ऐंगल्स ने कहा था कि किसी लेखक को अगर मारना है तो उसकी रचना पर चर्चा बन्द कर दो. एक चुप्पी बना लो. उसके पक्ष या विपक्ष में कोई चर्चा ही न करो. लेखक और उसका लिखा सब मर जायेगा. उस समय ऐंगल्स के साथ पूंजीवादी लेखकों ने ये ही तरीका अपनाया था.
इरादा फ़िल्म जो फरवरी 2017 में आई. जो एक बेहतरीन फ़िल्म है. इरादा फ़िल्म के साथ भी ये ही हुआ.
इरादा फ़िल्म जो कैंसर, कैंसर होने के कारण पर बनी फिल्म है. कैंसर के इस खेल में किस-किसको फायदा है इसका बखूभी चित्रण है. फ़िल्म ने जो मुद्दा उठाया उस पर चर्चा आज वक्त की जरूरत है. लेकिन वक्त पर और चर्चा पर उन्ही लोगो का कब्जा है जिनके मुनाफे के कारण कैंसर महामारी का रूप ले चुका है. कैमिकल फैक्ट्रियों के कचरे को जमीन में रिवर्स बोरिंग के जरिये पहुँचाने के कारण जमीन का पानी जहरीला हो गया. जो पानी और फसलों के माध्यम से ये जहर हमारे अंदर तक पहुंच रहा है जिस कारण कैंसर होती है. लेकिन आम इंसान के दिमाक मेपूंजीपतियों ने प्रचार के माध्यम से बैठा दिया कि कैंसर धूम्रपान और तम्बाकू से होता है. कैंसर धूम्रपान ओर तम्बाकू से भी होता है. लेकिन कैमिकल कचरा जमीन में पहूंचाने से पानी और फसल जहरीली हो गयी जिस कारण कैंसर महामारीबन गयी. लुटेरे पूंजीपतियों की मुनाफे की चाहत ने जमीन के पानी को जहर बना दियाइस का विरोध न हो इसलिए ये चुप्पी बनाई गई. आप धूम्रपान ओर तम्बाकू छोड़ सकते हो ये आपके हाथ मे है लेकिन आप पानी पीना कैसे छोड़ सकते हो. ये तो आपकी मूल जरूरत है. इस जहरीले पानी पीने से आज कैंसर महामारी का रूप धारण कर चुकी है.
मैने 2 दिन पहले इरादा फ़िल्म देखी. जैसे-जैसे फ़िल्म देख रहा था वैसे-वैसे देश की भयंकर सच्चाई डरा रही थी.
हम एक ऐसी जगह रह रहे है जहां रोजाना कोई ना कोई इस कैंसर की चपेट में आकर तड़फ-तड़फ कर मर रहा है. तड़फने के साथ-साथ उसको एक पूरा संगठित गिरोह लूट भी रहा है. खून बेचने वालों से लेकर कीमो थेरैपी, इंशोरेंस, पानी बेचने वालो का एक बहुतबड़ा स्कैम है इसके पीछे.
पानी जो मौत की दलदल बन गयी.
यहाँ के लोगो के लिए पानी ही मौत बन गयी है. पानी किसी भी इंसान की जिंदगी की सबसे जरूरी पेय पदार्थ है. अब वो ही उसके लिए जहर बन गया है.
कोई अगर इस जहर पर रिसर्च करता भी है तो लुटेरा पूंजीपति उसको मरवा देता है. जिसने इस जहर को पैदा कियाऔर जिसकी इस जहर के कारण दुकानदारी चल रही है वो सब इस जहर के खिलाफ बोलने वालों का मुंह बंद कर देते है.
कारपोरेट का मीडिया प्रचार करता है कि
“यहाँ का पानी पीने से आप नही बच सकते.”
सेफ रहो, अलर्ट रहो, साफ पानी पियो.
मतलब RO लगवावो. बोतल बन्द पानी खरीदो. जमीन का या नदियों के पानी से ये जहर खत्म हो इस पर कोई चर्चा नही.
फ़िल्म में लुटेरा पूंजीपति, खोजी ईमानदार पत्रकार को मारने से पहले कहता है कि –
रिवर्स बोरिंग किस चिड़िया का नाम हैये कोइ नही जानता
अमोनियम नाइट्रेट, क्रोमियम कैमिकल ये जहरीले है. किसी को कोई फर्क नही पड़ता है. इंजेक्सन लगा कर सब बेहोसी में जीये जा रहे है.
शनिवार-रविवार को बीबी के साथ डिनर, गर्ल फ्रेंड के साथ डिस्को बस ये जिंदगी है.
इस जहर की उनको आदत सी पड़ गयी है
इसलिए मेरा बिजनेस सही है. क्योकि कोई मेरे बिजनेस पर सवाल नही उठाता.
वैसे पूंजीपति ठीक कह रहा है. आज ये ही तो हालात है. पंजाब और पंजाब के लगते बार्डर इलाको में हर घर से कैंसर के कारण मौत हो चुकी है लेकिन क्या आपने कभी विरोध के स्वर सुने. सुनोगे भी नही.
कभी पंजाब की धरती क्रांति औरक्रांतिकारियों को पैदा करती थी लेकिन आज हालात क्या है.रोजाना इस बीमारी की चपेट में आकर लोग मरते हैं लेकिन पंजाब का आवाम पूंजीवाद के नशे में चूर है. बहुतो को कोकीन का नशा मार गया तो बहुतो को फ्री इंटरनेट, फैसन, शॉपिंगमार गया.
क्योकि पूंजीवाद ने आपकी नशों में बड़े शातिराना तरीके से अपने नशे को पहुंचा दिया है.
पिछले 20 साल में 3 लाख किसान आत्महत्या कर गए जिसका हम जब जगह जिक्र करते है. लेकिन पिछले 20 साल में कैंसर से भी लाखों लोग मर गए. कोई सर्वे नही, कोई जिक्र नही, कोई लड़ाई नही.
कुछ सालों में कैंसर के मरीजों को नजदीक से देखा है. कैंसर के कारण होने वाला असहनीय दर्द, गरीबपरिवार की रुपयों के अभाव में बेबसी, कैसे धीरे-धीरे घर से इंसान भी जाता है और जमीन, रुपया, गहने सब कुछ चला जाता है. ईमानदारी से सरकार कैंसर से मरने वालों का सर्वे करवाये तो एक बहुत बड़ी भयानक सच्चाई सामने आ सकती है.
बहुत पहले कहानियों में सुनते थे कि फ़ैलाने इलाके में एक जिन्न आ गया. जो गांव से दूर जंगल या पहाड़ में रहता है वो इलाके वालों से हर रोज एक इंसान को खाने के लिए लेता है. उसके साथ मे भेड़, बकरी, गाय, फल बहुत से सामान भी साथ मे लेता है. फिर एक दिन उस गांव में एक इंसान आता है और उस जिन्न को मार कर वहाँ के इंसानों को बचाता है.
ये कहानी बहुत सुनी है, फिल्मो में भी है, महाभारत मेऐसी कहानी का जिक्र मिलता है. लेकिन उस जिन्न को किसने पैदा कियाये उन कहानियों में नही है.
लेकिन जो ये कैंसर का जिन्न है जो हर रोज बहुत से इंसानों की बलि ले रहा है साथ मे उसकी भेड़, बकरी, गाय, भैंस, जमीन, गहनों को भी खा रहा है. इसको किसने पैदा किया ये जरूर मालूम है. पूंजीपति की पूंजी कमाने की हवस ने इस जिन्न को पैदा किया है. इस हवस पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी हमने जिनको सौंपी नेता, पोलिस, नोकरशाह, मीडिया, कानून वो सब इस लूट के हिस्सेदार बन बैठे है.
कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र से लड़ने के तरीकों पर चर्चा चल रही थी की इस कैंसर वाले मसले पर कैसे लड़ा जाए. क्योंकि ये मामला बहुत बड़ा है. 1 गांव या 10 गांव मिलकर भी इस लड़ाई को जीत नही सकते. मेरा दोस्त भी उन्ही गांव से था जिस गांव में प्रत्येक घर से ये बीमारी बलि ले चुकि है. वो साथी इस मुद्दे पर लड़ भी रहे है. इस फ़िल्म ने लड़ने का तरीका बता दिया. लड़ाई का एक ही तरीका है. वो है शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह का रास्ता”बहरो को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है.”
मदारी फ़िल्म के बाद इरादा एक बेहतरीन फ़िल्म है जो समस्या को उठाती है. पूंजीपति-पोलिस-मीडिया-राजनीति के लूट के लिए बने नापाक गठबंधन को बेबाक तरीके से दिखाती है. व इसके साथ मे समस्या के समाधान के लिए क्रांतिकारी रास्ता दिखाती फ़िल्म है.
फ़िल्म में भटिंडा से बीकानेर के बीच एक पैसेंजर ट्रेन जिसमे 60% से ज्यादा कैंसर के मरीज आते और जाते है. इस ट्रेन का चित्रण रोंगटे खड़े करने वाला है. भारत की ट्रेनों में अक्सर नमकीन, छोले, पॉपकार्न, मूंगफली, पापड़ बेचने वाले मिलते है. लेकिन इस ट्रेन में खून बेचने वाले,इंशोरेंस बेचने वाले, कीमोथेरेपी का पैकेज बेचने वाले मिलते है जिसको फ़िल्म में बहुत ही अच्छे तरीके से दिखाया है. खून बेचने वाला आवाज लगा रहा है कि 2 के साथ 1 फ्री, आज का रेट 150-150
फ़िल्म ने रक्तदान कैम्पो पर भी सवाल उठाया है.
फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह की दमदार आवाज में दुष्यन्त की ये लाइने लाजवाब है-
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही, मेरा मकसद नही, मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए.
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए.
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए.
– दुष्यन्त कुमार
“समुंद्र के किनारे मकान हो तो,
तूफान से होशियार रहना चाहिये.”
दमदार और असरदार डायलोक भी फ़िल्म की कहानी को बेहतरीन बनाते है –
“चूहे मारने वाली दवाई से आप बच जाओगे, लेकिन यहाँ के पानी से कभी नही बच पाओगे”
“लाशें दलदल में धँसती हुई.”
“कैमिकल के कारण यहाँ का पानी, यहाँ की मिट्टी, यहाँकि फसलों में जहर घुला है.”
“यहाँ का पानी ही नही खून भी लुटेरे पूंजीपति की जागीर है.”
“ये शहर जितना जमीन के ऊपर है उतना ही जमीन के नीचे है.”
“घुन ही गेंहू को मिटा सकता है.”
लेकिन पत्रकार जो अपनी सच्चाई के कारण मौत के मुआने पर खड़ा है. वो पूंजीपति को कहता है-
पत्रकार – तुम्हे लगता है तुम सच को दबा दोगे, कोई ना कोई सच को जरूर सामने लाएगा
सच छुपेगा नही. सच छुपेगा नही.
हमको भी लगता है कि आने वाले समय मे लोग लड़ेंगे मजबूती सेऔर इस लुटेरी कौम का सर्वनाश कर देंगे.
“जलते घर को देखने वालों
फुस का छपर आपका है.
आग के पीछे तेज हवा
आगे मुकद्दर आपका है.
उसके कत्ल पर मै भी चुप था.
मेरी बारी अब आयी.
मेरे कत्ल पर आप भी चुप हो.
अगला नम्बर आपका है.”
लेखक :- उदय छे
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।