झारखंड के बेदिया जनजाति के युवा समाज के लिए पेश कर रहे हैं शानदार मिसाल

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बेदिया जनजाती के युवाओं के बीच दलित दस्तक के सुशील स्वतंत्र

कहते हैं कि जज़्बा दमदार हो तो पत्थर का सीना चीर कर भी पानी निकाला जा सकता है। झारखण्ड के हजारीबाग जिले के डाडी प्रखंड अंतर्गत स्थित आदिवासियों के एक गाँव कुरकुट्टा में रहने वाले बेदिया जनजाति के युवा इस कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। दशकों से परती पड़ी पथरीली ज़मीन को उपजाऊ बनाकर वे सफलतापूर्वक जैविक खेती कर रहे हैं। कोयलांचल के इस क्षेत्र में खनिज पदार्थों की प्रचूरता है। यहाँ धरती के गर्भ में कोयला आदि बहुतायत मात्र में भरा पड़ा है। कुरकुट्टा के आस-पास कोयले की खदानें हैं, जहाँ से टनों में कोयले की खुदाई की जाती है। एक समय था जब कुरकुट्टा के निवासी कोयला खदानों में कार्यरत थे परन्तु गाँव के समीपवर्ती खदानों से कोयले की खुदाई (माइनिंग) का कार्य बंद हो जाने के बाद बेदिया जनजाति के लोगों ने गाँव की ज़मीनों पर खेती का कार्य आरम्भ किया।

गाँव में अनेक बंद हुए पत्थर खदान हैं, जहाँ से लाइम स्टोन की कटाई करके इर्द-गिर्द स्थापित सीमेंट फैक्ट्रियों को इसकी आपूर्ति की जाती थी। धीरे–धीरे सीमेंट फैक्ट्री और कोयला खदानों के बंद हो जाने से बेकार पड़े खुले खदानों (ओपन माइंस) में जलभराव होने लगा। गाँव में रहने वाले बेदिया जनजाति के लोगों ने बेकार पड़े खदानों में बरसात के पानी को इकठ्ठा करके जलाशय का रूप दे दिया। इन्हीं जलाशयों से अब खेती-बारी में सिंचाई के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता है। लाइम स्टोन के खदानों में बरसात के एक मौसम इतना पानी जमा हो जाता है कि पूरे साल बेदिया आदिवासी अपने खेतों की सिंचाई कर लेते हैं। खदानों से पानी खींचने के लिए सोलर वाटर पंप लगाया गया है। पथरीली ज़मीन पर आदिवासी युवा किसानों द्वारा जैविक विधि से हरी-हरी सब्जियाँ उगाई जा रहीं है। आसपास की मंडियों में इन सब्जियों को बेचकर आदिवासी कृषकों को अच्छा मुनाफ़ा हो रहा है।

लगभग दो सौ परिवारों के इस गाँव में बेदिया जनजाति के लोगों की बहुलता है। युवा किसान बालदेव बेदिया और इनके गोतिया (परिवार के नजदीकी सदस्य) के लोग मिलकर नौ एकड़ पुश्तैनी ज़मीन पर जैविक खेती, मुर्गी पालन और मछली पालन करते हैं। ‘दलित दस्तक’ से बातचीत में बालदेव बेदिया बताते हैं कि पथरीली पठारी ज़मीन होने के कारण पिछली अनेक पीढ़ियों से उनकी ज़मीनों का कोई महत्त्व नहीं था परन्तु जब से बेदिया जनजातियों ने खेती करना आरम्भ कर दिया है, अब यही परती ज़मीन सोना उगल रही है।बेदिया जनजाति के युवाओं में जैविक खेती का क्रेज बढ़ रहा है वे आगे कहते हैं कि इस कंकड़ीली ज़मीन पर टमाटर, शिमला मिर्च, खीरा, भिन्डी, हरीमिर्च, लौकी और बोदी की फली की अच्छी पैदावार होती है। युवाओं ने कुछ महीनों से लाख की खेती करना भी आरम्भ किया है।

