बीएचयू प्रकरण में न्यायिक जांच के आदेश से एक अध्याय समाप्त हो चुका है, कुछ बातें कही जानी चाहिए जो अब तक नहीं कही गई हैं. सबसे पहली बात उन लड़कियों के बारे में, जो वाकई अपनी सुरक्षा से खौफ़ज़दा थीं और धरने पर बिना किसी सियासी संगठन के उकसावे के बैठी थीं. अगर हम पूर्वांचल के समाज को थोड़ा भीतर तक समझते हों, तो हमें सबसे पहले इनकी चिंता होनी चाहिए. मुझे शक़ है कि छुट्टियों पर घर जाने के बाद ये अपनी पढ़ाई पहले की तरह जारी रख पाएंगी. अखबारों और चैनलों पर इनका चेहरा आने के बाद माता-पिता और परिवार का जो दबाव इन्हें झेलना होगा, उसकी कल्पना हम-आप सहज नहीं कर सकते. इस लिहाज से देखें तो एक शांतिपूर्ण धरने को अचानक इतनी हाइप मिलना और इसका राजनीतिकरण कई लड़कियों के लिए अभिशाप बनकर उभरेगा.
दूसरी बात, चूंकि विश्वविद्यालय में नियुक्तियों को लेकर बीते दो साल से ठाकुर बनाम ब्राह्मण की लड़ाई चल रही थी और इसे तानने का एक बहाना खोजा जा रहा था, सो जिन लोगों ने भी छात्रा सुरक्षा की घटना का इस्तेमाल अपने बिरादरी के हित में करने की कोशिश की है उन्होंने प्रकारांतर से परिसर का नुकसान किया है. इसमें उन छात्र-छात्राओं का भी पर्याप्त हाथ है जो लगातार सुरक्षा के नाम पर हुए धरने को अराजनीतिक बता रहे थे, लेकिन मूल में वे सब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े हुए थे. एबीवीपी की छात्रा की अगुवाई में शुरू किया धरना आखिर अराजनीतिक कैसे हो सकता है, यह बात भी सोची जानी चाहिए.
तीसरी बात उन संगठनों और लोगों की जो बीएचयू के मामले को बनारस से आगे ले गए हैं. इनमें ज्यादातर नागरिक समाज के संगठन, वामपंथी छात्र संगठन और दिल्ली के पेशेवर आंदोलनकारी लोग हैं. इन लोगों को किसी भी संघर्ष में हाथ डालने से पहले आंदोलनों की स्थानीय प्रकृति और अंतर्विरोधों को समझना चाहिए. किसी आंदोलन का व्यापक हो जाना अच्छी बात हो सकती है, लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आंदोलनकारी ताकतें अनजाने में किसी दूसरे के पाले में न खेलने लग जाएं. मुझे लगता है कि दो दिन जबान बंद रखने के बाद अचानक चैनलों पर नमूदार हुए कुलपति ने एक झटके में आंदोलनकारी लोगों, संगठनों और मीडिया को अपने एजेंडे का हिस्सा बना लिया है. अगर कुलपति जाते भी हैं, तो यह आरएसएस के भीतर ठाकुर लॉबी की जीत होगी. ऐसे में वाम संगठनों की भूमिका बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने से ज्यादा की नहीं रह जाएगी.
बीएचयू एक विशाल ब्लैक होल है. यहां उठा आंदोलन उस ब्लैक होल से निकला था और एक झटके में उसी में समा गया. बीच के वक्फ़े में उसे हाइजैक करने की बहुत सारी कोशिशें हुई हैं. इससे किसी का वास्तव में भला नहीं हुआ है. हां, नुकसान बेशक होगा. उन्हीं लड़कियों का, जिन्होंने ईमानदारी से अपनी आवाज़ उठायी थी. दिल्लीवाले इस बात को कभी नहीं समझेंगे क्योंकि उन्हें हर नए नारे में सत्ता परिवर्तन का अक्स ही दिखता है. बनारस को अगर दिल्ली के आधुनिक मूल्य समझने की ज़रूरत है, तो दिल्ली के लोगों को भी बनारस के पारंपरिक समाज को समझना होगा. बनारस जैसा ठहरा हुआ समाज धीरे-धीरे बदलता है. इसे धीरे-धीरे अपनी गति से ही बदलने दें, तो बेहतर.
– यह लेख अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा है. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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