Written By- डॉ. नरेश कुमार ‘सागर’
भारतीय इतिहास और इतिहासकारों ने बेशक अपनी मानसिक विकृति के चलते भले ही अछूतों को सही स्थान नहीं दिया हो, मगर ये सच है कि जब भी इस मूलनिवासी समाज को मौका मिला उन्होंने अपने जौहर खुलकर दिखाये हैं। देशभक्ति हो या साहित्य कला हर क्षेत्र में इनका अपना एक अलग ही अंदाज रहा है। फिर चाहे- संत रैदास हो, वाल्मीकि हो, वेदव्यास हो, ज्योतिबा फूले हो या फिर बिरसा मुण्डा, गोविंद गुरू, हरिसिंह भंगी, चेतराम जाटव व बल्लू मेहतर और उधम सिंह, इनको भूलाया नही जा सकता है। हमारे महापुरूषों ने एक साथ दो-दो लड़ाईयां लडीं थी। एक ब्राह्मणवाद से अपने अपमान की और दूसरी तरफ अंग्रेजों से देश की आजादी की। बहुजन समाज दोनों गुलामी के पाटों के बीच लगातार पीस ही तो रहा था। बल्कि सच तो ये भी है कि बहुजन समाज आज भी अपनी आजादी की, सम्मान की और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ता दिखाई देता है।
भीमा कोरागांव की घटना भी उन्हीं एक घटनाओं में से एक है जो आश्चर्य चकित तो करती है ही साथ में बहुजन समाज की हिम्मत और हौसले की बुलंद कहानी कहती नजर आती है। पेशवाओं से परेशान बहुजन समाज के लोग निरन्तर प्रताड़ित किये जा रहे थे। पेशवाओं ने अछुतों के गले में थूकने के लिए जहां हंडिया तक बंधवा दी थी वही इन मानसिक विकृत लोगों ने अछूतों के पीछे झाड़ू तक बंधवा दी थी ताकि उनके पैरों के निशान जमीन पर ना रहे और ब्राहम्णो के पैर और धर्म नष्ट ना हो। ऐसी मानसिकता केवल भारत में ही देखने को मिलती है।
इस अपमान को सहने वाले मूलनिवास समाज को जब साल 1818 में एक जनवरी को पेशवाओं से अपने अपमान का बदला लेने का मौका मिला तो उन्होंने ऐसी लड़ाई लड़ी, जो इतिहास में दर्ज हो गई। महाराष्ट्र के कोरेगांव भीमा नदी के तट पर पुणे के पास 1 जनवरी 1818 की हाड़ कंपाती ठण्ड में 500 महार सैनिकों ने 28000 हजार की पेशवाओं की सेना को अपने पराक्रम से रौंद डाला। पेशवाओं की सेना में 2000 घुडसवार थे वही दूसरी तरफ महार रेजिमेन्ट की सेना में कुल 500 सौ सैनिक ही थे, जिसमें सिर्फ 250 घुड़सवार थे। इस छोटी सी सेना ने 12 घंटो की वीरतापूर्वक लडाई में हजारों की पेशवाओं की सेना को हराया ही नहीं बल्कि पेशवाओं की पेशवाई का भी अंत कर दिया था। इस लड़ाई का जिक्र ना तो इतिहास करता है और ना इतिहासकार। क्योंकि इस महायुद्ध में हमारे मूलनिवासी योद्धाओं की जीत हुई थी।
इस ऐतिहासिक घटना का जिक्र भारत के वीरपुत्र व बहुजनों के मसीहा बोधिसत्व भारत रत्न बाबासाहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अपनी एक पुस्तक ‘‘राइटिंग्स एंड स्पीचेस’’ जो अंग्रेजी में लिखी गयी है के खण्ड 12 में ‘‘द अनटचेबल्स एण्ड द पेक्स ब्रिटेनिका” में इस तथ्य का वर्णन किया, तब जाकर समाज के सामने यह ऐतिहासिक सच्चाई आ पाई। आज भीमा कोरेगांव में इन महान योद्धाओं के नाम का एक स्तम्भ खड़ा है जो मूलनिवास महारों की वीरता की गवाही देता है। इस स्तम्भ पर सभी शहीदों के नाम खुदे हुए हैं जिससे समाज अपने वीर योद्धाओं की जानकारी रख सके। इस लड़ाई में मारे गये सैनिकों को 1851 में मेडल देकर अंग्रेजी सरकार ने सम्मानित भी किया था।
इस युद्ध के समाप्त होते ही पेशवाओं की पेशवाई का भी अंत हो गया था और अंग्रेजों को भारत में सत्ता मिल गयी। इसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस देश में शिक्षण का प्रचार भी किया जिससे हजारों सालों से बहुजन समाज वंचित था उनके लिए भी ये रास्ते खुले। ऐसा भी नहीं है कि हमेशा महारो ने अंग्रेजों की लडाई लड़ी बल्कि यही अछूत थे जिन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ भी युद्ध लड़ा। जिनमें हमारे समाज की स्त्रियों ने भी बराबर कदम बढाये थे। फिर चाहे उस लड़ाई को लड़ने वाले बिरसा मुण्डा हों, चेतराम चमार हों, हरिसिंह भंगी हों, बल्लू मेहतर हों, तेलंगा खडिया हों, तिलका मांझी हों या फिर रानी शवेश्वरी हों, झानू, फूलो, चाम्पी, साली, कैली दाई हों या फिर झलकारी बाई का पराक्रम हो। अछूतों का इतिहास वीरता के जौहरों से भरा पड़ा है, जिसके साथ आज तक न्याय नहीं हुआ है।
ऐसा लगता है कि बहुजन समाज को अपना अस्तित्व पाने के लिए अभी कोरेगांव जैसी एक और लड़ाई लड़नी होगी। नहीं तो ये वही इतिहासकार हैं जो अंग्रेजी सेना के सिपाही मंगल पाण्डे को तो देश भक्त बना देते हैं और मतादीन भंगी को नजर अंदाज कर देते हैं। हमारा समाज भी आज नए साल के मुबारकवाद के बीच अपने इतिहास को भूल जाता है, कोरेगांव के अपने शहीदों को भूल जाता है जालिम पेशवाओं की अंतिम यात्रा को भूल जाता है, जिसका खामियाजा हम उठाते रहते है। जबकि नए साल की बधाईयों के साथ कोरेगांव युद्ध की इस विजय गाथा को भी जरूर याद करना चाहिए। हमें नमन करना चाहिए कोरेगांव के उन सूरवीरों को जिन्होंने ओछी मानसिकता वाली पीढ़ी का अंत कर एक गौरवान्वित इतिहास रच दिया था।
लेखक यूपी के हापुड़ जिले निवासी हैं। डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप से सम्मानित हो चुके हैं। संपर्क- 9897907490

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