पुर्णतः जैविक खेती

कुरकुट्टा गाँव की ज़मीन में पत्थर-कंकड़ की भरमार है। यही कारण है कि लम्बे समय तक यहाँ से पत्थर की व्यावसायिक खुदाई (कमर्शियल माइनिंग) होती रही। इस गाँव से लाइम स्टोन की आपूर्ति आस-पास के इलाकों में संचालित सीमेंट फैक्ट्रियों के लिए की जाती थी। पथरीली भूमि होने के बावजूद जो बात इस गाँव के कृषि व्यवसाय को महत्वपूर्ण बनाती है, वह है यहाँ के बेदिया युवा किसानों द्वारा की जा रही पुर्णतः जैविक खेती। गाँव में कार्यरत शिक्षक कृष्णा गोप बताते हैं कि कुरकुट्टा के बेदिया जनजाति के किसान अपनी खेती में किसी भी प्रकार के रासायनिक कीटनाशक या उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। खाद के रूप में गोबर से गाँव में ही गौ-अमृत और वर्मीकम्पोस्ट का निर्माण किया जाता है और खेती में उनका ही उपयोग किया जाता है। महिला किसान रिंकी कुमारी कहतीं हैं कि पौधों को कीड़े-मकोड़ों और फफुंदियों से बचाने के लिए नीम और धतूरे के पत्तों को पीसकर गाँव में ही तैयार किया गया जैविक कीटनाशक इस्तेमाल किया जाता है।

आधुनिक कृषि पद्धतियों का इस्तेमाल

ग्रीनहाउस, ड्रिपिंग सिस्टम और सोलर एरिगेशन पम्प लगाकर आधुनिक तरीकों से कई एकड़ बंजर भूमि पर कुरकुट्टा के किसान सफलतापूर्वक अनेक प्रकार की सब्जियाँ उगा रहे हैं। बंद हो चुके पत्थर खदानों में एकत्रित जल को आधुनिक ड्रिपिंग सिस्टम की सहायता से क्यारियों तक ले जाया जाता है। कम पानी का इस्तेमाल करके आधुनिक कृषि पद्धति से अत्यधिक मात्रा में हरी और ताज़ी सब्जियों की भरपूर पैदावार की जा रही है। झारखण्ड कर्क रेखा पर बसा है और इसी वजह से सूर्य की किरणें धरती पर सीधी और तीक्ष्ण पड़ती हैं। सब्जियों को तेज़ धूप और कीट-पतंगों के हमले से बचाने के लिए युवा किसानों ने पॉलीहाउस और ग्रीनहाउस बनाया है। इन ग्रीनहाउसों में खीरा, शिमला मिर्च, भिन्डी, हरीमिर्च, लौकी और बोदी की फली की अच्छी पैदावार होती है।

अक्षय ऊर्जा का बेहतरीन उपयोग

बंद पड़े परित्यज्य पत्थर खदानों में एकत्रित बरसात के पानी को खेतों में मोटर पम्प के माध्यम से पहुँचाया जाता है। युवा किसानों की युवा सोच का ही नतीजा है कि सिंचाई हेतु उन्हें विद्धुत आपूर्ति के भरोसे नहीं रहना पड़ता है बल्कि मोटर पम्प को सौर उर्जा से संचालित किया जाता है। सिंचाई के अलावा खेतों और पोल्ट्री फार्म में रौशनी और पंखा चलाने के लिए भी सौर उर्जा का इस्तेमाल हो रहा है। इसके लिए खदानों के नजदीक ही खुली ज़मीन पर सोलर प्लेट्स लगाए गए हैं। सूर्य की रौशनी से इतनी उर्जा निर्मित कर ली जाती है कि खेती-बाड़ी, पोल्ट्री फार्मिंग और रौशनी के लिए इस्तेमाल होने वाले सभी उपकरण सौर उर्जा से संचालित हो रहे हैं।

मुर्गी पालन का काम युवाओं को खूब भा रहा है, इससे आदिवासी युवा आत्मनिर्भर होने लगे हैंबंद पड़े खदानों में मछली पालन

जिन पत्थर खदानों में अब खुदाई का काम बंद हो चुका है, बरसात का पानी एकत्रित होने के कारण ऐसे खदान छोटे-बड़े जलाशयों में तब्दील हो गये हैं। बेदिया जनजाति के युवा कृषकों ने इन पत्थर खदानों में जमा पानी में मछली पालन करना आरम्भ कर दिया है। रोहू और कतला मछलियों की अच्छी-खासी संख्या इन खदानों में पाली जा रही है। इन मछलियों को भोजन एवं व्यवसाय के लिए उपयोग में लाया जाता है।

