26 जनवरी 2017 को भारत ने अपना 67वां गणतंत्र दिवस मनाया। इन 67 वर्षों में सामाजिक, आर्थिक, न्यायिक, उच्च, तकनीकी एवं प्रबंधन शिक्षा आदि में बहुजनों (अनु. जाति/जजा/अन्य पिछड़ा वर्ग एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों) की भागेदारी उनकी जनसंख्या के अनुपात में कत्तई सुनिश्चित नहीं हो पाई है। राजनैतिक धरातल पर भी अनेक राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। यद्यपि जनसंख्या के आधार पर यह समाज बहुसंख्यक हैं, पर इन दलों में नेतृत्व के स्तर पर इनका प्रतिनिधित्व न के बराबर है। इन सभी बहुजन समुदायों को राष्ट्रीय दल प्रकोष्ठों या सेल में बंद कर के रखने की परंपरा रही है। जैसे अनु. जाति, जजा, पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ। अपवाद को छोड़ दिया जाए तो वो कभी मुख्यधारा नहीं बन पाते हैं।
इसी तरह जब इस सवर्ण वर्चस्व वाले राष्ट्रीय दलों की सरकारें बनती हैं तो उनमें भी इक्का-दुक्का बहुजन (अनु. जाति/जजा/अन्य पिछड़ा वर्ग एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों) समाजों के कमजोर नेताओं को सरकार में इनकी अस्मिता का मंत्रालय देकर इन्हें पुनः सीमित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए अनु.जाति के मंत्री के लिए सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय आरक्षित रहता है। इसी तरह अल्पसंख्यक समाज के नेता के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय ऐसी स्थिति में समाजों का राष्ट्र की राजनीति में कोई प्रभावशाली योगदान नहीं होता। राष्ट्र में अगर कोई नीति एवं कार्यक्रम बनता है तो इन बहुजन समाज के नेताओं को निर्णयों में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी स्थिति में विगत 67 वर्षों में यह देखने में आया है कि एक ओर देश की बहुसंख्यक जनता को सामाजिक, आर्थिक, न्यायिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक सत्ता से दूर रखने का प्रयास किया गया। उनको विशेष कर सरकार के निर्णयों एवं कार्यक्रमों में भागेदारी के अवसर नहीं दिए गए और दूसरी ओर राजनीति, अर्थव्यवस्था, न्यायिक एवं शैक्षणिक व्यवस्था पर सवर्ण समाजों का एकाधिपत्य होता चला गया। उदाहरण के लिए अमरिकी मैगजीन फोर्ब्स के अनुसार भारत के 100 लोग अरबपति हैं और दूसरी ओर अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि भारत का 70 प्रतिशत व्यक्ति 20 रुपये प्रतिदिन पर अपना जीवन गुजरता है।
इसी कड़ी में वर्तमान केंद्र सरकार को ही ले लें तो हमें पता चलेगा कि लोकसभा स्पीकर से लेकर भारत के दस से बारह कैबिनेट मंत्री ब्राह्मण समाज से आते हैं। शिक्षा में आईआईटी, आईआईएम तथा 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के शीर्ष नेतृत्व डायरेक्टर या वाइस चांसलर में एक भी अनुसूचित जाति का व्यक्ति नहीं मिलेगा। सामाजिक धरातल पर एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2013-2014 में हर दिन अनुसूचित जातियों पर सवर्ण समाज द्वारा 125 अपराध की घटनाएं दर्ज की गई। हैदराबाद में दलित छात्र रोहित वेमुला जिनकी शहादत को एक साल हो गए हैं और राजस्थान में दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल की हत्या के दोषी आज भी खुलेआम घूम रहे हैं।
