सफल राजनीतिज्ञ ही नहीं कामयाब वकील भी थे बाबा साहब

 लेखकः मुस्ताक अली बोहरा| आजाद हिन्दुस्तान के संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। बाबा साहब को चाहे राजनीतिज्ञ के रूप देखा जाए या फिर समाजसेवी के रूप में या वकील के रूप में, हर किसी क्षेत्र में उनका योगदान इतना है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। वे एक जाने-माने वकील भी थे। बाबा साहब की वकालत न केवल अदालतों में बल्कि देश-दुनिया भर में शोषित.पीड़ित, मजदूर, जरूरतमंदों की आवाज बन गई है।

अगर बाबा साहब ने वकालत नहीं की होती तो भारतीय संविधान का यह स्वरूप नहीं होता जो आज दिख रहा है। उन्हें संविधान लिखने वाली कमेटी का अध्यक्ष भी इसलिए बनाया गया था क्योंकि वह पेशेवर वकील भी थे। डॉ. आम्बेडकर उत्कृष्ट बुद्धिजीवी, प्रकाण्ड विद्वान, सफल राजनीतिज्ञ, कानूनविद्, अर्थशास्त्री, लेखक, समाजसेवी और लोकप्रिय जननायक थे। वे शोषितों, महिलाओं और गरीबों के मुक्तिदाता और समाज सुधारक थे।

बाबा साहब आंबेडकर सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष के प्रतीक है। बाबा साहब ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में लोकतंत्र की वकालत की। बाबा साहब ने जिस समाज का सपना देखा था वो समता, बंधुता और न्याय पर आधारित था। यूं तो बाबा साहब के बचपन से लेकर भारत और विलायत में उच्च शिक्षा हासिल करने तक उन्होंने कितना संघर्ष किया, कितना अपमान सहा इसकी जानकारी ज्यादातर लोगों को हैं, लेकिन ये कम ही लोग जानते हैं कि वो जितने कामयाब राजनीतिज्ञ थे उतने ही कामयाब वकील भी थे। उन्होंने कई देशों के संविधान की पढ़ाई करने में काफी समय व्यतीत किया।

डॉ. अंबेडकर को कानून के साथ ही कई विषयों में महारत हासिल थी। उन्होंने भारत और दुनिया के प्राचीन और आधुनिक कानूनों को रूचि के साथ पढ़ा। इसके बाद वो वक्त आया जब बाबा साहब कानून के तमाम पहलुओं के विशेषज्ञ बन गए। बाबा साहब की नजर से देखें तो अच्छा वकील बनने के लिए कुछ आधारभूत चीजें होना जरूरी है। अच्छे वकील को कानून के मौलिक सिद्धांतों की समझ होनी चाहिए। किसी विषय को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने की कला आनी चाहिए। संवाद और तर्कों में सत्यता होनी चाहिए। अपनी बात कहने या अभिव्यक्ति की क्षमता होनी चाहिए। अच्छे वकील को हाजिरजवाब होना चाहिए। साथ ही सोचने.समझने और तर्क करने की क्षमता होनी चाहिए।

कमजोर, शोषित वर्ग के साथ ही दलित समाज के हक के लिए संघर्ष करते हुए बाबा साहब को ये अहसास हुआ कि दलितों को उनका हक इतनी आसानी से नहीं मिलने वाला। उनसे जुड़े मसले गंभीर और जटिल हैं। इसलिए बाबा साहब ने ये फैसला किया कि उन्हें वकालत करना होगा। इसके बाद बाबा साहब कानून की डिग्री हासिल करने के लिए दोबारा लंदन गए।

