लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।
भारतीय समाज: अपर कॉस्ट के हित में अपर कॉस्ट द्वारा संचालित-कुछ जरूरी तथ्य
राहुल गांधी ने कर्नाटक में एक चुनावी भाषण में एक नारा दिया, “जितनी जिसकी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” इसका अर्थ है कि किसी समाज और किसी विशिष्ट सामाजिक समूह की हिस्सेदारी जनसंख्या में उनके हिस्से के अनुरूप होना चाहिए। अपनी बात राहुल गांधी ने इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘यदि 70 प्रतिशत भारतीय ओबीसी/एससी/एसटी जातियों के हैं, तो विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रों में उनका प्रतिनिधित्व भी मोटे तौर पर 70 प्रतिशत होना चाहिए।”
राहुल गांधी की इस बात का कि ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का व्यवहारिक मतलब है कि भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 11,310 वरिष्ठ अधिकारियों में से 8,000 अधिकारी ओबीसी/एससी/एसटी जातियों से होने चाहिए या 104 स्टार्टअप यूनिकॉर्न में से 70 की स्थापना ओबीसी/एससी/एसटी जातियों के लोगों द्वारा की जानी चाहिए थी। लेकिन इन जातियों का कोई नहीं है। या इसका मतलब है कि भारत सरकार में 225 संयुक्त सचिव और सचिव ओबीसी/एससी/एसटी जातियों के होने चाहिए, लेकिन हैं, सिर्फ 68। या नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की शीर्ष 50 कंपनियों में से 30 का नेतृत्व इन उत्पीड़ित जातियों के लोगों द्वारा किया जाना चाहिए, लेकिन इन जातियों का कोई नहीं है।
यह सूची बहुत लंबी है। दूसरी ओर मनरेगा कार्यक्रम के 15.4 करोड़ श्रमिकों में से 80 प्रतिशत ओबीसी/एससी/एसटी हैं। मैला ढोने वाले सभी 60,000 भारतीय दलित या आदिवासी हैं। भारत सरकार के 44,000 सफ़ाई कर्मचारियों में से 75 प्रतिशत दलित या आदिवासी हैं। पेशेवर सफलता में जाति के प्रतिनिधित्व में भारी असमानता महज संयोग नहीं है। अनुभवजन्य साक्ष्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ऐसी सफलता को निर्धारित करने में जाति महत्वपूर्ण कारक हैं।
जब जातिगत असमानता के ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, तो आम तौर पर ऐसी प्रतिक्रिया आती है कि इस तरह की सफलता (प्रोफेशनल) शिक्षा और योग्यता का मामला है, इसका जाति से कोई लेना-देना नहीं है। यह तर्क हास्यास्पद है कि प्रोफेशनल सफलता के लिए आवश्यक सभी ‘योग्यता’ ऊपर की शीर्ष 30 प्रतिशत ऊंची जातियों के पास है। जबकि नीचे के 70 प्रतिशत ( एसी, एसटी और ओबीसी) के पास कोई योग्यता नहीं है। अगर शिक्षा पेशेवर सफलता की सीढ़ी है, तब सीढ़ी उत्पीड़ित जातियों के बच्चों के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं होती है।
भविष्य के नेताओं और नीति निर्माताओं को तैयार करने वाले एक प्रतिष्ठित निजी संस्थान, अशोका यूनिवर्सिटी को फंड देने वाले सभी 175 दानकर्ता ऊंची जातियों से हैं। इस स्थिति में कोई आश्चर्च नहीं होना चाहिए कि जहां इस तरह की प्राइवेट संस्थाओं से सिर्फ 6 प्रतिशत स्नातक एससी,एसटी और ओबीसी समाज से आते हैं, जबकि आईआईटी (IIT) जैसे उच्च सरकारी संस्थान से 35 प्रतिशत स्नातक इन तबकों से आते हैं।
भारत में सामाजिक पहचान को रेखांकित किए बिना योग्यता आधारित समाज का विचार एक धोखा है। यदि जातिगत असमानता की इस तरह की कटु सच्चाई हमारे सामने है और यह निश्चित तौर पर सबसे पुरजोर तरीके से प्रस्तुत होने वाला मुद्दा है, तो हमारी नीतिगत चर्चा इसे पर्याप्त रूप में क्यों नहीं दर्शाती है? शायद इसका एक कारण यह है कि इस बारे में जो विमर्श हो रहा है, उस पर इन उत्पीड़ित जातियों के लोगों का वर्चस्व नहीं है। उदाहरण के तौर पर जिन 600 लेखकों ने पिछले चार महीनों में अंग्रेजी भाषा के प्रमुख प्रकाशनों में वैचारिक लेख लिखे, उनमें 96 प्रतिशत अपरकॉस्ट के थे।
