सुनो बता रही हूं कि हम मनुष्यों को गाय, भैंसों से भी नीच माना है, इन लोगों ने, जिस समय बाजीराव का राज था, उस समय हमें गधों के बराबर ही माना जाता था। आप देखिए, लंगड़े गधे को भी मारने पर उसका मालिक भी आपकी ऐसी-तैसी किए बिना नहीं रहेगा लेकिन मांग-महारों को मत मारो ऐसा कहने वाला भला एक भी नहीं था। उस समय दलित गलती से भी तालिमखाने के सामने से अगर गुज़र जाए तो गुल-पहाड़ी के मैदान में उनके सिर को काटकर उसकी गेंद बनाकर और तलवार से बल्ला बनाकर खेल खेला जाता था”
यह दलितों के अधिकारों की बात करने वाली आधुनिक युग की पहली दलित लेखिका मुक्ता साल्वे के शब्द हैं। इनके शब्दों में वेदना और आक्रोश साफ झलकते हैं। मुक्ता सावित्रीबाई और ज्योतिबाई फुले की पाठशाला की छात्रा थीं।
मुक्ता क्रांतिवीर लहूजी साल्वे की पोती थीं, जो महाराष्ट के क्रांतिकारी हुआ करते थे। लहूजी ने महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले को लड़कियों के सबसे पहले स्कूल को खुलवाने में मदद की थी और उनका यह स्कूल 1 जनवरी 1848 पुणे में खुला था।
15 फरवरी 1855 को मात्र 14 साल की उम्र में उन्होंंने अपने निबंध में पेशवा राज (ब्राह्मणों का राज) में दलितों की स्थिति को शब्दों में व्यक्त किया था। उन्होंने इनके के दुखों, चुनौतियों और निवारण के उपायों के संबंध में विस्तृत निबंध लिखा था, जिसे मराठी पत्रिका ज्ञानोदय ने सर्वप्रथम ‘मांग महाराच्या दुखविसाई’ शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित किया था। पहला भाग 15 फरवरी 1855 तथा दूसरा भाग 1 मार्च 1855 को प्रकाशित हुआ था। 5 जनवरी 2021 को उन्हीं मुक्ता सालवे की 177 वीं जयंती है। उन्हें नमन।
- प्रस्तुतिः रंजन देव

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।