वे सिंतबर 1920 में लंदन पहुंचे, लेकिन तब तक हिन्दुस्तान में बाबा साहब दलितों के सुधारक के तौर पर अपनी अलग और मजबूत पहचान बना चुके थे। लंदन में पहुंचकर बाबा साहब ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया। वकालत की पढ़ाई उन्होंने लंदन के ग्रेज इन फॉर लॉ से की। हालांकि, तब लंदन में ड्रामा, ओपेरा व थिएटर आदि आम था और लोग मंनोरंजन के लिए यहां जाया करते थे। लेकिन बाबा साहब का अधिकतर समय पुस्तकालय में बीतता था वो सुबह से लेकर देर शाम तक पढ़ते रहते थे। पैसे बचाने के लिए बाबा साहब लंदन में भी पैदल चलते थे। खाने में ज्यादा पैसे खर्च ना हो ये सोचकर तो कई बार वे भूखे ही रह जाते थे।

लंदन में बाबा साहब के रूममेट असनाडेकर उनसे कहते थे कि अरे आंबेडकर रात बहुत हो गई, कितनी देर तक पढ़ते रहोगे। कब तक जागते रहोगे अब सो जाओ। असनाडेकर की इस बात पर बाबा साहब का जबाव होता था कि मेरे पास खाने के लिए पैसे और सोने के लिए समय नहीं है। मुझे अपना कोर्स जल्द से जल्द पूरा करना है, और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। बाबा साहब की इस बात से पता चलता है कि उन्हें अपनी भूख-प्यास, नींद-आराम से ज्यादा इस बात की फ्रिक थी कि वे वकालत का कोर्स पूरा कर भारत आकर दलित और कमजोर वर्ग के लिए कानूनी तौर पर लड़ाई लड़ सकें।

वकालत की वजह से ही डॉ. आंबेडकर को पूरे महाराष्ट्र का दौरा करने का मौका मिला था। इस दौरान उन्होंने लोगों की बुनियादी समस्याओं और उनकी जरूरतों को करीब से समझा। लिहाजा जब वे संविधान सभा के प्रारूप समिति के प्रमुख बने तो उन्होंने संविधान में जरूरी चीजों का समावेश किया। सन 1936 में डॉ. आंबेडकर ने तत्कालीन बंबई के सरकारी लॉ कॉलेज में ब्रिटिश संविधान पर व्याख्यान दिया था। आज भी ये व्याख्यान हमारे देश के कानून को समझने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। कुछ साल बाद जब देश आजाद हुआ तो उन्होंने इस देश का संविधान लिखा।

एक साल में बन गए बैरिस्टर और डॉक्टर

वर्ष 1922 में कानून का कोर्स पूरा करने के बाद उन्हें ग्रेज इन में ही बार का सदस्य बनने के लिए न्यौता दिया गया और इस तरह से बाबा साहब बैरिस्टर बन गए। यहां ये बताना लाजमी होगा कि बाबा साहब ने एक ही समय में दो कोर्स पूरे किए थे। ग्रेज इन में कानून की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में उच्च अर्थशास्त्र की डिग्री भी हासिल की थी। इसके बाद सन 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने उनकी थीसिस को मान्यता दी और उन्हें डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि से सम्मानित किया। एक ही वर्ष में वे डॉक्टर और बैरिस्टर बन गए थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने मनाई थी सौंवी वर्षगांठ

यूं तो देश भर में लाखों वकील हैं, लेकिन ये जानकर आश्चर्य हो सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने बाबा साहब के वकील बनने पर सौंवी वर्षगांठ मनाई थी। बाबा साहब को शिक्षा हासिल करने के लिए खासा संघर्ष करना पड़ा था। शीर्ष अदालत ने बाबा साहब के वकील बनने पर सौंवी वर्षगांठ मनाते हुए उनके संघर्ष और बलिदान का स्मरण किया और श्रद्धांजलि दी। वकालत पास करने के बाद भी उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। बहुमुखी प्रतिभा का धनी होने के बावजूद उन्होंने ही सबसे ज्यादा जातीय प्रताड़ना झेली।

रजिस्ट्रेशन फीस तक के नहीं थे पैसे

डॉक्टर आंबेडकर ने इंग्लैंड में 1916 में ही लॉ में नामांकन ले लिया था, लेकिन उनकी वकालत का कोर्स तब तक पूरा नहीं हुआ था क्योंकि बड़ौदा महाराज से मिले वजीफे की मियाद पूरी हो गयी थी। इस वजह से वे भारत लौट आए। यहां आने के बाद डॉ. आंबेडकर को सिडेनहम कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी भी मिल गई। चूंकि बाबा साहब वकालत करना चाहते थे, इसलिए वहां उन्होंने नौकरी के अलावा निजी रूप से पढ़ाना शुरू किया, जिससे कि पैसा बचाकर अपनी अधूरी पड़ी डिग्री को पूरा कर सकें। डॉ. आंबेडकर फिर से इंग्लैंड पहुंचे। 28 जून 1922 को डॉ. आंबेडकर बार.एट.लॉ बने। वर्ष 1923 में डॉ आंबेडकर ने लॉ की डिग्री हासिल की।

लंदन से लौटने के बाद उनके सामने अपने परिवार का भरण-पोषण करने की चुनौती थी। पत्नी, बच्चे, उनकी भाभी और भतीजे के भरे पूरे परिवार के भरण पोषण के लिए वो वकालत करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय में पंजीकृत होने की जरूरत थी। तब उनके पास रजिस्ट्रेशन फीस देने के पैसे तक नहीं थे। तब उनके दोस्त नवल भथेना ने ये 500 रुपये दिए। इसके बाद उन्होंने बार काउंसिल की सदस्यता के लिए आवेदन किया था। 4 जुलाई 1923 को उन्हें सदस्यता मिली और अगले ही दिन 5 जुलाई से उन्होंने बॉम्बे बार काउंसिल में वकालत शुरू कर दी। उन्होंने बंबई उच्च न्यायालय के साथ.साथ ठाणे, नागपुर और औरंगाबाद की जिला अदालतों में वकालत की।

ठुकरा दी मुख्य न्यायाधीश की नौकरी

सन 1923 में ब्रिटिश सरकार ने डॉ. आंबेडकर को ढाई हजार रुपये महीने की पगार पर जिला न्यायाधीश की नौकरी का प्रस्ताव दिया, उनसे यह भी कहा गया कि अगले तीन वर्षों में उन्हें बंबई हाईकोर्ट में जज बना दिया जाएगा, लेकिन उन्होंने वकालत का पेशा ही चुना। कुछ दिनों के बाद हैदराबाद के निजाम ने उन्हें राज्य के मुख्य न्यायाधीश बनने की पेशकश की थी, लेकिन डॉ. आंबेडकर ने इन सभी प्रस्तावों को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यह उनकी निजी आजादी को खत्म कर देगा। बाबा साहब ने बहिष्कृत भारत के अपने लेख और अपने भाषणों में जिक्र करते हुए कहा था कि वे दलितों के हितों के लिए काम करना चाहते थे इसलिए जिला न्यायाधीश सहित कोई सरकारी नौकरी स्वीकार नहीं की। वकालत करते हुए आजादी के साथ जो काम वो करना चाहते थे वो सरकारी नौकरी करते हुए नहीं कर सकते थे।

जातिगत भेदभाव का शिकार हुए बैरिस्टर आंबेडकर

डॉ. आंबेडकर अपना एक ऑफिस भी बनाना चाहते थे, लेकिन उनके पास पैसों की कमी थी लिहाजा दोस्तों की मदद से मुंबई में उन्होंने एक कमरा किराए पर लिया। लेकिन अछूत होने के कारण उनके पास केस नहीं आते थे। तब के दौर में वकालत के पेशे में ऊंची जातियों के लोग ही थे और ये बात जानते हुए भी बाबा साहब ने वकालत का रिस्क लिया। उस वक्त मोहनदास करमचंद गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, दादाभाई नौरोजी, बदरूद्दीन तैयबजी, फिरोजशाह मेहता, एन. जी. चन्द्रावरकर, चित्तरंजन दास, सैय्यद हसन इमाम, मियां मोहम्मद शफी जैसे लोग दिग्गज वकीलों में शुमार किए जाते थे। जातिगत भेदभाव, दलित समाज, वकालत के नये पेशे सहित अन्य चुनौतियों के बावजूद बाबा साहब ने हिम्मत नहीं हारी और अदालतों में काम करते रहे।

बाबा साहब के मुवक्किलों की माली हालत भी खस्ता हुआ करती थी। उनके मुवक्किल गरीब, खेतिहर या दिहाड़ी मजदूर हुआ करते थे। बाबा साहब इन लोगों को न्याय दिलाने की कोशिश करते थे। उन्होंने कभी भी न्याय की आस में आने वाले लोगों के साथ सामाजिक अथवा आर्थिक तौर पर भेदभाव नहीं किया। बाबा साहब को काम की तलाश में मुफस्सिल कोर्ट की तरफ भी जाने के लिए मजबूर होना पड़ता था। सामाजिक.आर्थिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि का वकालत में क्या महत्व होता है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जिस दिन मोहम्मद अली जिन्ना दो लाख 57 हजार रुपए के दिवालियापन का मुकदमा लड़ रहे थे उसी दिन डॉ. आंबेडकर उसी कोर्ट में एक सेवानिवृत्त मुसलमान शिक्षक का अविश्वास तोड़ने का 24 रुपए का मुकदमा लड़ रहे थे, जिसमें उन्हें जीत मिली थी।

गरीब मुवक्किलों से नहीं लेते थे फीस

वकालत के शुरूआती दिनों में बाबा साहब को किसी तरह एक महार समाज के ही व्यक्ति का केस मिला। लोकमान्य तिलक के भतीजे ने भी उनकी सहायता की। बाबा साहब के पास उच्च वर्ग के हिन्दु अपना केस लेकर नहीं आते थे। इसके अलावा सवर्ण लोग ब्रिटिश वकीलों को अपना केस देते थे। डॉ. बीआर आंबेडकर एक अनुशासित और प्रखर विद्वान होते हुए भी अपने मुवक्किलों के साथ बहुत सहज रहते थे। वे कई बार अपने मुवक्किलों के साथ अपना खाना तक साझा करते थे। गरीब, दलित लोग कानूनी मदद की आस में उनके पास आने लगे। वे गरीबों का केस मुफ्त में लड़ते थे। कई बार तो गरीब मुवक्किल बिना झिझक बाबा साहब के घर पहुंच जाया करते थे।

एक दिन उनकी पत्नी रमाबाई जब घर में नहीं थीं तो दो मुवक्किल आए। डॉ, आंबेडकर ने ना केवल उनकी परेशानी सुनी बल्कि उन्हें दिन का खाना खिलाया। इतना ही नहीं रात में उन्होंने खुद खाना बनाया और उन्हें परोसा। बाबा साहब ने कॉरपोरेट घरानों की वकालत करने को प्राथमिकता नहीं दी बल्कि मजदूरों के वकील के रूप में काम करना शुरू किया। एक वकील के रूप में उन्होंने राजनीतिक, समुदायों के बीच के आंतरिक मामले, मजदूरों-गरीबों से जुड़े हुए मामले और संविधान के मूल भावना से जुड़े मामलों को तरजीह दी। हालांकि, इसके अलावा वह और मामलों में भी वकालत करते थे।

जज भी बन गए थे उनके मुरीद

अपनी काबलियत के बूते बाबा साहब एक वकील के रूप में प्रसिद्ध हो गए। बाबा साहब की काबलियत, अदालत में उनके तर्क और कानून में उनकी पकड़ देखकर उन्हें केस मिलने लगे थे और जब बाबा साहब अदालत में पेश होने जाते थे। बहुत सारे लोग उन्हें देखने के लिए ही जमा हो जाते। वकालत के शुरूआती दौर में बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जॉन न्यूमोंट उन्हें ब्रिटिश वकीलों की तरह काबिल नहीं मानते थे, लेकिन बाद वह उनके मुरीद बन गए। अटॉर्नी.एट.लॉ एनएच पांडिया और बीजी खेर, जो बॉम्बे लॉ जर्नल के संपादक थे, उन्होंने बाबा साहब को पत्रिका के संपादकीय बोर्ड का सदस्य बनने के लिए आमंत्रित किया। वर्ष 1927-28 में वे बॉम्बे लॉ जर्नल की सलाहकार और संपादकीय समिति के विशेष आमंत्रित सदस्य बनाए गए। हालांकि, अक्टूबर 1928 में उन्होंने समिति छोड़ दी क्योंकि वो दलित समाज के हित के लिए काम करते हुए व्यस्त हो गए थे।

बाबा साहब ने वकालत करते हुए ये महसूस किया कि वो बतौर वकील उतना पैसा नहीं अर्जित कर पा रहे हैं, जिससे उनके परिवार का भरण-पोषण हो सके तो उन्होंने अध्यापन की ओर रूख किया। जून 1925 से सन 1929 तक उन्होंने बाटलीबोई अकाउंटेंसी इंस्टीट्यूट में अंशकालिक व्याख्याता के रूप में वाणिज्यिक कानून पढ़ाया। जून 1928 से करीब एक साल गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, बॉम्बे में पढ़ाया। फिर वह एक लॉ कॉलेज में प्रिसिंपल नियुक्त किए गए। मई 1938 में उन्होंने लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल के पद से इस्तीफा दे दिया।

ये सिर्फ बाबा साहब की कर सकते थे

बैरिस्टर के रूप में बाबा साहब आंबेडकर की काबलियत और उनके रसूख का अंदाजा लगाया जाना खासा मुश्किल है। बात है सन 1928 की। तब समाज में दलित समुदाय की स्थिति के बारे में ब्रिटिश सरकार के सामने पक्ष रखा जाना था। साइमन कमीशन के सामने गवाही देने के लिए डॉ. आंबेडकर को चुना गया था। जिस दिन उन्हें ये गवाही देनी थी। ठीक उसी दिन उन्हें एक महत्वपूर्ण मामले में ठाणे के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपने मुवक्किल का पक्ष भी रखना था। यदि डॉ. आंबेडकर उस मुकदमे में उपस्थित नहीं होते तो शायद उनके कुछ मुवक्किलों को फांसी की सजा मिलती और इसका मलाल उन्हें जिन्दगी भर रहता।

दूसरी ओर डॉ, आंबेडकर यदि साइमन आयोग के सामने गवाही देने के लिए नहीं जाते तो देश के करोड़ों लोगों की पीड़ा को दुनिया के सामने रखने का मौका निकल जाता। बाबा साहब के सामने इस तरह की दुविधा थी वे क्या करें क्या ना करें। लेकिन ऐसे में उन्होंने न्यायाधीश से अनुरोध किया कि अभियुक्तों के बचाव को अभियोजन पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति पहले दी जाए। अमूमन होता यह है कि अभियोजन पक्ष अपना तर्क पहले रखता है, लेकिन डॉ, आंबेडकर की स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपना पक्ष पहले रखने की अनुमति दी गई। बचाव के लिए दिए गए तर्कों को देखते हुए उन मामलों में अधिकांश अभियुक्तों को बरी कर दिया गया था। हालांकि जब न्यायाधीश ये फैसला सुना रहे थे तब डॉ, आंबेडकर साइमन कमीशन के सामने देश के दलितों की स्थिति पर अपना पक्ष रख रहे थे।

हमेशा होता रहेगा उनके लड़े मुकदमों का जिक्र

डॉ, आंबेडकर ने सन 1923 से सन 1952 तक अपने लंबे करियर के दौरान कई मुकदमे लड़े। बतौर वकील बाबा साहब ने कई केस ऐसे लड़े जिनकी चर्चा बरसों तक होती रहेगी। मसलन, आरडी कर्वे और समाज स्वास्थ्य पत्रिका का मुकदमा। डॉ. आरडी कर्वे समाज सुधारक थे। वह महिलाओं के स्वास्थ्य और यौन शिक्षा के बारे में जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। तब यौन शिक्षा के बारे में बात करना खासा मुश्किल था।

डॉ, कर्वे की इस काम के लिए आलोचना की जाती थी। समाज स्वास्थ्य पत्रिका में यौन शिक्षा पर लेख प्रकाशित हुआ करते थे। सन 1934 में डॉ. कर्वे पर एक मुकदमा दर्ज हुआ। उन पर आरोप था कि वे अपनी मासिक पत्रिका ‘समाज स्वास्थ्य’ के जरिए वे समाज में अश्लीलता फैला रहे हैं। डॉ. आंबेडकर ने उनकी तरफ से केस लड़ा। अदालत में डॉ. आंबेडकर ने कहा अगर कोई यौन समस्याओं के बारे में लिखता है तो उसे अश्लील नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने अपनी दलील देते हुए कि अगर लोग अपने मन के सवाल पूछते हैं और इसे विकृति मानते हैं तो केवल ज्ञान ही विकृति को दूर कर सकता है। इसलिए उन सवालों के जवाब डॉ. कर्वे को देना चाहिए।

ऐसा ही एक चर्चित मामला था देश के दुश्मन का। ये बात है सन 1926 की। तब दिनकर राव जावलकर और केशव राव जेधे गैर-ब्राह्मण आंदोलन की अगुआई करने वालों में थे। उस समय ब्राह्मण समुदाय के लोग सामाजिक सुधारों का विरोध कर रहे थे। इस विरोध के कारण महात्मा फुले की आलोचना भी की जा रही थी। महात्मा फुले को क्राइस्टसेवक भी कहा जाता था। इन बातों के विरोध में दिनकर राव जावलकर ने देश के दुश्मन नामक पुस्तक लिखी और केशवराव जेधे ने इसका प्रकाशन किया।

मराठी में लिखी इस पुस्तक में लोकमान्य तिलक और विष्णु शास्त्री चिपलूनकर का जिक्र करते हुए उनकी खासी आलोचना की गई। जिससे तिलक के समर्थक नाराज हो गए और उन लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया था। ‘देश्चे दुश्मन’ (देश का दुश्मन) के लेखक केशव जेधे के खिलाफ ब्राह्मण वकील ने मुकदमा दायर कर दिया। केशव जेधे दलित थे। मुकदमा पुणे में चला और निचली अदालत ने जेधे.जावलकर को सजा सुनाई। जावलकर को एक साल की सजा सुनाई गई, जबकि जेधे को छह महीने जेल की सजा सुनाई गई। इस सजा को चुनौती दी गई और बाबा साहब आंबेडकर इस मामले में वकील बने। बाबा साहब भी देश के दुश्मन पुस्तक पढ़ चुके थे। इस मामले की सुनवाई पुणे सेशन कोर्ट में जज लॉरेंस की अदालत में हुई। डॉ आंबेडकर ने एक पुराने मानहानि केस का हवाला देकर यह केस लड़ा।

उन्होंने जज फ्लेमिंग के आदेश का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि वहां भी मामला समान था क्योंकि शिकायत दर्ज करने वाला व्यक्ति, मानहानि का दावा करने वाले शख्स का दूर का रिश्तेदार है, इसलिए उसके पास कोई अधिकार नहीं है कि वह मुकदमा दर्ज कराए। आंबेडकर ने अपनी वाकपटुता में यहां तक कह दिया कि चूंकि यह किताब किसी खास ब्राह्मण के खिलाफ नहीं और वकील चूंकि पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, इसलिए इस मुकदमे का कोई तुक नहीं बनता है। डॉ. आंबेडकर ने अदालत के सामने दलीलें पेश की और जेधे.जावलकर दोनों की ही सजा माफी हो गई।

