15 जनवरी 1978, समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ में एक तस्वीर छपी थी। तस्वीर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के पिता गोकुल ठाकुर की थी। वह किसी की हजामत बना रहे थे। उनका अपने मुख्यमंत्री बेटे के बारे में कहना था कि मेरे लिए वह बेरोजगार है। पैसा नहीं भेजता। और मुझे अपना पुराना रोजगार करने में कोई संकोच नहीं है।
जो व्यक्ति दो बार बिहार का मुख्यमंत्री रहा हो, उसके पिता के बारे में क्या आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं। शायद नहीं, लेकिन यह सच था। दरअसल कर्पूरी ठाकुर परिवार के नहीं, बल्कि समाज के नेता थे। वंचितों और शोषितों के नेता थे। मुख्यमंत्री रहते रिक्शा पर चढ़कर चल देने वाले नेता थे। इसीलिए वो जननायक थे।
24 फऱवरी को कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती मनाई जा रही है। और भारत सरकार द्वारा कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा ने इस मौके को और खास बना दिया है। हालांकि भारत रत्न की मर्यादा पिछले दिनों में गिरी है, लेकिन मोदी सरकार की इस घोषणा के बाद वंचित समाज में खुशी है। वह भारत के इस सर्वोच्च सम्मान को निश्चित तौर पर काफी पहले डिजर्व करते थे। लेकिन जब देश लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, और पीएम मोदी 4 फरवरी को बिहार से चुनावी मुहिम शुरू करने वाले है, ऐसे में इस सम्मान के राजनीतिक मायने भी तलाशे जाने लगे हैं।
लेकिन पहले बात जननायक कर्पूरी ठाकुर की। वह बिहार में आरक्षण के जनक रहे हैं। 1977 में दूसरी बार बिहार का सीएम बनने के बाद उन्होंने ओबीसी को सरकारी नौकरी में 26 फीसदी का आरक्षण दिया। जिसके बाद बिहार की सामंती जातियों ने उन्हें सार्वजनिक तौर पर गालियां दी और उनके खिलाफ निम्न स्तर के जातीय नारे गढ़े गए। संभवतः वह भारत के किसी प्रदेश के इकलौते मुख्यमंत्री रहे, जिन्हें पद पर रहते हुए जातीय गालियां दी गई।
हालांकि कर्पूरी डिगे नहीं। उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया, जिसके बाद 90 के दशक में पिछड़ों को देश भर में 27 फीसदी आरक्षण मिला। इससे पहले शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया ताकि वंचित समाज के बच्चे मैट्रिक की परीक्षा को पास कर सकें।
एक बार का दिलचस्प वाकया है कि जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे, तब केंद्र और बिहार दोनों जगह जनता पार्टी की सरकार थी। तमाम नेता जनता पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन के मौके पर इकट्ठा हुए। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी आए। तब लोगों ने देखा कि उनका कुर्ता फटा है। चंद्रशेखर अपने अंदाज में दूसरे नेताओं से पैसे इकट्ठा करने लगे ताकि कर्पूरी बाबू नया कुर्ता खरीद सके। लेकिन कर्पूरी भी आखिर जननायक कर्पूरी थे, उन्होंने वह पैसा तो स्वीकार कर लिया लेकिन उसका कुर्ता खरीदने की बजाय उसे मुख्यमंत्री राहत कोष में दान कर दिया। इससे झूठी शान गढ़ने वालों को जोरदार तमाचा लगा। हालांकि भारत में सरकार के हर कदम को राजनीति के रूप में देखने की परंपरा रही है। ऐसे में बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर को 2024 लोकसभा चुनाव के पहले भारत रत्न देने की घोषणा के मायने तलाशे जा रहे हैं। इसलिए भी क्योंकि हाल ही में बिहार ने जातीय जनगणना कर वंचित जातियों की सत्ता में भागेदारी के सवाल को बड़ा बना दिया है। समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर बिहार के नाई जाति से ताल्लुक रखते हैं। बिहार में नाई जाति अति पिछड़ी जाति में आती है। बिहार में ओबीसी 63 प्रतिशत हैं। इसमें अति पिछड़ी जातियां 36 फीसदी हैं। साफ है कि बिहार जो कि अब तक भाजपा के लिए इकलौता अजेय हिन्दीभाषी प्रदेश बना हुआ है, उसने भाजपा और संघ की नींद हराम कर रखी है।
यह फैसला तब हुआ है जब पीएम मोदी 4 फरवरी को बिहार से चुनावी अभियान शुरु करने वाले हैं। और देश के तमाम अखबारों में संपादकीय पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को याद करते हुए उनके कसीदे पढ़े हैं। खुद को पिछड़े वर्ग का व्यक्ति बताते हुए देश के तकरीबन 52 फीसदी पिछड़ों से फिर से खुद को जोड़ने की कोशिश की है।
जननायक कर्पूरी ठाकुर निश्चित तौर पर काफी पहले भारत रत्न सम्मान डिजर्व करते थे। हालांकि उन्हें अब यह सम्मान मिल चुका है, लेकिन इसे देने की टाइमिंग को देखते हुए इसके पीछे राजनीतिक लाभ लेने की मंशा को झुठलाया नहीं जा सकता
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।