विदित हो कि 06.01.2019 (रविवार) को दिल्ली के रामलीला मैदान में बीजेपी ने दलितों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए ‘भीम महासंगम’ का आयोजन किया जिसमें एक ही बर्तन में 5,000 किलो खिचड़ी तैयार की गई. खिचड़ी खाने वालों में कितने दलित थे, यह तो सही से नहीं कहा जा सकता लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं कि खिचड़ी खाने वालों की कतार में आरक्षित सीटों से जीतकर लोकसभा में पहुँचने वाले दलित नेताओं में से किसी की सूरत देखने को नहीं मिली, शायद वो आम दलितों से ऊपर उठ चुके हैं. शायद यही कारण रहा होगा कि 09.01.2019 को आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण के हक में इन दलित नेताओं ने लोकसभा और राज्य सभा में दिखावे के तौर पर भाषण तो जोरदार दिए किंतु तेजस्वी यादव गुट और ओवेसी गुट के सांसदों ने आर्थिक रूप से पिछड़े तथाकथित उच्च जातियों से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का खुलकर विरोध किया, बाकी किसी ने नहीं. पिछ्ड़े वर्ग के नेताओं ने भी भाषण तो दमदार दिए और पिछ्ड़े वर्ग के हक अपनी-अपनी वोट पक्के करने के लिए विडियो तैयार करके भी वायरल करवाए किंतु संबंधित बिल का विरोध न करके 10% आरक्षण के हक में ही अपना-अपना वोट डाला. ज्ञात हो कि 1993 में जब पिछ्ड़े वर्ग को वी. पी. सरकार ने आरक्षण का बिल पास किया था तो पिछ्ड़ों की जनसंख्या 51 प्रतिशत आँकी गई थी. … और आरक्षण महज 27.50% दिया गया… आबादी से लगभग आधा. अब जबकि 1993 के बाद अनेक जातियां पिछ्ड़े वर्ग में जोड़ी जा चुकी हैं ( मोदी जी भी उन ही पिछ्ड़ों में से आते हैं) तो उनकी जनसंख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई होगी, ऐसा कैसे माना जा सकता है? फिर पिछड़े वर्ग से आए सांसद अपने लोगों की लड़ाई ही नहीं लड़ सकते तो और उनके लिए कौन लड़ेगा? 1993 में तो अनुसूचित/अनुसूचित जन जातियों नें समाज के पिछड़े वर्ग को आरक्षण के लिए अपनी जान जोखिम में डालदी थी. अब इन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए यदि कोई बाधा है तो दलितों और पिछड़े वर्ग से सांसद चुनकर आए गुलामी की मानसिकता के राजनेता ही हैं… और कोई नहीं. इन राजनेताओं को इतना जान लेना चाहिए कि लोकसभा के चुनावों के बाद बीजेपी के ‘समरसता’ से ‘सम’ तो अलग हो जाएगा और ‘रस’ बीजेपी चूस लेगी… फिर दलितों से घरों से आए दाल-चावल की खिचड़ी उनके हिस्से में नहीं होगी. रविवार के अगले करीब तीन सप्ताह तक यहां बीजेपी के मेगा इवेंट होने जा रहे हैं. इस प्रकार के आयोजन महज चुनावी रणनीति का हिस्सा हैं. न खिचड़ी खाने से दलितों का कोई भला होने वाला है और न ही आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का कोई लाभ मिलेगा… कारण महज और महज यह है कि सरकारी नौकरियां तो हैं नहीं और निजी संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान लागू नहीं है.
सबसे बड़ा छलावा तो ये है कि उच्च कहे जाने वाले वर्ग को अब तक 50% आरक्षण था जिसको अब केवल आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% तक समेट दिया गया है. क्या आर्थिक रूप से पिछड़े तथाकथित उच्च जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का प्रावधान करना, केवल उनके वोटों पर कब्जा जमाने के लिए क्या कोई धोखा नहीं है?
अब पुन: खिचड़ी पर लौटकर आते हैं.. दरअसल बीजेपी नेताओं की माने तो भीम महासंगम यूनिक इवेंट है. इसमें बनने वाली 5,000 किलो खिचड़ी गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में अपनी जगह बनाएगी. इससे पहले मनोहर ने नागपुर में 3,000 किलो की खिचड़ी तैय़ार की थी, जिसे रिकॉर्ड बुक में जगह मिली थी. 15 फुट चौड़े और 15 फुट लंबे प्लैटफॉर्म पर खिचड़ी तैयार की जाएगी, जिसके लिए कई गैस स्टोव लगाए जाएंगे. बीजेपी का इस बहाने दुनिया भर में डंका बजाना है कि भारत में बीजेपी ही एक मात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो दलितों की हितकारी है. मेरी समझ से तो परे है कि इन दलितों/ पिछड़े वर्ग से आए नेताओं को कौन सा साँप सूंघ गया है कि वो राजनीतिक और सामाजिक गुलामी का दामन नहीं छोड़ पा रहे हैं. …..शायद केवल और केवल सत्तासुख … और कुछ नहीं.