उना में गाय के नाम पर दलितों की पिटाई, दादरी में गाय के मांस को लेकर अखलाक की हत्या, मेवात में गाय के मीट की बिरयानी के नाम पर अल्पसंख्यकों के व्यवसाय पर अत्याचार, लव जेहाद एवं घरवापसी के नाम पर हिंसा आदि अनेक मामले हैं जो सवर्ण बाहुल्य वाले दलों जैसे भाजपा एवं कांग्रेस की राजनीति पर सवाल खड़ा करते हैं। वे बहुजनों को प्रतिनिधित्व देने में नाकामयाब हुए हैं। ऐसा अनजाने में हुआ होता तो बात और थी। ऐसा सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ है। एक ओर बहुजनों को सत्ता, संसाधन एवं शिक्षा से वंचित किया गया है और दूसरी ओर इन्हीं चीजों पर सवर्ण समाज विशेष कर ब्राह्मण समाज का एकाधिपत्य एवं वर्चस्व स्थापित किया गया है और आज भी यह प्रक्रिया जोरों से जारी है।
ऐसे में भारत के 67वें गणतंत्र दिवस पर यह प्रश्न उठता है कि क्या इन प्रक्रियाओं से देश सशक्त होगा? बहुजनों के प्रतिनिधित्व के अभाव में यह प्रजातंत्र कैसे मजबूत होगा? इन विषम परिस्थितियों के विपरीत ऐतिहासिक दृष्टिकोण से करीब 88 वर्ष पहले बाबासाहेब ने राष्ट्रनिर्माण एवं भारत को प्रजातंत्र बनाने हेतु बहुजनों के प्रतिनिधित्व का प्रश्न उठाया था। इस फलसफे को क्रियान्वित करने हेतु उन्होंने पहले अनुसूचित जाति के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की और फिर 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाकर इलेक्शन लड़ा। देखते ही देखते उन्होंने अनुसूचित जाति को एक बड़े राजनैतिक समूह के रूप में खड़ा कर दिया। शिड्यूल कास्ट फेडरेशन के माध्यम से उन्होंने इस राजनैतिक जमात को और मजबूत किया। बहुजनों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए ही उन्होंने आरपीआई की नींव डाली थी। बाबासाहेब का मानना था कि इस राजनैतिक मुहिम से प्रजातंत्र प्रतिनिधित्वकारी बनेगा जिससे राष्ट्र और मजबूत होगा। वे तो बहुजनों की राजनैतिक भागेदारी सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट में भी आरक्षण चाहते थे परंतु 6 दिसंबर 1956 में उनके अकास्मिक परिनिर्वाण से बहुजन राजनीति में अकाल पर गया। इसके पश्चात सन् 1972 में दलित पैंथर्स में उदय के साथ बहुजन राजनीति आगे बढ़ी। परंतु लीडरों के वैचारिक संघर्ष के कारण अल्प आयु में ही वह बंटकर क्षीण हो गई।
बहुजनों को भारतीय प्रजातांत्रिक राजनीति में उनकी भागेदारी दिलाने के लिए मान्यवर कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। देखते ही देखते बहुजन समाज पार्टी यानि बसपा बहुजनों की राजनैतिक अकांक्षाओं का केंद्र बन गई। विशेष कर उत्तर प्रदेश में ‘वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा- नहीं चलेगा’, ‘वोट से लेंगे पीएम-सीएम आरक्षण से लेंगे एसपी-डीएम’, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी आदि नारों के साथ नवीन राजनीति को आगे बढ़ाया, जिसमें संवैधानिक प्रतिबद्धता एवं प्रतिनिधित्वकारी प्रजातंत्र की साफ झलक दिखाई देती है। बहुजन समाज पार्टी की विशेषता यह है कि उसने प्रजातंत्र की आत्मा और उसके सिद्धांत को जमीनी स्तर पर व्यवहारिकता में अंगीकार किया। संवैधानिक प्रजातंत्र की मूल भावना यह है कि समाज के सबसे नीचले क्रम के सामाजिक समूहों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अधिकारों के साथ जोड़कर न्याय दिलाया जाए। अपनी फुले-अम्बेडकरी विचारधारा के आधार पर बसपा ने गरीबी रेखा के नीचे असाक्षर ग्रामीण अंचल में रहने वाले भूमिहीन किसान जिसमें सौ फीसदी अनुसूचित जाति के ही लोग आते थे, को सबसे पहले अपनी राजनीति में जोड़ा। फिर उन्होंने बहुजनवाद के नारे के तहत पिछड़ी जातियों जैसे- कुर्मी, मौर्य, राजभर, कुशवाहा, गड़ेरिया, नाई, मल्लाह, बिंद आदि जातियों को जोड़कर राजनैतिक प्रतिनिधित्व देना आरंभ किया। जिन पिछड़ी जातियों की संख्या बहुत कम थी, उनके नेताओं को बसपा नेतृत्व ने एमएलसी बनवाया।
इसी प्रकार बहुजनवाद के नारे के तहत 1990 तक आते-आते अल्पसंख्यक समाज के अनेक नेताओं का एक पुंज खड़ा कर दिया है। डॉ। मसूद अहमद, इलियास आजमी, नसिमुद्दीन सिद्दीकी, शेख सुलेमान, अब्दुल मन्नान, दाऊद अहमद, मुनकाद अली, हाजी कुरैशी, अतहर अली, इरशाद खान आदि अनेक नेताओं को खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, बहुजनवाद की विचारधारा के तहत अल्पसंख्यक मंत्रालय की भी स्थापना की गई। अपनी प्रतिनिधित्वकारी प्रजातांत्रिक नीति के तहत बहुजन समाज पार्टी ने सवर्ण समाज के कुछ लीडरों को भी आगे बढ़ाया। परंतु यह उनकी जनसंख्या के अनुपात में था और वे लीडर जो मनुवादी मानसिकता छोड़कर बहुजन समाज को अपनाना चाहते थे। बसपा ने बहुजन समाज के नेतृत्व के माध्यम से ही नहीं बल्कि अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से भी भारतीय प्रजातंत्र में निम्नतम पायदान में खड़े समाजों का सशक्तिकरण किया।
अम्बेडकर ग्राम योजना, प्रोमोशन में रिजर्वेशन, कांशीराम शहरी गरीबी उन्मूलन योजना, माननीय कांशीराम अरबी-फारसी विश्वविद्यालय, शकुंतला मिश्रा विकलांग विश्वविद्यालय, कांशीराम सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल या बहुजन समाज के संतों एवं गुरुओं के सम्मान में पार्कों एवं स्थलों का निर्माण आदि सभी में बहुजन समाजों को सामाजिक न्याय देते हुए कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया। कड़ी न्याय एवं प्रशासन एवं सांप्रदायिक ताकतों पर कड़ी लगाम लगाकर उन्होंने दलितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों आदि समूहों का मनोबल ही नहीं बढ़ाया, पर उनका सशक्तिकरण कर सामाजिक न्याय देने की मुहिम चलाई। उपरोक्त सामाजिक न्याय के साथ विकास एवं प्रतिनिधित्वकारी प्रजातंत्र की पहल का परिणाम यह हुआ कि 2007 में उत्तर प्रदेश की जनता ने बहुजन समाज पार्टी की आत्मनिर्भर पूर्ण बहुमत की सरकार बनवा दी। एक बार फिर बहुजन समाजों के प्रतिनिधित्व के माध्यम से बसपा ने प्रतिनिधित्वकारी प्रजातंत्र को आगे बढ़ाया। दलित, पिछड़े, अतिपिछड़े, अल्पसंख्यक, सवर्ण समाज, सभी के सदस्यों को प्रशासन में जनसंख्या के अनुपात में भागेदारी करने का मौका दिया। पिछड़े समाजों के अनेक लीडर- स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, रामअचल राजभर, सुखदेव राजभर, लालजी वर्मा जैसे कद्दावर लीडर सामने आएं। जिन्हें अभिशासन के लिए एक नहीं बल्कि कई-कई मंत्रालय दिए गए। इसी कड़ी में अल्पसंख्यक समाज के नसीमुद्दीन सिद्दीकी को भी एक से ज्यादा मंत्रालय अभिशासन के लिए दिए गए। सवर्ण समाज के कई मंत्री भी महत्वपूर्ण मंत्रालयों में देखे गए यद्यपि बहुजन समाज ने उन्हें बहुत भारी मन से स्वीकार किया।
प्रजातंत्र की इस मुहिम मे विकास की गति को भी तेज किया। इस दौरान उत्तर प्रदेश राज्य की जीडीपी 6.8 रही जो राष्ट्रीय औसत के समान थी। बसपा सुप्रीमो ने राजनीति को सामाजिक न्याय के साथ-साथ विकास के रास्ते पर मोड़ दिया। अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में 165 किलोमीटर लंबा एक्सप्रेस-वे का निर्माण कराया जो इतना मजबूत है कि आज वह लड़ाई के समय मिलिट्री एय़रपोर्ट का काम करने में भी सक्षम है। इस एक्सप्रेस-वे पर भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान उतारे गए, जो इस एक्सप्रेस-वे की मजबूती को प्रमाणित करता है। इसी दौरान दो विश्वविद्यालय और पांच मेडिकल कालेज बनें। बुद्धा फार्मूला वन रेस का सर्किट पी.पी मॉडल के आधार पर बना। बहन जी ने इस दौरान बुद्ध धम्म के कारवां को भी आगे बढ़ाया (देखें दलित दस्तक जनवरी, 2017 अंक)।
इतने साकारात्मक कार्य करने के पश्चात भी मीडिया विशेष कर टीवी मीडिया ने सरकार के आखिरी चंद महीनों में नाकारात्मक छवि बना दी और लोग बसपा सरकार और इसकी मुखइया मायावती द्वारा किए गए अनेक साकारात्मक कार्यों को भूल गए। बसपा सुप्रीमो द्वारा कड़ाई से कानून व्यवस्था की स्थापना को वे लोग भूल गए। बसपा शासनकाल के दौरान अखिलेश यादव जैसी कानून व्यवस्था नहीं थी, जिसमें गुंडों द्वारा जमीन को दखल कर लिया जाता था और उसे छुड़ाने में एसपी और इंस्पेक्टर जैसे बड़े पुलिस अधिकारी मारे जाए। बसपा मुखिया के समय सांप्रदायिक संघर्षों पर कड़ी लगाम थी। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के शासनकाल में जहां 400 से अधिक सांप्रदायिक संघर्ष हुए। बसपा की सरकार के वक्त व्यपारी वर्ग अपने आप को सुरक्षित महसूस करता था लेकिन मीडिया ने बसपा के इमेज को इतना खंडित किया कि लोग सब भूल गए। एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा कि- ‘जितना पैसा बीएसपी ने विकास पर खर्च किया है अगर उसका एक प्रतिशत भी मीडिया के प्रचार पर खर्च करती तो वह चुनाव में कभी नहीं हारती।’ कहने का तात्पर्य यह हुआ कि 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा हारी नहीं परंतु मीडिया ने उसकी छवि धूमिल कर दी थी।
बसपा के 2012 में चुनावी हार के बाद बहुजनों का क्या हाल हुआ, यह सभी को पता है। दलितों पर अत्याचार, आरक्षण पर कुठाराधात, अल्पसंख्यकों पर हिंसा, मुजफ्फरनगर, दादरी, पंचकोशी परिक्रमा, लव जेहाद, घरवापसी आदि की वजह से उत्तर प्रदेश में हिन्दू और मुस्लिम समाज में ध्रुवीकरण हुआ और अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी की ढुलमुल राजनीति की वजह से आरएसएस एवं हिन्दुत्वा की राजनीति को बढ़ावा मिला। कई राजनीतिक विश्लेषक तो यह भी इल्जाम लगाते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता मिलने का मुख्य कारण यूपी में अखिलेश सरकार द्वारा सांप्रदायिक ताकतों को खुली छूट देना था। इसका परिणाम 2017 में देखने के लिए मिल रहा है। लोकतंत्र त्राही-त्राही कर रहा है। सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता एवं प्रतिनिधित्वकारी राजनीति का क्षय हुआ है। अतः 2017 में बसपा एक बार फिर अपनी भागेदारी की राजनीति से भारतीय प्रजातंत्र को मजबूत करने के कड़े प्रयास कर रही है। इसका प्रमाण उसने 2017 के विधानसभा के अपने उम्मीदवारों को टिकट बंटवारे के माध्यम से दिया है। उसने यह टिकट सभी समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देकर लिया है। यथा सबसे ज्यादा टिकट उसने अपनी बहुजन विचारधारा के तहत पिछड़ी जातियों को एकमुश्त 106 टिकट दिया है। परंतु मनुवादी मीडिया को ये पिछड़ी जातियों को दिए गए टिकट दिखाई ही नहीं देते। वह अपनी वैचारिक बेईमानी की वजह से उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं।
यद्यपि बसपा सुप्रीमों ने भाईचारा कमेटियों को यह विशेष निर्देश दिया है कि पिछड़ी जातियों की गोलबंदी में कोई भी कमी नहीं आनी चाहिए। इसलिए 2017 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का एक मजबूत आधार पिछड़ी जातियां ही हैं, इसको नहीं भुलाया जाना चाहिए। यद्यपि भारतीय जनता पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी के एक नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को अपनी पार्टी में शामिल कर बहुजन समाज पार्टी को नुकसान पहुंचाने का असफल प्रयास किया। जब स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा से निकाले गए तो भाजपा ने मीडिया के माध्यम से स्वामी प्रसाद मौर्य का ऐसा आभामंडल तैयार किया कि उनके पीछे मौर्या समाज का एक बड़ा जनाधार है, लेकिन बसपा को यह बात पता थी कि स्वामी प्रसाद मौर्या को बसपा ने जर्रे से आफताब बनाया था, वरना उनके पास कोई जनाधार नहीं है। यहां तक की अपने चुनाव को जीतने के लिए भी वे बसपा से सुरक्षित चुनाव क्षेत्र की गुहार लगाते थे। 