हर युद्ध,गृहयुद्ध की कीमत जैसे देश काल परिस्थिति निर्विशेष स्त्री को ही चुकानी पड़ती है, उसी तरह दुनिया में कहीं भी युद्ध हो तो उससे आखिरकार हिमालय लहूलुहान होता है. उत्तराखंड के कुमायूं गढ़वाल रेजीमेंट या डोगरा रेजीमेंट,नगा रेजीमेंट या असम राउफल्स सबसे कठिन युद्ध परिस्थितियों का मुकाबला तो करती ही है, गोरखा रेजीमेंट की टुक़ड़ियां अब भी ब्रिटिश सेना में शामिल है. हाल के खाड़ी युद्ध और अफगानिस्तान युद्ध में भी हिमालय जख्मी हुआ है, बाकी युद्ध, गृहयुद्ध का मतलब सौ बेटों की मृत्यु का सामना करने वाली माता गांधारी का शोक है या फिर कुरुक्षेत्र का शाश्वत विधवा विलाप है.
हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अनगिनत लाशें हमारी देशभक्ति के लिए इतना अनिवार्य क्यों है? साठ के दशक में हरित क्रांति के बावजूद हालात भुखमरी हुई थी. तबसे लेकर भूख का भूगोल बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ लगातार सीमाओं के आर-पार इस खंडित महादेश का सबसे बड़ा सच है. इस भूख के खिलाफ सही मायने में अभी कोई लड़ाई शुरु हो नहीं पायी है. आम जनता के हकहकूक के लिए कहीं कोई मोर्चा नहीं है. 1971 में भारत-पाक युद्ध के नतीजे से सिर्फ बांग्लादेश आजाद हो गया, ऐसा नहीं है. खुला युद्ध फिर नहीं हुआ, सच है लेकिन हम लगातार पाकिस्तान और चीन के साथ छायायुद्ध लड़ रहे हैं. शहादतों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं. उसी युद्ध के नतीजे के तहत समूचा अस्सी के दशक में पूरा देश गृहयुद्ध की आग में जलता रहा और सिखों का नरसंहार के साथ साथ गुजरात नरसंहार तक नरसंहारों का अटूट सिलसिला हमारे अंध राष्ट्रवाद का अखंड युद्धोन्माद है. यही सियासत है और मजहब भी यही है.
1962 में हम चीन से युद्ध हार गये, तब भी हिमालय सबसे ज्यादा लहूलुहान हुआ. उस युद्ध के बाद हमारी समूची उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था बदल गयीं. आम जनता की बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं को नजरअंदाज करते हुए तब से लेकर आज तक हम लगातार युद्धाभ्यास कर रहे हैं. हमने इस युद्धोन्माद की वजह से समूचे देश को परमाणु चूल्हों के हवाले कर दिया है. हमारे बजट में रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर भारी खर्च और राष्ट्रवाद, देशभक्ति की पवित्र संवेदनशील भावनाओं की आड़ में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हो रहा है. इसी अंध राष्ट्रवाद की लहलहाती फसल कालाधन है जो विदेशी बैंकों में जमा है और किसी अपराधी के किलाफ जांच इसलिए नहीं हो सकती के यह कालाधन रक्षा घोटालों का है. युद्ध परिस्थितियों में आपातकाल के समय अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं होती है और अंध राष्ट्रवाद में विवेक कहीं खो जाता है. इसलिए रक्षा घोटालों में अब तक किसी को सजा हुई नहीं है.
