आजादी के बहुजन नायकः उदईया चमार और मातादीन वाल्मीकि

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पहले स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर तिलका मांझी और उनके साथियों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े गए युद्ध की आग आगे बढ़ चली थी. इसके बाद अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल 1804 में बजा. छतारी के नवाब नाहर खां अंग्रेजी शासन के कट्टर विरोधी थे. 1804 और 1807 में उनके पुत्रों ने अंग्रेजों से घमासान युद्ध किया. इस युद्ध में जिस व्यक्ति ने उनका भरपूर साथ दिया वह उनके परम मित्र उदईया थे. हालांकि उदईया चमार के बारे में बहुत विस्तृत जानकारी नहीं है, लेकिन यह साफ है कि उनकी वीरता का लोहा अंग्रेज भी मानते थे. अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में नवाब नाहर खां की ओर से लड़ते हुए उन्होंने अकेले ही सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया. बाद में उदईया चमार पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई. उदईया की गौरव गाथा आज भी क्षेत्र के लोगों में प्रचलित हैं.

इसके बाद देश 1857 की क्रांति की ओर बढ़ चला था. 1857 की क्रांति ऐसी थी, जिसके बाद अंग्रेजों और भारतीयों के बीच लगातार सीधी लड़ाई लड़ी जाने लगी. 1857 की क्रांति को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है. भारतीय इतिहासकारों द्वारा इस पूरी क्रांति का श्रेय मंगल पांडे को दे दिया जाता है, लेकिन असल में इस क्रांति के सूत्रधार थे मातादीन वाल्मीकि.

मातादीन के पुरखे अंग्रेजी शासन में सरकारी नौकरी में रहे थे. अतः शीघ्र ही मातादीन को भी बैरकपुर फैक्ट्री में खलासी की नौकरी मिल गई. यहां अंग्रेज सेना के सिपाहियों के लिए कारतूस बनाए जाते थे. इन्हीं कारतूसों को तमाम हिन्दू सैनिक अपने मुंह से खिंचकर और बंदूकों में भरकर इस्तेमाल करते थे. अंग्रेजी फौज के निकट रहने के कारण मातादीन के जीवन पर उसका खासा असर पड़ा था.

मातादीन को पहलवानी का भी शौक था. वह इस मल्लयुद्ध कला में दक्षता हासिल करना चाहते थे, लेकिन अछूत होने के कारण कोई भी हिन्दू उस्ताद उन्हें अपना शागिर्द बनाने को तैयार नहीं होता था. आखिरकार मातादीन की मल्लयुद्ध सीखने की इच्छा पूरी हुई और एक मुसलमान खलीफा इस्लाउद्दीन जो पल्टन नंबर 70 में बैंड बजाते थे, मातादीन को मल्लयुद्ध सिखाने के लिए राजी हो गए. इसी मल्लयुद्ध कला की बदौलत ही मातादीन की जान-पहचान मंगल पाण्डे से हुई थी. लेकिन जल्दी ही मातादीन की जाति जानने के बाद उनके प्रति मंगल पांडे का व्यवहार बदल गया.

एक दिन गर्मी से तर-बतर, थके-मांदे, प्यासे मातादीन ने मंगल पाण्डे से पानी का लोटा मांगा. मंगल पाण्डे ने इसे एक अछूत का दुस्साहस समझते हुए उन्हें झिड़क दिया और कहा, ‘अरे भंगी, मेरा लोटा छूकर अपवित्र करेगा क्या?’ फिर क्या था, इस अपमान से जले मातादीन ने वो राज खोल दिया, जो सालों से दबा हुआ था, और जिसने 1857 की क्रांति की नींव रख दी. मातादीन ने मंगल पांडे को ललकार दिया और कहा कि पंडत, तुम्हारी पंडिताई उस समय कहा चली जाती है जब तुम और तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से काटकर बंदूकों में भरते हो.’

यह सुनकर मंगल पांडे सन्न रह गया. जल्दी ही मातादीन की ये बात हर बटालियन और हर छावनी में फैल गई. मातादीन द्वारा कहे कड़वे सच ने सेना में विद्रोह की स्थिति बना दी. सारे हिन्दू सैनिक सुलग रहे थे. 1 मार्च, 1857 को मंगल पाण्डे परेड मैदान में लाईन से निकल कर बाहर आ गया और एक अधिकारी को गाली मार दी, जिसके बाद विद्रोह बढ़ता चला गया. इसके बाद मंगल पाण्डे को फांसी पर लटका दिया गया. मंगल पांडे को फांसी देने की बात सभी जानते हैं. लेकिन एक सच से तमाम लोग आज भी अंजान हैं. विद्रोह फैलाने के जुर्म में अंग्रेजों ने मातादीन को भी गिरफ्तार कर लिया था, जिसके बाद मातादीन को भी अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया.

इस तरह मातादीन वाल्मीकि ने जो चिंगारी लगाई थी, आखिरकार वह चिंगारी सन् 1947 में भारत के आजाद होने की वजह बनी.

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