नई दिल्ली। भारत में आखिरी जनगणना 2011 में हुई थी. 2021 में देश में अगली जनगणना होनी है. इस संबंध में पिछले महीने की केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में बैठक हुई थी. इसमें 2021 की जनगणना के बारे में तमाम बातें तय हुई. जनगणना को लेकर हुई इस बैठक के बाद इसमें जाति को शामिल किए जाने को लेकर बहस शुरू हो गई है.
असल में 1872 से लेकर 1931 तक जनगणना में जाति गिनी गई. 1941 में भी जाति गिनी गई, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के कारण इसके आंकड़े सामने नहीं आ पाएं. आज़ादी के बाद सरकार ने तय किया कि जनगणना में अब जाति नहीं गिनी जाएगी. और इस तरह 1951 से लेकर 2011 तक की जनगणना में जाति नहीं गिनी गई. 1872 के बाद से हर जनगणना में धर्म और भाषा के बारे में सवाल पूछे गए, लेकिन आजादी के बाद से जाति का सवाल पूछना बंद हो गया.
लेकिन पिछले दो दशक में दलित और पिछड़े वर्ग में आई राजनैतिक जागरूकता के बाद जाति जनगणना का सवाल उठने लगा. इस मामले में संसद तक में बहस हुई जिसमें पिछड़े वर्ग के शरद यादव और गोपीनाथ मुंडे ने इस मामले को जोर शोर से उठाया. खासकर पिछड़े वर्ग के लोग अपनी जाति की संख्या जानने के लिए जातिगत जनगणना की मांग करने लगे. जाति जनगणना के पक्षधर वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने भी बीबीसी में एक आलेख लिखकर इस मामले को उठाया है.
वैसे तो इन जानकारियों के लिए सर्वेक्षण भी होते रहते हैं और इसके लिए भारत सरकार का नेशलन सैंपल सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) भी है. लेकिन सर्वेक्षण में आबादी के एक छोटे हिस्से से जानकारियां ली जाती हैं. तमाम आंदोलन के बावजूद जातिगत जनगणना को लेकर सत्ता वर्ग उदासीन रहा है. सवर्ण समाज जो कि आजादी के बाद से ही देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज है, वह जाति जनगणना से डरता आया है. जाति जनगणना के पक्षधर लोगों का आरोप है कि सवर्ण समाज यह सोच कर डरता है कि इससे उनकी मामूली संख्या उजागर होगी औऱ दलितों औऱ पिछड़े वर्ग की जातियां जिनकी संख्या ज्यादा है उन्हें अपनी ताकत का अहसास होगा. फिलहाल देखना है कि इस बार की जनगणना में सरकार जाति का सवाल शामिल करती है या नहीं.
राज कुमार साल 2020 से मीडिया में सक्रिय हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं।