जब भी देश की आजादी की बात होती है, उसके संघर्ष की बात होती है तो अक्सर उच्च वर्ग के लोगों के नाम सामने आते हैं. इतिहास के पन्ने पलटने पर भी दलित समाज को मायूसी ही लगती है. असल में एक सोची-समझी साजिश के तहत इतिहासकारों ने आजादी की लड़ाई के इतिहास से दलितों का नाम मिटा दिया. या फिर उनकी पहचान जाहिर नहीं की. शिक्षा के प्रसार के बाद अब इस समाज के लोग आजादी के अपने नायकों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर सामने लाने लगे हैं.
अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने दलितों और आदिवासियों ने जान की बाजी लगा दी अपना लहू बहाया और शहीद हो गए. इतिहास के धुंधले पन्नों और इतिहासकारों को कुरेदने के बाद हम जिन्हें ढ़ूंढ़ सके, उनके योगदान को हम इस सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं. आज से लेकर 15 अगस्त तक दलित दस्तक हर दिन आपको ऐसे नायकों की वीरगाथा सुनाएगा, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना खून बहाया.
आज की कहानी….. क्रांतिकारी तिलका मांझी, सिद्धु संथाल और गोची मांझी के बारे में…
वैसे तो देश की आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 का माना जाता है लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल 1780-84 में ही बिहार के संथाल परगना में तिलका मांझी की अगुवाई में शुरू हो गया था. तिलका मांझी को हम भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कह सकते हैं.
1857 की क्रांति से लगभग सौ साल पहले स्वाधीनता का बिगूल फूंकने वाले तिलका मांझी को इतिहास में खास तव्वजो नहीं दी गई. तिलका मांझी वो नायक थें, जिन्होंने संथाल आदिवासियों द्वारा किए गए बहुचर्चित संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया था. संथाल विद्रोह के दौरान उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर 1771 से लेकर 1784 तक 13 साल अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी.
1778 में उन्होंने पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से मुक्त करवाया. 1784 में तिलका मांझी ने राजमहल के मजिस्ट्रेट क्लीवलैंड को मार डाला. इसके बाद महाराष्ट्र, बंगाल और उड़ीसा प्रांत में दलितों और आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी. इस विद्रोह में अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष हुआ जिसमें अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी.
संथाल विद्रोह के लड़ाके सिद्धु संथाल और गोची मांझी के साहस और वीरता से अंग्रेज कांपते थे. इन दोनों का अलग से कोई विस्तृत इतिहास नहीं मिल सका है, लेकिन इन दोनों लड़ाकों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.
जहां तक तिलका मांझी की बात है तो क्लीवलैंड को मार डालने के कारण अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए. इसके बाद आयरकुट नाम के अंग्रेज अफसर के नेतृत्व में तिलका मांझी और उनके साथियों पर अंग्रेजी सेना ने जबरदस्त हमला कर दिया. कहा जाता है कि उस हमले में तिलका मांझी गिरफ्तार कर लिए गए थे. इसके बाद अंग्रेज उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर ले आएं. इसके बावजूद भी वो जीवित रहे. अंग्रेज यह देखकर हैरान थे कि मिले घसीटे जाने के बावजूद वह जिंदा कैसे हैं.
आखिरकार 13 जनवरी 1785 को भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष में लटका कर उन्हें फांसी दे दी गई. इतिहास द्वारा इस महान आदिवासी नायक की उपेक्षा का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि उनकी ऐसी कोई पेंटिंग तक उपलब्ध नहीं है, जिसे कृतज्ञ देशवासी सहेज सकें.
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।