मुर्गी पालन से मिल रही है आर्थिक मजबूती

जैविक खेती और मछली पालन के साथ-साथ किसानों द्वारा मुर्गी पालन भी किया जा रहा है। लगभग दो हजार चूजों से शुरू किये गए मुर्गी पालन के कारोबार से प्रतिमाह चालीस-पैंतालिस हजार की कमाई एक यूनिट से हो जाती है। आदिवासी युवकों के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता एवं संबल प्रदान करने का महत्वपूर्ण जरिया बन गया है मुर्गी पालन का कारोबार। मुर्गी पालन की सफलता को देखकर गाँव में कई नए यूनिट आरम्भ किये जा रहे हैं। फिलहाल मुर्गी पालन यूनिट में अण्डों का कारोबार नहीं शुरू किया गया है परन्तु सिर्फ चिकन बेचकर ही किसानों को अच्छी कमाई हो रही है। मुर्गी के मल अथवा विष्ठा को स्थानीय बोलचाल की भाषा में बीट कहा जाता है। मुर्गी पालन और जैविक खेती एक साथ करने का अतिरिक्त लाभ आदिवासी कृषकों को यह मिल रहा है कि मुर्गी की बीट का इस्तेमाल खेती में खाद के रूप में किया जाता है।

मुर्गी पालन में जनजातीय युवा खूब रुचि ले रहे हैं, इससे उन्हें आर्थिक मजबूती मिली हैएक मुर्गी से एक दिन में सामान्यतः 32 से 36 ग्राम बीट मिलता है। इसमें 40 फीसदी नमी होती है। यह जैविक फर्टिलाइजर सब्जियों के लिए अत्यधिक लाभकारी है। हॉर्टिकल्चरिस्ट राकेश कुशवाहा बताते हैं कि इस खाद में फॉस्फोरस की मात्रा अन्य खादों के मुकाबले अधिक होती है और यही फॉस्फोरस सब्जियों के आकार को बढ़ाने का काम करता है। मुर्गी की बीट से बना खाद पूरी तरह जैविक होता है और इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है। पॉल्ट्री बीट में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम एवं मैग्नेशियम पाया जाता है, जो पौधों के अत्यंत लाभदायक है। मुर्गी की बीट का अधिक उत्पादन होने पर किसान बीट की बिक्री करके भी अच्छी कमाई सकते हैं।

मिलती रही है सरकारी और गैर-सरकारी मदद

युवा किसान बालदेव बेदिया ने बताया कि ड्रिपिंग सिस्टम, सोलर प्लेट्स, ग्रीन हाउस और मोटर पम्प के लिए समय-समय पर झारखण्ड सरकार और टाटा ट्रस्ट द्वारा कुरकुट्टा गाँव के बेदिया जनजाति के कृषकों की संस्था जागृति जल उपभोक्ता समिति को आर्थिक मदद मिलती रही है। उन्नत खेती के लिए प्रशिक्षण और तकनिकी मार्गदर्शन भी सरकार के द्वारा दिया जा रहा है।

बाज़ार की चुनौती

उपज को स्थानीय बाज़ारों और सब्जी मंडियों में बेचा जा रहा है। गिद्दी, रेलीगढ़ा, नई सराय, रांची रोड़ और रामगढ़ की सब्जी मंडियों में किसान अपनी सब्जियों को बिक्री के लिए पहुँचाते हैं। जैविक खेती करने वाले किसानों को रासायनिक ज़हर मुक्त सब्जी उगाने के बाद भी सब्जी मंडी में कोई विशेष कीमत नहीं मिल पाती है। रासायनिक खाद डालने से सब्जियों की पैदावार अधिक होती है और सब्जी बाज़ार में बेचने लायक बहुत कम समय में तैयार हो जाती है। इसके विपरीत जैविक विधि से सब्जी उगाने वाले किसानों की पैदावार कम होती है और सब्जियाँ देर से तैयार होतीं हैं। जैविक खेती से उगायी गई सब्जियाँ स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित होती हैं परन्तु सब्जी मंडियों में जैविक सब्जियों के लिए कोई अलग मूल्य नहीं मिल पाता है। जैविक खेती करने वाले किसानों को रासायनिक खाद और कीटनाशक डालने वाले किसानों की सब्जियों के दर पर ही अपना माल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अगर सरकार और समाज द्वारा कोई ऐसी पहल हो जिससे जैविक विधि से उगाई गई रासायनिक ज़हर से मुक्त, सेहत के सुरक्षित और फायदेमंद सब्जियों को थोड़ा उंचा दाम मिल सके तो जैविक खेती को और बढ़ावा मिलेगा।

