नई दिल्ली। बाबासाहेब द्वारा वंचितों की मुक्ति के लिए 23 सितंबर 1917 को लिए गए संकल्प के 100 साल पूरा होने पर जब बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के वडोदरा जाने की खबर आई तो अम्बडेकरी आंदोलन से जुड़े लोगों में हलचल पैदा हो गई. वजह, इसके कुछ समय बाद ही होने वाला गुजरात चुनाव था. लगा कि बसपा अध्यक्ष गुजरात चुनाव को लेकर काफी गंभीर हैं और एक खास मौके पर वडोदरा पहुंच तक अपने समर्थकों को गोलबंद करना उनकी रणनीति का हिस्सा है.
इसी तरह गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान ओखी तूफान से डरे राहुल गांधी और अमित शाह ने जब अपनी चुनावी रैली रद्द कर दी थी, मायावती डटी रहीं और तूफान की परवाह किए बिना निश्चित कार्यक्रम के मुताबिक अपनी रैली को संबोधित किया. उस दौरान मायावती ने जो भाषण दिया, उसकी स्थानीय स्तर पर खूब सराहना हुई. इन दोनों घटनाओं ने देश भर में फैले बसपा समर्थकों को यकीन दिलाना शुरू कर दिया था कि इस साल गुजरात चुनाव में बसपा बेहतर नतीजे लेकर आएगी. लेकिन 18 दिसंबर को आए चुनावी नतीजों ने बसपा समर्थकों की उम्मीद को तोड़ दिया है.
बसपा ने गुजरात के 182 में से 144 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा था, लेकिन वह एक भी सीट नहीं जीत सकी. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक गुजरात में बसपा को सिर्फ 0.07 प्रतिशत वोट मिले हैं. वोटों की संख्या की बात है तो पार्टी ज्यादातर विधानसभा क्षेत्रों में 500 से 1000 हजार वोट ही हासिल कर पाई है. अभी तक ऐसे किसी प्रत्याशी का नाम सामने नहीं आया है, जिसे 5000 या फिर उससे ज्यादा वोट मिले हों.
हिमाचल का भी यही हाल है. यहां बीएसपी को कुल 17 हजार 335 वोट मिले, जबकि वहीं 32 हजार 656 लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया. बहुजन समाज पार्टी की इस शर्मनाक हार ने पार्टी के रणनीतिकारों पर सवाल खड़ा कर दिया है. साथ ही टिकट वितरण में लगे प्रदेश के पदाधिकारियों को भी सवालों के घेरे में ले आया है. सवाल उठ रहा है कि आखिर प्रत्याशियों को टिकट देने का आधार क्या था? सवाल यह भी है कि पार्टी की इस शर्मनाक हार का दोषी कौन है?
राज कुमार साल 2020 से मीडिया में सक्रिय हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं।