कहानी की पहली किस्त सुमित ने लिखी थी, दूसरी किस्त अजरा के अपने अनुभवों को लेकर है. अजरा ने हरियाणा और इस्लाम के मिले जुुले अनुभव को कलमबद्ध किया है.
आरे सुमित यो के करा तनैं? ना लाड्डू खुआए अर ना नाचण का मौका दिया. बता बहू ले आया अपणे आप. पर कोए ना ईब ले आया तो ठीक सै… बहू तो चोखी सै तेरी.
इन लाइनों के साथ पड़ोस की एक आंटी ने मुझे मुंह दिखाई दी थी. 6 साल में सुमित से इतनी हरियाणवी तो मैं भी सीख ही चुकी हूं. वो बात और है कि बोल नहीं पाती लेकिन जोड़-तोड़ कर मतलब तो समझ ही लेती हूं.
चलिए कहानी में आगे बढ़ते हैं. मेरा नाम अज़रा प्रवीन है और मैं मुसलमान हूं. उर्दू ज़बान में स्कूल की पढ़ाई करने वाली मैं बहुत ही आम लड़की थी और पूरे इस्लामिक तौर तरीकों से दिल्ली 6 की गलियों में पली थी. कॉलेज में सुमित से प्यार हुआ और अब मैं हरियाणा के एक गांव में हूं सुमित के घर पर.
मैंने हरियाणा का नाम अक्सर टीवी और अखबारों में ही पढ़ा था. अफसोस किसी अच्छे काम के लिए नहीं. झूठी शान के लिए बेटे-बेटी की हत्या, खाप पंचायत के एक गोत्र में शादी करने वाले जोड़े को जान से मारने के फैसले, कन्या भ्रुण हत्या और औरतों के खिलाफ जुल्मों के बारे में. कुछ इसी तरह के हरियाणा की एक इमेज बनीं हुई थी दिमाग में, कॉलेज में तो कई बार इन मसलों पर बहस हुई थी. अब शादी के बाद जब हरियाणा जाने की मेरी बारी आई तो दिल में कई सवाल मुंह उठाए खड़े थे… क्या होगा वहां पर? कैसे लोग होंगे? कहीं मैं और सुमित भी ऑनर किलिंग का शिकार तो नहीं हो जाएंगे? खैर सुमित साथ था तो निकल गए हम भी मिशन फैमिली पर.
सुमित के घर जाकर मेरे सारे पूर्वाग्रह बिना पंख के ही छू मंतर हो गए. मेरी सास एक दम सरल व्यक्तित्व वाली लेकिन खुद्दार महिला हैं. अब मुझे यहां दूसरी अम्मी मिल गई हैं. यहां किसी को मेरे धर्म से कोई दिक्कत नहीं है. ना ही सुमित के घर वालों को और ना ही किसी गांव वाले को. अभी तक जितने लोगों से मिली हूं किसी ने धर्म को लेकर ज्यादा सवाल-जवाब नहीं किए और ना ही हमारी शादी को लेकर कुछ गलत कहा. हिंदी सीरियलों की जली भूनी औरतों के जैसे यहां किसी ने मुझे नीचा दिखाने की भी कोशिश नहीं की. यहां मेरे जेठ-जेठानी से लेकर मेरी ननंद तक सभी ने मेरे डर को भगाकर मेरी हिम्मत बांधी. हरियाणा की स्टीरियोटाइप इमेज अब दूर हो रही है. दिल्ली वालों के दिमागी फितूर के मुकाबले यहां लोग सरल और स्पष्ट हैं. मेरे लिए ये किसी सपने से कम नहीं. हां मैंने अपनी सास के दिए सारे गहनों और चुड़ियों को पहन लिया है, क्योंकि मुझे इसमें धार्मिक प्रतीकों से ज्यादा अपनी बहू के लिए प्यार दिखाई देता है.
मैं मुसलमान हूं और अपने मजहब को शिद्दत से मानती हूं लेकिन सुमित नास्तिक है. सुमित जैसे लोगों को हमारे यहां काफिर कहा जाता है. गैर-मुस्लिम से शादी करना किसी गुनाह से कम नहीं. अब मैंने सुमित से शादी की है तो कई लोगों की परिभाषा में मैं भी काफिर ही कहलाऊंगी. चाहे भले ही मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता कितना ही मजबूत क्यों ना हो. हां अगर सुमित इस्लाम कुबूल कर लेता तो शायद मुझे शाबाशी मिलती कि अल्लाह का नाम लेने वालों की गिनती में एक शख्स और बढ़ गया. शायद यही फॉर्मूला मेरे हिंदू बनने पर भी लागू होता. लेकिन हमारा इश्क किसी स्पोंसर्ड लव जेहाद जैसी साजिश का हिस्सा थोड़े ना है. धर्म को लेकर हम दोनों की राय अलग है लेकिन हम एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं.
मैंने अपना धर्म और नाम नहीं बदला है और ना ही किसी ने मुझे बदलने के लिए कहा. मैं जैसी हूं वैसी सबको मंजूर हूं. आप कहते रहिए मुझे काफिर… सच्चा इश्क भी किसी इबादत से कम नहीं होता.
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