यह भी साफ है कि बीजेपी के इस भीम महासंगम के सियासी मायने केवल 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले दलितों का अपने पक्ष में करने का एक छलावा भर है. बता दें कि इस समरसता खिचड़ी के लिए बीजेपी कार्यकर्ताओं ने दिल्ली के सभी 14 जिलों के परिवारों के घर-घर जाकर चावल, दाल, नमक व अन्य सामग्री को इकट्ठा किया है, यह केवल एक दिखावा भर है. कहा जा रहा है कि इसमे भी घोटाला है…..5000 किलो खिचडी तो कुल एक हज़ार किलो चावल की बन जाएगी…..बाकी चावलों का क्या हुआ होगा? दिल्ली बीजेपी के मीडिया संयोजक अशोक गोयल ने बताया कि पार्टी ने बीते कुछ दिनों में दलित समाज के लोगों से ही 10,000 किलो चावल और दाल जुटाया है. इसके अलावा खिचड़ी में पड़ने वाले टमाटर, अदरक, प्याज और नमक आदि की व्यवस्था पार्टी की ओर से ही की जाएगी.
इसके उलट सवाल यह है कि आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों को सरकारी खजाने से आखिर क्यों बांटी जा रही हैं महंगी कारें. राजनीति के ये अजब-गजब रंग कौन से लोकतंत्र की राजनीति का हिस्सा है कि दिल्ली में दलितों को केवल खिचड़ी खिलाकर उनके वोट हासिल करने का उपक्रम किया गया और आन्ध्र प्रदेश में सीएम बनने के बाद से नायडू ने ब्राहम्णों का खास ख्याल रखा और राज्य में ब्राह्मणों के लिए अलग से निगम और क्रेडिट सोसायटी बनाईं.
राज्य में ब्राह्मण कॉरपोरेशन चंद्रबाबू नायडू के जून 2014 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद स्थापित किया गया. इसकी स्थापना की बात नायडू ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में की थी. कहते हैं कि आंध्र प्रदेश के विभाजन के चलते समृद्ध ब्राह्मण तेलंगाना के हिस्से चले गए. गरीब ब्राह्मण आंध्र प्रदेश के हिस्से बचे, जिनकी सरकारी नौकरियों में भी हिस्सेदारी बेहद कम है. खेती भी उनके पास नहीं है. मंदिर, पूजा-पाठ के जरिए होने वाली आय से ही उनका जीवनयापन होता है. राज्य की कुल आबादी में ब्राह्मण आबादी का हिस्सा तीन से चार प्रतिशत के बीच है, जिसमें से बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे है. गरीब होने की वजह से ब्राह्मण शिक्षा में भी पिछड़ रहे हैं. कहते हैं कि 2014 के राज्य विधानसभा चुनाव के वक्त चंद्रबाबू नायडू जब राज्य की यात्रा पर थे तो उन्होंने ब्राह्मणों की यह स्थिति बहुत नजदीक से देखी और तभी ऐलान कर दिया कि अगर वह सत्ता में आते हैं तो ब्राह्मणों की स्थिति सुधारने के लिए कुछ बेहतर करेंगे. हैं न लोकतंत्र में राजनीति के अजब-गजब रंग?
विदित हो कि सीएम चंद्रबाबू नायडू ने 4 जनवरी को अमरावती में 30 बेरोजगार ब्राह्मण युवकों को कारें दीं…. अब सवाल यह उठता है कि यदि इन तथाकथित बेरोजगार युवकों को मंहगी कारे दी जा रही हैं तो इनके लिए पैट्रोल/सी.एन.जी. का भार कौन उठाएगा? दरअसरल बेरोजगारों की इस फिक्र के पीची कुछ न कुछ राजनीतिक मायने भी छिपे हुए हैं… और वह है किसी भी प्रकार से वोटर को मूर्ख बनाकर उनके वोट हथियाना. इतना ही नहीं, नायडू ने ब्राह्मणों को खुश करने का दांव इसलिए खेला है कि उन्हें लगता है कि घर-घर ‘माउथ टु माउथ’ पब्लिसिटी में ब्राह्मण उनका जरिया बन सकते हैं. दूसरा, यह भी माना जाता है कि ब्राह्मण का आशीर्वाद बहुत लाभकारी होता है. इस वजह से चंद्रबाबू सरकारी खजाने से ब्राह्मणों को खुश कर उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं.
आंध्र प्रदेश में फिलहाल नौ ऐसी योजनाएं हैं जो सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण समाज को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं. इनके नाम भी ऋषि-मुनियों पर रखे गए हैं….यथा वेदव्यास, गायत्री, भारती, चाणक्य, द्रोणाचार्य, वशिष्ट, कश्यप, गरुण और भार्गव जैसी योजनाओं के तहत ब्राह्मण समुदाय को लाभ पहुँचाने हेतु राजनीतिक उपक्रम किए जा रहे हैं. इस अवस्था में भला ये क्यों न मान लिया जाए कि लोकतंत्र ही एक जुमला बनकर रह गया है.
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