ये प्रकाशन द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, द टाइम्स ऑफ इंडिया, द प्रिंट और एनडीटीवी हैं। एक लेखक के तौर पर मुझे स्वयं और अन्य लेखकों को अपनी जाति का फायदा मिला। उत्पीड़ित जातियों के हितों के पक्ष में खड़े होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति विशेष उनकी जाति का हो, लेकिन इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि जिन 96 प्रतिशत उच्च जाति के प्रभावशाली विमर्शकार यह लेख लिखते हैं, वे एससी, एसटी और ओबीसी की कठिनाइयों से परिचित न हों।
जब जीविका के साधन के आधार पर गरीब और अमीर के बीच का वर्ग विभाजन अच्छी तरह स्वीकार किया जाता है, हमारे देश में जीविकोपार्जन के साधन को निर्धारित करने में जाति अधिक महत्वपूर्ण कारक है। इसे स्पष्ट शब्दों में कहें तो भारत में किसी बच्चे के जन्म लेते ही जो लॉटरी खुलती है, उसमें अमीर दलित परिवार में पैदा हुए बच्चे की सफलता की संभावना भी गरीब उच्च जाति के परिवार में पैदा हुए बच्चे की तुलना में कम होती है। भारत में सामाजिक नेटवर्क, पूर्वाग्रह और कलंक वे कारक हैं, जन्म के आधार मिलने वाली लॉटरी के परिणाम तय करते हैं।
यह एक छात्रवृत्ति है। इसके सैद्धांतिक और अनुभवजन्य दोनों प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इस स्थिति ये सवाल उठते हैं कि भारत में जातिगत दरार कितनी गहरी है? और एक सभ्य समाज में यह स्थिति किस कदर स्वीकार्य है? क्या इसको ठीक करने के लिए सक्रिय प्रयास होने चाहिए और यदि हां तो इस समस्या के समाधान का उपाय क्या हो सकता है? संक्षेप में कहें तो पूरी तरह समानता हासिल करना तो बहुत दूर की चीज है, ऐसे में हमें ‘ जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ वाले समाज निर्माण को किस कदर अपनाना चाहिए?
नवीन सामाजिक न्याय के मिशन शुरू करने के लिए पहला कदम समस्या कहां तक और किस कदर है, इसको समझना। इसके लिए जाति जनगणना के आंकड़ों की जरूरत है। जातिगत जनगणना हमें न केवल जाति के अनुसार जनसंख्या की भागीदारी के बारे में जानकारी देगी बल्कि विभिन्न जातियों की आय, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक गतिशीलता के बारे में भी जानकारी देगी। जो किसी भी नए सामाजिक न्याय कार्यक्रम की नींव है। जाति समस्या के समाधान के रूप में सिर्फ तुरंत आरक्षण के प्रतिशत को उच्च स्तर पर बढ़ाने और उसका विस्तार करने की मांग करना अपरिपक्व और बौद्धिक आलस्य से भरा कदम है।
जन्म के आधार मिली ‘दैवीय’ लॉटरी से पैदा हुई असमनाताओं को दूर करने के लिए अमेरिका, स्वीडन और नीदरलैंड जैसे देशों ने शिक्षा, कौशल और नौकरियों के लिए सामाजिक लॉटरी जैसे समाधानों को अपनाया है। अब समय आ गया है कि इसे भारत में भी लागू करने के बारे में विचार किया जाए। 21वीं सदी में जातिगत असमानताओं का समाधान सिर्फ आरक्षण के ढांचे और अफर्मेटिव एक्शन (सकारात्मक भेदभाव) तक सीमित रखना सच्चाई से आंख मूदना होगा। एक खुली, जीवंत सावर्जनिक बहस और विमर्श भारतीय संदर्भ के लिए रचनात्मक समाधान उत्पन्न कर सकते हैं। इससे पहले पहला कदम जातिगत जनगणना के माध्यम से समस्या के बारे में विस्तृत आंकड़ा और जानकारी प्राप्त करना है।
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिए गए प्रवीन चक्रवर्ती के इस लेख का हिंदी अनुवाद डॉ. सिद्धार्थ ने किया है।)