
21 मई, 2017 दलित आंदोलनों के इतिहास में एक खास दिन के रूप में चिन्हित हो गया. इस दिन एक गुमनाम युवा, भीम आर्मी के संस्थापक अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ के आह्वान पर दिल्ली के ऐतिहासिक जंतर मंतर पर नयी सदी में दलित शक्ति का जबरदस्त प्रदर्शन हुआ. सुबह से ही लोग लाठियों में नीला झंडा लगाये संसद भवन के निकट जंतर मंतर पर इक्कट्ठा होने लगे. यह अफवाह फैलाये जाने के बावजूद, कि प्रदर्शन कि अनुमति नहीं मिली है, देखते ही देखते जंतर मंतर नीले झंडों से पट गया. जंतर मंतर के इस छोर से उस छोर तक सिर ही सिर. अधिकांश के सिर पर ‘भीम आर्मी’ की नीली टोपी थी. लाख से अधिक संख्या में पहुंचे लोगों में 80 प्रतिशत के करीब युवा थे जिनमें महिलाओं की संख्या लगभग बराबर थी. इस भीड़ में उस दिन दिल्ली के अधिकांश दलित एक्टिविस्ट, लेखक, प्रोफ़ेसर घर छोड़कर जंतर मंतर आ पहुंचे थे. दलितों के अतिरिक्त प्रगतिशील विचारधारा के गैर-दलित छात्र-एक्टिविस्ट भी अच्छी खासी मात्रा में उपस्थित थे.
दलित शक्ति के इस अभूतपूर्व प्रदर्शन को कवर करने के लिए अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, जापान व अन्य कई देशों की मीडिया लाइव करने के उपकरणों के साथ उपस्थित थी, किन्तु भारतीय चैनल नदारद रहे. इनकी कमी को पूरा कर दिया सोशल मीडिया को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे दलित बहुजनों ने. इनके सौजन्य से दोपहर होते-होते पूरा फेसबुक और ट्विटर नीला हो गया. लाखों तस्वीरों और विडियो से इंटरनेट भर गया. काबिले गौर है कि जंतर मंतर पर जब दलित आन्दोलन का एक नया अध्याय रचित हो रहा था, उसी समय चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी से प्रेरित होकर बिहार की राजधानी पटना के आंबेडकर शोध संस्थान में एक और ‘आजाद’, अमर आजाद के नेतृत्व में ‘द ग्रेट भीम आर्मी’ का गठन हो रहा था, जो हुआ भी. गठन के बाद अमर आजाद ने घोषणा किया कि ‘नीला गमछा आर्मी की पहचान होगी तथा आंबेडकर, फुले और पेरियार के विचारों पर यह काम करेगी एवं दशरथ मांझी हमारे आदर्श होंगे. जल्द ही आर्मी के सदस्य दलित विधायक और मंत्रियों से मिलकर यह पूछेंगे कि आपने दलितों के लिए क्या किया?’. यूपी की भीम आर्मी से प्रेरित बिहार की भीम आर्मी का गठन संकेत करता है कि भविष्य में देश के विभिन्न अंचलों में ऐसी सेना का वजूद में आना लगभग तय है. बहरहाल मुख्यधारा की मीडिया में भीम आर्मी के इस ऐतिहासिक आयोजन पर भले ही विस्त्तार से जानने सुनने का मौका नहीं मिला, किन्तु सोशल मीडिया पर आई देश के चर्चित बहुजन एक्टिविस्टों और लेखकों की टिप्पणियां चौकाने वाली रहीं.
पटना के मशहूर दलित चिन्तक और कई कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारी हरिकेश्वर राम ने फेसबुक पर लिखा- ‘बिना विशेष तैयारी, बिना किसी राजनीतिक दल के समर्थन, बिना कोई साधन की व्यवस्था किये अम्बेडकरी साथियों की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि अम्बेडकरवादी अब ब्राह्मणवादी और अधकचरा व्यवस्था को सहने को तैयार नहीं हैं’. न्यूज पोर्टल चला रहे पत्रकार शोबरन कबीर यादव ने लिखा, ’दलितों में निराशा है, लेकिन आशा की किरण भी है. हर रात के बाद सवेरा होता है और भीम आर्मी उसी रात का सबेरा नजर आती है’. डीयू में शिक्षकों के अधिकारों की लड़ाई को नेतृत्व दे रहे प्रो. हंसराज सुमन ने लिखा- ‘भीम के सिपाही अब नहीं सहेंगे अत्याचार’. ‘आज दलित शक्ति का प्रदर्शन स्थल रहा जंतर मंतर. जय भीम से गूंजती रही दिल्ली. शीघ्र ही पूरा देश भी गूंजेगा’- ऐसा लिखा था नैक्डोर जैसे चर्चित सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती ने. युवा ओबीसी पत्रकार प्रतीक राव की टिप्पणी थी- ‘यह यज्ञ हो रहा है, दलितों के दिलों से खौफ ख़त्म करने का यज्ञ. बहुजनों से यही अपील है कि इस यज्ञ में अपने समस्त दुःख-दर्द और बेबसी जाकर रख कर दें’.
