बिरसा मुंडा भारत के उस महान सपूत का नाम है, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल तब फूंक दिया था, जब उनकी उम्र 25 साल भी नहीं थी। इसके बावजूद बिरसा मुंडा को लेकर अंग्रजों का खौफ ऐसा था कि उन्होंने उन पर पांच सौ रुपये का इनाम घोषित कर रखा था, जो कि उस वक्त बहुत बड़ी रकम थी। उनके कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब बिहार से अलग होकर सन् 2000 में झारखंड बनना था तो बिरसा मुंडा की जयंती की तारीख़ पर ही झारखंड राज्य की स्थापना की गई।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था। बिरसा मुंडा का जन्म स्थान खूंटी जिले के उलिहातु गांव में हुआ था। हालांकि तब यह रांची जिले में था। अँग्रेज़ों को कड़ी चुनौती देने वाले बिरसा सामान्य कद-काठी के व्यक्ति थे। उनका क़द केवल 5 फ़ीट 4 इंच था। बिरसा मुंडा की आरंभिक पढ़ाई सालगा में जयपाल नाग की देखरेख में हुई थी। उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में दाख़िला लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया था। कहा जाता है कि उनके एक ईसाई अध्यापक ने एक बार कक्षा में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया। उसके बाद उन्हें कक्षा में वापस नहीं लिया गया और स्कूल से भी निकाल दिया गया।
बाद में उन्होंने ईसाई धर्म का परित्याग कर दिया और अपना नया धर्म ‘बिरसैत’ शुरू किया। जल्दी ही मुंडा और उराँव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे। अंग्रेजों द्वारा भोले-भाले आदिवासी समाज के धर्मांतरण करने के खिलाफ बिरसा मुंडा खड़े हो गए। बिरसा मुंडा ने अपने संघर्ष की शुरुआत चाईबासा से की। यहाँ उन्होंने 1886 से 1890 तक अपने जीवन के चार वर्ष बिताए। वहीं से उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आदिवासी आंदोलन की शुरुआत करते हुए नारा दिया-
“अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना” (यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज ख़त्म हो गया है।)
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ते हुए बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को आदेश दिया कि वो सरकार को कोई टैक्स न दें। वजह यह रही कि 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों की भूमि नीति ने परंपरागत आदिवासी भूमि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। साहूकारों ने उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था और आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था। इसके खिलाफ मुंडा समाज ने एक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ का नाम दिया। उस दौरान बिरसा मुंडा अलग राज्य की स्थापना के लिए जोशीले भाषण दिया करते थे। बिरसा अपने भाषण में अपने लोगों को ललकारते हुए कहते थे- “डरो मत। मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है। सरकार का राज समाप्त हो चुका है। उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी। जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो।”
अपने लोगो को संगठित कर उन्होंने पुलिस स्टेशनों और ज़मींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह मुंडा राज का प्रतीक सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा। बिरसा मुंडा और उनके साथियों के इस आंदोलन से अंग्रेज घबराने लगे। उन्हें लगने लगा कि अगर जल्दी ही बिरसा मुंडा के आंदोलन को कुचला नहीं गया तो देश भर में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ विद्रोह शुरू हो जाएगा। अंग्रेज अधिकारियों ने किसी भी कीमत पर बिरसा मुंडा को पकड़ने की ठान ली। बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम रखा था। यह रकम उस ज़माने में बड़ी रक़म हुआ करती थी।
बिरसा मुंडा के विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895 को अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा को किसी भी तरह गिरफ्तार करने का निर्णय लिया। जिला अधिकारियों ने बिरसा के गिरफ्तारी के संबंध में विचार-विमर्श किया। जिला पुलिस अधीक्षक, जीआरके मेयर्स को दंड प्रक्रिया संहिता 353 और 505 के तहत बिरसा मुंडा का गिरफ्तारी वारंट का तामिला करने का आदेश दिया गया। दूसरे दिन सुबह मेयर्स, बाबु जगमोहन सिंह तथा बीस सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने चल पड़े। पुलिस पार्टी 8.30 बजे सुबह बंदगांव से निकली एवं 3 बजे शाम को चालकद पहुंची। बिरसा के घर को उन्होंने चुपके से घेर लिया। एक कमरे में बिरसा मुंडा आराम से सो रहे थे। इस तरह बिरसा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया था।
उन्हें शाम को 4 बजे रांची में डिप्टी कलेक्टर के सामने पेश किया गया। रास्ते में उनके पीछे भीड़ का सैलाब था। भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। ब्रिटिश अधिकारियों को आशंका थी कि उग्र भीड़ कोई उपद्रव न कर बैठे। लेकिन बिरसा मुंडा ने भीड़ को समझाया। बिरसा मुंडा के खिलाफ मुकदमा चलाया गया। मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया। बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में 50/- रुपये का जुर्माना तथा दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गई।
दो साल बाद 30 नवम्बर 1897 के दिन बिरसा को रांची जेल से छोड़ दिया गया। जेल से बाहर आने के बाद बिरसा मुंडा भूमिगत हो गए और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन करने के लिए अपने समर्थकों के साथ गुप्त बैठकें करने लगे। उन्होंने यह संकल्प लिया कि वे मुंडाओं का शासन लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। सन् 1899 में उन्हें अपने संघर्ष को और विस्तार दे दिया था। तमाम इतिहासकारों ने इस बात पर मुहर लगाई है कि सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। अंग्रेजों को ललकारते हुए साल 1889 में बिरसा मुंडा की सेना ने 89 ज़मीदारों के घरों में आग लगा दी थी।
आदिवासियों का विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के ज़िला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था। आखिरकार डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और बिरसा मुंडा और उनके साथियों की भिड़ंत हुई थी। इतिहास में दर्ज है कि इस मुठभेड़ में सैकड़ों आदिवासियों की मौत हुई थी और पहाड़ी पर शवों का ढेर लग गया था। गोलीबारी के बाद सुरक्षाबलों ने आदिवासियों के शव खाइयों में फेंक दिए थे और कई घायलों को ज़िंदा गाड़ दिया गया था। कहा जाता है कि इस गोलीबारी में क़रीब 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज़ पुलिस ने सिर्फ़ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी। इस गोलीबारी के दौरान बिरसा भी वहां मौजूद थे, लेकिन वो किसी तरह वहाँ से बच निकलने में कामयाब हो गए।
बिरसा मुंडा को न पाकर अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गए और किसी भी तरह बिरसा मुंडा के आंदोलन को खत्म करने के लिए उन्हें पकड़ने की तैयारी में जुट गए। तीन मार्च को अंग्रेज़ पुलिस ने चक्रधरपुर के पास एक गाँव को घेर लिया था। बिरसा के नज़दीकी साथियों कोमटा, भरमी और मौएना को गिरफ़्तार कर लिया गया था, लेकिन बिरसा फिर बच निकले। तभी एसपी रोश को एक झोंपड़ी दिखाई दी थी। इतिहासकारों ने लिखा है कि जब रोश ने अपने बंदूक में लगे संगीन से उस झोंपड़ी के दरवाज़े को धक्का देकर खोला था तो अंदर बिरसा मुंडा झोंपड़ी के बीचों बीच पालथी मार कर बैठे हुए थे। उन्होंने खड़े होकर बिना कोई विरोध किये हथकड़ी पहन लिया। इस तरह अंग्रेजों के हाथ में वो क्रांतिकारी वीर लग गया, जिसने अंग्रजी सरकार की नींव हिला कर रख दी थी।
जब बिरसा राँची जेल पहुंचे तो हज़ारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे। बिरसा पर लूट, दंगा करने और हत्या के 15 मामलों में आरोप तय किए गए थे। जेल में बिरसा को अकेले सबसे दूर एकांत में रखा गया। सिर्फ़ एक घंटे के लिए रोज़ उन्हें सूरज की रोशनी पाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकाला जाता था। तीन महीने तक उन्हें किसी से मिलने की इजाजत नहीं दी गई। एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था। उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था। कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं और आखिरकार 9 जून, सन् 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया। इस तरह भारत के एक क्रांतिकारी वीर सपूत के शरीर का अंत हो गया, हालांकि उनके सपने आज भी जिंदा है, जिसे पूरा करने के लिए देश में लाखों लोग लगातार आंदोलन कर रहे हैं। बिरसा मुंडा को जल, जंगल, जमीन और सम्मान के लिए चलाए गए अपने आंदोलन के कारण आदिवासी समाज में भगवान का दर्जा हासिल हासिल है।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।