महाड़ सत्याग्रह का मामला भी नजीर बन गया। आजादी के दशकों पहले से अछूतों को सार्वजनिक जलस्रोतों से पानी पीने का हक नहीं था। वहां मवेशी तो पानी पी सकते थे, लेकिन अछूत नहीं। इस अन्याय के खिलाफ डॉ, आंबेडकर ने मुहिम चलाई और इसके कारण ही महाड़ सत्याग्रह हुआ। यह महाड़ झील के पानी पर हक को लेकर लड़ाई थी। कुछ असामाजिक तत्वों ने अछूत समुदाय के लोगों पर भी हमला किया ताकि वे लोग महाड़ झील पर न आए। इसके अलावा डॉ. आंबेडकर और उनके साथियों पर कई मुकदमे भी दर्ज किए गए। इस मामले में तर्क दिया गया कि यह झील पूरी तरह से हिंदुओं की है। यह कोई सार्वजनिक जमीन पर नहीं बनी है। यह भी कहा गया कि इससे दूसरे समुदाय के लोग भी पानी लेते हैं। किसी को रोका नहीं गया है। तब डॉ. आंबेडकर ने अदालत को बताया कि यह झील महाड़ नगर निगम की जमीन पर बनी हुई है। यहां से केवल सवर्ण हिंदुओं को पानी लेने की अनुमति है।

खटीक मुस्लिमों को भी यहां से पानी नहीं लेने दिया जाता। मामले की सुनवाई के दौरान ये तथ्य सामने आया कि यह झील 250 सालों से है और यहां से केवल सवर्ण हिंदुओं को ही पानी मिलता है। डॉ, आंबेडकर ने अदालत में यह भी साबित किया कि झील नगर निगम की जमीन पर है, इसलिए इससे सभी को पानी लेने का हक है। हाईकोर्ट ने बैरिस्टर आंबेडकर की दलील को स्वीकार करते हुए इसे सभी के लिए खोलने का निर्देश दिया। अदालत ने भी माना कि यह आंदोलन किसी एक झील या जलस्रोत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अदालत का आदेश सभी सार्वजनिक जल निकायों पर भी लागू होगा। अदालत ने कहा कि किसी की जाति और सामाजिक स्थिति को देखकर उसे पानी लेने से मना नहीं किया जा सकता।

अहम केसों में एक केस फिलिप स्प्राट का था जो इंगलैंड के रहने वाले थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। उन्होंने इंडिया और चाइना नाम से एक पर्चा लिखा था जिसके चलते उसे ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिया था। कोर्ट में वह बरी हो गए। इसी तरह ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट लीडर बीटी रणदिवे के राजद्रोह के मामले में डॉ, आंबेडकर ने ही वकालत की जिसमें रणविदे को भी बरी कर दिया गया। ट्रेड यूनियन से जुड़े अनेकों मामले में, जिसमें देश के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता वीबी कार्णिक, मणिबेन कारा, अब्दुल मजीद, रणविदे जैसे लोग शामिल थे, का भी बचाव किया था। बाबा साहब ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कई प्रकरणों में पैरवी की।

बहरहाल, 1946 में वे भारत की संविधान सभा के लिए चुने गये। 15 अगस्त 1947 को उन्होंने स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में शपथ ली। इसके बाद उन्हें संविधान सभा की मसौदा समिति का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया का नेतृत्व किया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ, बीआर आंबेडकर को आजाद भारत का पहला कानून मंत्री बनाया था। कानून मंत्री के रूप में उन्होंने शोषित-पीडि़त और कमजोर वर्गों को अधिकार देने के लिए संविधान में प्रावधान किए और उन्हें पारित करवाया। जातिगत व्यवस्था को खत्म किया, सभी को समान दर्जा और समान अधिकार दिए। बाबा साहब ने ही महिलाओं को समान दर्जा और अधिकार देने वाले कानूनों की नींव रखी थी।


लेखक- मुस्ताक अली बोहरा पेशे से अधिवक्ता है और मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निवासी है।

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