बहरहाल भीम आर्मी को आम से लेकर लेखक, एक्टिविस्ट जैसे खास दलित बहुजनों का जो व्यापक समर्थन मिला, यह बहुजन नेतृत्व की विफलता का प्रमाण है, इसका भी स्पष्ट संकेत सोशल मीडिया पर देखने को मिला. इस बात पर मोहर लगते हुए बिहार भीम आर्मी के अध्यक्ष अमर आजाद ने लिखा –‘दलित आन्दोलन की स्थापित धाराओं कि विफलता है भीम आर्मी के उदय का कारण’. कुछ ऐसा ही लिखा था मशहूर पत्रकार अखिलेश अखिल ने. ’जंतर मंतर पर उमड़ी भीड़ बहुत कुछ कह जाती है. दलित राजनीति का यह उफान उन राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी हो सकती है, जो अबतक दलित राजनीति के नाम पर कम्बल ओढ़कर घी पी रहे थे.’ इस बात को और स्पष्ट करते हुए ‘दलित कैसे बनें लखपति-करोडपति!’ सहित आधें दर्जन किताबों के लेखक बृजपाल भारती ने लिखा. ’पिछले चुनावों में आंबेडकरवादी पार्टियों की हार तथा नेताओं के विचलन ने दलित बहुजन समाज में काफी निराशा का माहौल था. 21 मई को जंतर मंतर पर भीम आर्मी के आह्वान पर दलित अत्याचारों के खिलाफ एकजुट हुए लगभग दो लाख युवा भीम सैनिकों ने उस निराशा को दूर कर दिया है. यह विरोध प्रदर्शन अत्याचारों के खिलाफ वर्तमान राजनीतिक सत्ताओं को चेतावनी है, जिसमें बेचारगी की सिस्कार के बजाय फुले, अम्बेडकर के विचारों की ताकत और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विश्वास से उपजी ताकत है. उपस्थित जनसमूह में 80 प्रतिशत युवाओं कि उपस्थिति से लगता है कि अम्बेडकरी आन्दोलन अब युवास्था में प्रवेश कर गया है.’
निश्चय ही हाल के वर्षों में दलित नेतृत्व ने सिर्फ निराश और निराश किया है. हरियाणा के भगाणा से लेकर गुजरात के उना सहित देश के विभिन्न अंचलों में जो दलित उत्पीडन कि असंख्य घटनाएँ हुईं,उन पर दलित नेताओं की ख़ामोशी चौकाने वाली रही. ख़ामोशी सिर्फ दलित उत्पीडन की घटनाओं पर ही नहीं, भयावह आर्थिक विषमता की पुष्टि करती रिपोर्टों पर भी दिखी. यही नहीं निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण के जरिये शासक दलों द्वारा आरक्षण के खात्मे की जो साजिश हुई, उसकी काट के लिए दलित बुद्धिजीवियों ने सरकारी क्षेत्र की नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, फिल्म-मीडिया इत्यादि समस्त क्षेत्रों में संख्यानुपात में भागीदारी का जो अभियान चलाया, उसकी पूरी तरह अनदेखी करते हुए दलित नेतृत्व सवर्णपरस्ती में मशगूल रहा. इन सब कारणों से स्थापित दलित नेतृत्व से दलितों का ऐसा मोहभंग हुआ कि 21 मई को युवा एक्टिविस्ट सोनू सिंह पासी को फेसबुक पर घोषणा करने में कोई झिझक नहीं हुई- ‘चंद्रशेखर आजाद रावण ने आज मायावती को ओवरटेक कर लिया है.‘
बहरहाल भीम आर्मी का उदय दलित आंदोलनों की कोई नयी परिघटना नहीं है. इस विषय में ‘दलित पैंथर आन्दोलन ‘पुस्तक के लेखक अजय कुमार की राय काफी महत्वपूर्ण है. उन्होंने इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है- ‘भारतवर्ष में शताब्दियों से उच्च जातियां दलितों के मानवाधिकारों का हनन करती आई हैं, जिसके परिणामस्वरूप दलितों को अत्याचारों से प्रभावित होकर समय-समय पर आन्दोलन छेड़ने की आवश्यकता पड़ती रही है और सक्रिय दलित हमेशा बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा से प्रेरित होकर उच्च-नीच का भेदभाव मिटाने एवं यथास्थिति को बदलने के लिए आन्दोलन करते रहे हैं. ऐसा ही एक आन्दोलन था ‘दलित पैंथर आन्दोलन’. इस आन्दोलन का क्रियाशील युग 1972-1979 तक था जिसमें महाराष्ट्र के दलित युवाओं और सक्रिय साहित्यकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया एवं दलितों को डॉ. अम्बेडकर की ही भांति उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया एवं एक समतावादी समाज की स्थापना करने की भरसक कोशिश किया.’
जहां तक ‘भीम-सेना’ के नामकरण का सवाल है यह भी कोई नया नहीं है. पहली बार भीम सेना नामक संगठन 50 वर्ष पूर्व कर्णाटक में वजूद में आया, जिसके संस्थापक रहे श्याम सुन्दर. महाराष्ट्र में जन्मे श्याम सुन्दर यूं तो आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में रहते थे, पर उनकी ज्यादातर सक्रियता कर्णाटक में रही. उसी श्याम सुन्दर ने बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की 77 वीं वर्षगांठ पर 29 अप्रैल 1968 को कर्णाटक के गुलबर्गा शहर से ‘भीम सेना आन्दोलन’ की शुरुआत की. भीम सेना का आन्दोलन दक्षिण में प्रभावी हुआ ही, यह उत्तर भारत के यूपी, हरियाणा और पंजाब में भी फैला. बाद में जब 9 जुलाई, 1972 को ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए ‘दलित पैंथर’ नामक ऐतिहासिक संगठन वजूद में आया, उसने अमेरिका के ब्लैक पैंथर के साथ कर्णाटक की भीम सेना से भी प्रेरणा लिया. क्या लगभग पांच दशक बाद वजूद में आई ‘भीम आर्मी’ कर्णाटक भीम सेना की भांति अपनी छाप छोड़ेगी?

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