अमेरिका के युद्धों में भी वहां के राजनेता और राष्ट्रनेता अरबों की सौदेबाजी करते रहे हैं. हाल में इसके तमाम खुलासा हुए है कि कैसे निजी और कारपोरेट हित में सिर्फ अमेरिका को नहीं, सिर्फ नाटो को नहीं, पूरी दुनिया को अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने युद्ध के हवाले किया है. मसलन तेल युद्ध का सच अब जगजाहिर है. अमेरिकी राष्ट्रवाद की आड़ में वहां की अर्थव्यवस्था बाकायदा युद्धक अर्थ व्यवस्था है. दुनियाभर में युद्ध और गृहयुद्ध में अमेरिकी हित निर्णायक होते रहे हैं. बाकी दुनिया की तरह इस महादेश के तमाम युद्धों और गृहयुद्धों की जड़ में वही अमेरिकी हित हैं जो सभी पक्षों को युद्ध गृहयुद्ध का जरुरी ईंधन समान भाव से मुहैय्या कराता है और अल कायदा, तालिबान और आइसिस अमेरिकी अवैध संताने हैं. इस महादेश के राष्ट्रनेताओं के कारनामों का खुलासा हो, हमारे कारपोरेट लोकतंत्र में इसकी कोई संभावना नहीं है. हमने उसी अमेरिका के साथ परमाणु संधि करके और फिर रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश का जो रास्ता तैयार कर दिया है, उसकी नियति फिर युद्ध है क्योंकि रक्षा क्षेत्र में निजी, कारर्पोरेट और विदेशी हितों के समरस समावेश से हमारी अर्थव्यवस्था भी अब युद्धक अर्थव्यवस्था बन गई है.
गौर कीजिये, भारत में मौजूदा युद्धोन्माद कितना प्रायोजित है. हम पाकिस्तान के प्रति भारत की घृणा या कश्मीर मसले के मजहबी सियासत या सियासती मजहब की चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं और यह भी नहीं कह रहे हैं कि इन युद्ध परिस्थितियों का आने वाले चुनावों में राजनीतिक परिणाम किसके हित में निकलेंगे. मसलन यूपी,पंजाब और उत्तराखंड में क्या क्या हो सकता है? मसला यह है कि कार्पोरेट हितों से प्रायोजित इस युद्धोन्माद का मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था से कितना और किस हद तक संबंध है सियासत और मजहब की बातें छोड़ दें तो शायद हम निरपेक्ष विवेक से इस युद्धोन्माद के औचित्य की विवेचना कर सकते हैं कि कैसे उपभोक्ता सामग्री की तरह हमारे शहीद बेटों की शहादत का इतने व्यापक पैमाने पर सुनियोजित विज्ञापन दसों दिशाओं में हो रहा है ताकि हमारे जो बेटे अब तक शहीद न हुए हों, वे शहीद बना दिये जा सकें. हमारा राष्ट्रवाद उसी कारर्पोरेट विज्ञापन अभियान का अभिन्न हिस्सा है.
कहने को भारत की तरह पाकिस्तान में लोकतंत्र है और वहां भी चुनाव होते हैं. हम पाकिस्तान को आतंकवादी या फौजी हुकूमत कहने को आजाद हैं. हम कश्मीर मसले पर सीधे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा कर बाकी सारा किस्सा नजरअंदाज कर सकते हैं. चूंकि दो राष्ट्र सिंद्धांत के तहत देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बना लेकिन भारत तो हिंदू राष्ट्र नहीं है, हम यह अब दावे के साथ नहीं कह सकते. राजनीतिक समीकरण बेहद आसान है और राष्ट्रवाद सीमाओं के आर पार उसी भारत विभाजन की विरासत है, जिसे हम जुए की तरह पिछले सात दशकों से ढो रहे हैं और अपनी आजाद जिंदगी की नई शुरुआत कर ही नहीं सके हैं. जितना युद्धोन्माद भारत में है, उससे कम पाकिस्तान में नहीं है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद संगीन है. उत्पादन में हो न हो, हथियारों की पारमाणविक दौड़ में पाकिस्तान किसके दम पर भारत की बराबरी कर रहा है, उस पर सिलसिलेवार गौर करने की जरुरत है क्योंकि सबसे बड़े उस दुश्मन के हवाले हमने अपनी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा दोनों सौंप दिये हैं.
सियासत और मजहब से के तंग दायरे से निकलकर इस युद्धोन्माद की युद्धक अर्थव्यवस्था और उसके कारर्पोरेट दांव को समझें और फिर यह विवेचना भी कर लें कि हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? सबसे मुश्किल यह है कि इस महादेश में वियतनाम युद्ध विरोधी या इराक अफगानिस्तान युद्ध विरोधी किसी आंदोलन की कोई गुंजाइश नहीं है. हमारे पास बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अपने बेटों की लाशों के इंतजार के सिवाय फिलहाल कोई दूसरा विकल्प नहीं है और बहुसंख्य जनती उसी शहादत की जमीन पर युद्धोन्माद का यह कारर्पोरेट जश्न मना रहा है.
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