लखनऊ। उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट के लिए होने वाले आगामी उपचुनाव को लेकर एक बार फिर हलचल तेज हो गई है. इस सीट को लेकर भाजपा नेताओं में डर का माहौल है. जातीय समीकरणों के लिहाज से सपा-बसपा का गठबंधन भाजपा के सामने अपनी सीट बरकरार रखने के लिये कड़ी चुनौती साबित हो सकता है.
मुस्लिम और दलित बहुल कैराना सीट पर सपा और बसपा मिलकर उसके सामने फिर कड़ी चुनौती पेश कर सकती हैं. इस लोकसभा सीट के लिये उपचुनाव 28 मई को होगा. वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ और राजनीतिक रूप से खासा दबदबा रखने वाले मुनव्वर हसन के परिवार में वोटों के बंटवारे के बीच भाजपा के हुकुम सिंह ने कैराना लोकसभा सीट जीती थी. अब उनके निधन के बाद यह सीट खाली हुई है. उपचुनाव की तारीख़ का ऐलान होने से पहले ही यहां चुनावी माहौल बनना शुरू हो चुका था. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा रिक्त की गयी गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा छोड़ी गयी फूलपुर लोकसभा सीट पर मिली हार के बाद भाजपा कैराना लोकसभा उपचुनाव को लेकर बेहद सतर्क है.
कैराना लोकसभा क्षेत्र में लगभग 17 लाख मतदाता हैं. इनमें तीन लाख मुसलमान, लगभग चार लाख पिछड़े और करीब डेढ़ लाख वोट जाटव दलितों के हैं, जो बसपा का परम्परागत वोट बैंक माना जाता है. यहां यादव मतदाताओं की संख्या कम है ऐसे में यहां दलित और मुस्लिम मतदाता खासे महत्वपूर्ण हो जाते हैं. इस क्षेत्र में हसन परिवार का खासा राजनीतिक दबदबा माना जाता रहा है.
वर्ष 1996 में इस सीट से सपा के टिकट पर सांसद चुने गये मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम बेगम वर्ष 2009 में इस सीट से संसद जा चुकी हैं. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस परिवार में टूट हुई थी. तब मुनव्वर के बेटे नाहीद हसन सपा के टिकट पर और उनके चाचा कंवर हसन बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे, मगर दोनों को पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि नाहीद दूसरे स्थान पर रहे थे.
इस सीट पर राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) भी प्रभावी रहा है और वर्ष 1999 तथा 2004 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रत्याशी यहां से सांसद रह चुके हैं. अगर सपा, बसपा के साथ रालोद का वोट भी जुड़़ जाता है तो भाजपा के लिये मुश्किल और बढ़ सकती है.
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