सुप्रीम कोर्ट ने तीन, कृषि कानूनों पर विचार करने के लिए जिन चार सदस्यों की कमेटी का गठन किया था, उसके एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने अपने इस्तीफे में कहा कि “वे हमेशा पंजाब और किसानों के साथ खड़े हैं। एक किसान और संगठन का नेता होने के नाते वह किसानों की भावना जानते हैं। वह किसानों और पंजाब के प्रति वफादार हैं। किसानों के हितों से कभी कोई समझौता नहीं कर सकते। वह इसके लिए कितने भी बड़े पद या सम्मान की बलि दे सकते हैं। मान ने पत्र में लिखा कि वह कोर्ट की ओर से दी गई जिम्मेदारी नहीं निभा सकते, अतः वह खुद को इस कमेटी से अलग करते हैं।”
प्रश्न यह है कि आखिर चार सदस्यों में- भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह मान, शेतकारी संगठन (महाराष्ट्र) के अध्यक्ष अनिल घनवत, अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान दक्षिण एशिया के निदेशक प्रमोद कुमार जोशी और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी में से सिर्फ भूपेंद्र सिंह मान ने ही क्यों इस्तीफा दिया?
इस तथ्य से हम सभी वाकिफ हैं कि तीन कृषि बिलों को किसान विरोधी, जनविरोधी और देश विरोधी मानने वालों तक, इस कमेटी के गठन के बाद यह साफ संदेश गया था कि यह कमेटी तीन कानूनों पर मुहर लगाने के लिए बनाई गई है और इसके माध्यम से इन तीन कानूनों को सुप्रीमकोर्ट वैधता प्रदान करना चाहता है।
मोदी भक्त और कार्पोरट परस्त लोगों को छोड़कर अधिकांश लोगों को यह संदेश गया था कि पहले से ही तीन कृषि कानूनों के समर्थक लोगों की कमेटी बनाने का मतलब बिल्लियों को दूध की रखवाली सौंपना था।
मान के इस्तीफे का मुख्य कारण-
शायद ही कोई इस बात इस इंकार कर सके कि वर्तमान किसान आंदोलन के अग्रिम मोर्चा के अग्रिम योद्धा पंजाबी किसान, विशेषकर सिख किसान हैं। वही इस आंदोलन के वैनगार्ड (हिरावल दस्ता) हैं। भले ही घोषित तौर न कहा गया हो, लेकिन यह बात साफ थी कि भूपेंद्र सिंह मान को सिख चेहरे के तौर कमेटी में रखा गया था और इस माध्यम सिखों के बीच के किसी व्यक्ति से तीन कृषि कानूनों को जायज ठहराने की जुगत लगाई गई थी।
यहीं सुप्रीमकोर्ट और सरकार चूक भी गई। उन्हें यह नहीं पता था कि यह किसान आंदोलन पंजाब के किसानों के अस्तित्व के साथ पूरे पंजाबी समाज, विशेषकर सिख समाज के आन-बान-शान का भी प्रतीक बन गया है। इस संघर्ष (युद्ध) को वे अपने संघर्ष की ऐतिहासिक विरासत के साथ जोड़कर देख रहे हैं। वे इस आंदोलन को नानक के साथ राजा रणजीत सिंह, बलिदानी सिख गुरुओं की परंपरा, गदर आंदोलन के रणवांकुरों, कर्तार सिंह सराभा और भगतसिंह के साथ जोड़कर देख रहे हैं। वे अब तक इस आंदोलन में शहीद हुए किसानों को अपनी शहीदी परंपरा के साथ जोड़कर देख रहे हैं, जो शहादत उन्होंने अन्यायी-अत्याचारी शासकों से संघर्ष करते अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान के लिए दी थी। वे प्रधानमंत्री मोदी को भी एक अत्याचारी-अन्यायी शासक के रूप में देख रहे हैं, जो देश-दुनिया के कार्पोरेट के हितों के नुमाइंदा है।
इसके साथ यहां इस तथ्य को रेखांकित कर लेना जरूरी है कि इस आंदोलन को देश-विदेश के पूरे सिख का समुदाय तन-मन-धन से समर्थन प्राप्त हैं। वे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर भी पूरी तरह इस आंदोलन के साथ एकजुट हैं। अपने बीच के सारे बंटवारों को फिलहाल लांघकर और एकहद तक तोड़कर। ऐसे समय में यदि सिख समुदाय का कोई चेहरा इन तीन कृषि कानूनों की वकालत के लिए गठित कमेटी का सदस्य बनता और इस आंदोलन को तोड़ने की सरकार और सुप्रीमकोर्ट की कवायद का हिस्सा बनता, तो उस व्यक्ति को सिख समुदाय और किसानों के साथ गद्दारी करने वाले के रूप में देखा जाता।
सिख समुदाय में सामूहिकता और एकजुटता की जबर्दस्त भावना पाई जाती है और राष्ट्रीयता ( संस्कृति, भाषा, धर्म और ऐतिहासक विरासत आदि से बनी) की भावना भी उतनी ही प्रबल है,जिनती देशभक्ति की भावना। किसान आंदोलन ने इस सामूहिकता और एकुजटता की भावना को और ऊंचाई और गहराई दी है। ऐसे समय जो कोई व्यक्ति उनके भीतर से इस सामूहिकता और एकजुटता की भावना को तोड़ने की कोशिश करेगा। उसे सिख समुदाय कभी माफ नहीं करेगा। उसे हमेशा गद्दार के रूप में याद किया जाएगा। उसे यह समुदाय हमेशा-हमेशा के लिए किनारे लगा देगा। इसका प्रमाण मान के इस्तीफे में भी मिलता है,जिसमें उन्होंने पंजाब और किसानों के प्रति अपनी वफादारी घोषित की है।
फिलहाल सरकार और सुप्रीमकोर्ट की मिलीभगत (ऐसे आरोप लग रहे हैं) का उपकरण बनकर और गद्दारों की पंक्ति में शामिल न होकर भूपेंद्र सिंह मान ने सिख परंपरा की लाज रखी है, और इस देश के किसानों की नजर में भी गद्दार होने से बच गए हैं। फिलहाल इस कदम के लिए उन्हें सलाम!
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।