बेदिया जनजाती के युवा जैविक खेती पर ध्यान दे रहे हैं, जिसकी बाजार में भारी मांग है

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अनुसार और 2000 के अधिनियम 30 द्वारा सम्मिलित झारखंड की प्रमुख जनजातियों में एक है बेदिया जनजाति। कुरकुट्टा गाँव झारखण्ड के उसी इलाके में बसा है, जहाँ बेदिया जनजाति का मूल स्थान बताया जाता है, हालाँकि ये अभी तक अप्रमाणिक तथ्य है। ऐसा माना जाता है कि महूदीगढ़ नामक स्थान में बेदिया जनजाति के लोग आदिम युग से रहते चले आए थे। फिर किसी कारणवश बेदिया जनजाति के लोगों में पलायन शुरू हुआ और इस जनजाति के लोग झारखंड के विभिन्न भागों और बंगाल में फैल गए। पलायन करके पश्चिम बंगाल जाने वाले बेदिया लोग साँप पकड़ने, तमाशा दिखाने और जड़ी-बूटी बेचने का काम करते हैं। जिस महूदीगढ़ को बेदिया जनजाति का मूल स्थान बताया जाता है, वह हजारीबाग जिले के बड़कागाँव के पास ही स्थित है। महूदीगढ़ के पास महूदी पहाड़ है, जिस पर चट्टान को काट-काट कर बनाई गई गुफाएँ और पुरातन काल के मंदिर आज भी हैं। कुरकुट्टा गाँव के किनारे जो पहाड़ी है उसे राँझी और दुसरे को टुट्की नाम से पुकारते हैं। ये पहाड़ियाँ उसी महूदी पहाड़ की श्रृंखला का हिस्सा हैं, जहाँ से पलायन करके बेदिया जनजाति झारखण्ड के अलग-अलग हिस्सों में गए थे।

जब तक कोयला के खदान सुचारू ढंग से संचालित होते थे, कुरकुट्टा गाँव निवासी बेदिया जनजाति के लोग बड़ी संख्या में कोयलाकर्मी के तौर पर कार्य करते रहे। कोयला खदानों और सीमेंट फैक्ट्रियों के बंद होने के बाद बेदिया जनजाति ने अपनी बंजर ज़मीनों को हरा-भरा बनाने का हुनर सीख लिया है और अब कृषि ही उनका मुख्य पेशा है। अन्य सभी आदिवासियों की भाँति ही बेदिया जनजाति के लोग भी स्वभावतः प्रकृति प्रेमी होते हैं। इसीलिए जब वे कृषि को अपने पेशे के तौर पर अपनाते हैं तो पर्यावरण, मवेशी और धरती की फिक्र भी उसमें शामिल होती है। कुरकुट्टा गाँव में जनजातीय युवाओं द्वारा सफलतापूर्वक की जा रहा एकीकृत कृषि एक नायाब उदाहरण है, जिसमें कृषि के विभिन्न घटकों जैसे फसल व साग-सब्जियों का उत्पादन, मवेशी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, अक्षय उर्जा का इस्तेमाल, कृषि उत्पादों को बाज़ार से जोड़ना आदि गतिविधियों को इस प्रकार समेकित किया गया है कि वे एक-दूसरे के पूरक बन गए हैं। भूख के खिलाफ अस्तित्व की जंग पर जीत हासिल कर स्वावलंबन की ओर बढ़ते हुए कुरकुट्टा गाँव के बेदिया जनजाति के युवा किसानों की कहानी प्रेरणा देती है।


लेखक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। इनकी दिलचस्पी खासकर ग्राउंड रिपोर्ट और वंचित-शोषित समाज से जुड़े मुद्दों में है। दलित दस्तक की शुरुआत से ही इससे जुड़े हैं।

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