2017 के विधानसभा चुनाव आते-आते यह बात भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी समझ में आ गई है कि मौर्य का कोई भी जनाधार नहीं है और इसीलिए उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य को चुनावी रणनीति में कोई भी तरजीह नहीं दी है।
यहां तक की उनको यह भी भरोसा नहीं है कि भाजपा उन्हें टिकट देगी या नहीं। इसलिए वो दूसरे राजनैतिक दलों में जाने की जुगत लगा रहे हैं। चर्चा यह भी है कि वो बहुजन समाज पार्टी में दुबारा वापसी के लिए आतुर हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य का राजनैतिक पतन इस बात को प्रमाणित करता है कि मौर्य एवं कुशवाहा समाज बहुजन समाज पार्टी में दूसरे पिछड़े समाजों की तरह ही मजबूती से खड़ा है। जिससे बहुजन समाज पार्टी की बहुजन विचारधारा को मजबूती मिल रही है। बहुजन विचारधारा के तहत दूसरा सबसे बड़ा समूह अल्पसंख्यकों का है। इसको बसपा ने 97 टिकट गए हैं। और यह कहा जा रहा है कि अगर अल्पसंख्यक और दलित एक साथ आ जाए तो बसपा को उत्तर प्रदेश में कोई भी नहीं हरा सकता। वैसे धरातल पर पिछड़े समाज के साथ-साथ मुस्लिम समाज भी अबकी बसपा की ओर उन्मुख दिख रहा है। अल्पसंख्यक समाज के पढ़े-लिखे नौजवान अबकी बार 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की ओर आकर्षित होते दिखाई पर रहे हैं।
विशेषकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एवं नदवा-तूल-उलूम छात्रों एवं पूर्व छात्रों के संगठन में खासा जोश दिखाई दे रहा है। ये छात्र सोशल मीडिया पर बसपा के लिए तो नहीं बल्कि सपा के खिलाफ अखिलेश एवं मुलायम की राजनीति का पोल खोलने में लगे हुए हैं। उनका मानना है कि सपा और भाजपा फिक्स मैच खेल रहे हैं। और सपा, कांग्रेस की ही तरह डराकर अल्पसंख्यकों का वोट लेती रहती है। बहुत सारे अल्पसंख्यक वकीलों, डाक्टरों एवं शिक्षाविदों ने इस तथ्य को कबूल किया है कि बसपा और अल्पसंख्यक समाज का गठबंधन ही प्राकृतिक गठबंधन है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव के परिपेक्ष्य में बसपा की राजनैतिक हैसियत का आंकलन किया जाए तो हम पाएंगे कि सामाजिक समीकरण, सांगठनिक तैयारी एवं बसपा सुप्रीमों का व्यक्तित्व सपा, कांग्रेस, आरएलडी और भाजपा पर भारी है। सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अबकी बार उत्तर प्रदेश की जनता सामाजिक न्याय के साथ विकास एवं धर्मनिरपेक्षता की स्थापना के लिए वोट करेगी। सामाजिक न्याय के साथ विकास, धर्मनिरपेक्षता, कड़ी न्याय व्यवस्था के साथ-साथ प्रतिनिधित्व देने में उत्तर प्रदेश में केवल बीएसपी ही दिखाई पड़ती है इसलिए समाज का जो भी तबका सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, प्रतिनिधित्व की स्थापना के माध्यम से प्रजातंत्र को मजबूत करना चाहता है वो बसपा को ही वोट करेगा। क्या उत्तर प्रदेश की जनता इसको समझेगी?
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।
2019 को बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनना बहुत जरुरी वरना sc st obc तथा अल्पसंख्यक का नमो निशान मिट जाएगा कांशीराम जी का अन्तिम उद्देश्य