पुणे। हर साल की पहली तारीख दलितों के लिए नए साल के साथ एक और जश्न मनाने का होता है. इस दिन दलित समाज के लोग साल 1818 में पेशवाओं पर अछूतों के जीत का जश्न भी मनाते हैं. इस साल इस विजयगाथा के दो सौ साल पूरे हो रहे हैं. दलित समाज के लोग अपने जश्न की तैयारी कर रहे हैं तो वहीं ब्राह्मण समाज को दलितों का यह जश्न खटकने लगा है.
अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ ने पुणे पुलिस से मांग की है कि दलितों को पेशवाओं की ड्योढ़ी ‘शनिवार वाडा’ में प्रदर्शन करने की अनुमति न दी जाए. ब्राह्मण महासंघ के आनंद दवे का कहना है कि “ऐसे उत्सवों से जातीय भेद बढ़ेगा.” हालांकि पुलिस ने फिलहाल इसे रोकने की कोई बात नहीं कही है, लेकिन ब्राह्मण महासभा की इस मांग से उनकी कुलबुलाहट का साफ पता चल रहा है.
इसी बीच कई इतिहासकार महारों और पेशवा फ़ौजों के बीच हुए इस युद्ध को विदेशी अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं. उनका तर्क होता है कि अछूत पेशवा के खिलाफ लड़े थे, इसलिए आजाद भारत में इस तरह का जश्न ठीक नहीं है. तथ्यात्मक रूप से वो ग़लत नहीं हैं. पर सवाल यह है कि आखिर महार अँग्रेज़ों के साथ मिलकर ब्राह्मण पेशवाओं के ख़िलाफ़ क्यों लड़े?
असल में भीमा कोरेगांव की लड़ाई महारों के लिए अँग्रेज़ों के लिए लड़ी लड़ाई नहीं थी, बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी. ये उनके लिए चितपावन ब्राह्मण व्यवस्था से प्रतिशोध लेने का एक मौक़ा था क्योंकि उस दौर में पेशवा शासकों ने महारों को जानवरों से भी निचले दर्जे में रखा था. उन्हें गले में हांडी और कमर पर झाड़ू बांध कर रखना पड़ता था, ताकि जमीन से उनके पैरों के निशान साफ होते रहें और उनके द्वारा थूके जाने और उस पर पैर लगने से कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए.
असल में ऐसी अमानवीय व्यवस्था में रहने वाले महार दलित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज में शामिल होकर लड़े तो वो पेशवा के सैनिकों के साथ साथ चितपावन ब्राह्मण शासकों की क्रूर व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिशोध भी ले रहे थे.