। यह लड़की ज्योतिबा फूले के विचारों पर पीएचडी कर रही है इसके गाइड महोदय ने अपने जमाने मे राजा राममोहन रॉय पर पीएचडी की है और वे ज्योतिबा या अंबेडकर को नहीं पढ़ना चाहते। रिसर्च कमेटी और पीएचडी गाइड समझाते रहे कि राममोहन रॉय पर शोध करो, लेकिन लड़की अड़ी रही। लेकिन अपने इस निर्णय का परिणाम उसे अब भुगतना पड़ रहा है।
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मेरी मित्र ने इस लड़की को मेरा फोन नंबर दिया, वह जानती है कि मैंने ज्योतिबा पर किताब लिखी है। कुछ समय पहले इस लड़की ने मुझे फोन किया। उसकी बातें सुनकर लगा कि अगर इसके रिसर्च गाइड इसे सिर्फ आधा घंटा समय दे दें और सहानुभूति से इसकी बातें सुन लें तो ना सिर्फ यह अवसाद और आत्महत्या के विचारों से बाहर निकल जाएगी बल्कि उसकी पीएचडी भी पटरी पर आ जाएगी। लेकिन गाइड को ना फुरसत है ना ही रुचि है।
बीते दस सालों मे मैंने ऐसी सैकड़ों कहानियाँ सुनीं है, पता चलता है कि न केवल छात्रों की उपेक्षा की जाती है बल्कि लड़कियों का शारीरिक शोषण भी पीएचडी गाइड द्वारा किया जाता है। लड़कों को मजदूरों की तरह इस्तेमाल करके घर की साफ सफाई तक करवाई जाती है। ऐसी हालत मे ना केवल गरीब बच्चे पढ़ाई छोड़कर भाग जाते हैं बल्कि कई तो आत्महत्या के विचारों और अवसाद मे भी फस जाते हैं।
इस विषय मे मैंने कुछ अकादमिक मित्रों से बात की है, सभी मित्र यह महसूस करते हैं कि बहुजन बच्चों को तानाशाह और शोषक गाइड्स की तानाशाही से बचाने की जरूरत है। इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि एक अलग से मंच बनाया जाए जहां कुछ मित्र इकट्ठे होकर सभी बच्चों की समस्याओं पर विचार किया जा सके। इसीलिए हम नालंदा पीएचडी कंसल्टेंसी की शुरुआत कर रहे हैं। इसके जरिए छात्रों को उनके विषय और पीएचडी की प्रक्रिया सहित विश्लेषण, लेखन, प्रकाशन आदि से जुड़े मुद्दों पर जानकारी दी जाएगी।
यह मंच एक तरह से खुली चर्चा का मंच होगा जहां अनुभवी छात्र या शिक्षक नए लोगों से संवाद कर सकेंगे और जरूरी सलाह ले-दे सकेंगे।
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संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।
We all those get opportunity first must come forward for nurturing our sister and brother together.
Jai Bhim to Jothe, at least came forward. I would also like to join and support.
Jai Bhim!
Dr Navin Narayan