
दलितों के अधिकारों की लड़ाई सिर्फ भारत में ही नहीं चल रही है, सात समुंदर पार ब्रिटेन में रह रहे दलित भी वहां फैले छुआछूत और जातिवाद के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं. दरअसल ब्रिटेन में दक्षिण एशियाई मूल के करीब 30 लाख लोग रहते हैं. ब्रिटेन की एजेंसियों का अनुमान है कि इनमें से 50,000 से 2 लाख के बीच आबादी दलितों की है. भारत की तरह ब्रिटेन में दलित उत्पीड़न रोकने के लिए कोई कानून नहीं है. हालांकि वहां नस्लीय उत्पीड़न रोकने के लिए समानता कानून है.
भारतीय मूल के दलितों का दावा है कि अगर अश्वेत व्यक्ति नस्लीय भेदभाव का शिकार होता है, तो वह इस कानून के तहत मामला दर्ज कराकर न्याय की गुहार लगा सकता है, लेकिन किसी दक्षिण एशियाई मूल के व्यक्ति को जातिसूचक शब्द या छुआछूत का शिकार होना पड़ता है तो न्याय पाना तो दूर वह अधिकारियों को यह समझा भी नहीं पाता है कि वह नस्लीय भेदभाव जितने ही खतरनाक जातीय भेदभाव या छुआछूत का शिकार हो रहा है.
पिछले कई दशक से ब्रिटेन के दलित मांग उठा रहे हैं कि भारत की तरह इंग्लैंड में भी उन्हें जात-पांत का शिकार होना पड़ रहा है. ब्रिटेन में लंबे समय से जातिवाद को कानूनी अपराध घोषित करने की लड़ाई लड़ रहीं पूर्व अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष दास के मुताबिक, ‘पहले तो कोई मानता ही नहीं था कि ब्रिटेन में दलितों के साथ भेदभाव हो रहा है. और यह भेदभाव और कोई नहीं बल्कि ब्रिटेन में रह रहे भारतीय मूल के अगड़ी जातियों के लोग ही कर रहे हैं.’ ब्रिटेन में छुआछूत की रिपोर्ट तैयार करने का काम दिसंबर 2010 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक एंड सोशल रिसर्च को सौंपा गया. संस्थान की ओर से हिलेरी मेटकॉफ और हीथर रोल्फ ने कास्ट डिसक्रिमनेशन एंड हैरासमेंट इन ग्रेट ब्रिटेन नाम की अपनी 114 पन्ने की रिपोर्ट 28 जुलाई 2011 को सौंप दी. रिपोर्ट में जो कहा गया वह चौंकाने वाला था.
रिपोर्ट में ब्रिटेन में रह रहे दलित समुदाय के लोगों और वहां काम कर रहे दो दर्जन से ज्यादा दलित संगठनों से बातचीत की गई. स्कूलों में किए गए अध्ययनों में पता चला कि भारतीय मूल के सवर्ण छात्र अपने सहपाठी दलित छात्रों को जातिसूचक शब्दों से जलील करते हैं. कुछ ऐसे मामले भी सामने आए जहां पहले तो छात्रों के बीच दोस्ताना था, लेकिन एक-दूसरे की जाति पता चलने के बाद उनका व्यवहार बदल गया. कई मामलों में जातिगत भेदभाव के कारण छात्रों ने स्कूल ही छोड़ दिया. एक मामले में तो एक छात्रा ने स्कूल आना ही छोड़ दिया और घर रहकर इयरफोन से क्लास अटेंड की.
कई मामलों में दलितों को अलग बैठकर खाना खाना पड़ता है, क्योंकि सवर्ण उनके साथ बैठना पसंद नहीं करते. ज्यादातर मामलों में पीड़ित अपने गोरे अफसरों को समझा ही नहीं पाए कि आखिर उनके साथ हो क्या रहा है. सबसे विचित्र मामला तो टैक्सी चलाने वाले एक दलित कारोबारी के साथ सामने आया. उसकी कंपनी में ज्यादातर सवर्ण टैक्सी ड्राइवर काम करते थे. ये आपसी बातचीत में जातिसूचक शब्द और जातिवादी भावनाओं का इजहार करते रहते थे. जब कारोबारी ने उन्हें ऐसा करने से रोका, तो उन्होंने कहा कि इसमें क्या हर्ज है. तब कारोबारी ने बताया कि वह दलित है और जातिसूचक शब्दों से उसे अपमान महसूस होता है. कारोबारी के दलित होने की बात पता चलने पर पांच ड्राइवरों ने यह कहते हुए नौकरी छोड़ दी कि वे नीची जाति के व्यक्ति के यहां नौकरी नहीं करेंगे.
इन हालात पर द फेडरेशन ऑफ अंबेडकर एंड बुद्धिस्ट ऑर्गनाइजेशन्स यूके के अरुण कुमार कहते हैं, ‘यह रिपोर्ट ब्रिटेन के लोगों के लिए नई चीज थी. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि ब्रिटेन में इस कदर छुआछूत फैली हुई है. हालांकि मेरे जैसे लोग 40 साल से यह बात सरकार को समझाने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन साधन संपन्न हिंदुओं की लॉबी इसे दबाए हुए थी.’
इसके बाद यह तय किया गया कि ब्रिटेन के समानता अधिनियम 2010 में एक उपबंध जोड़कर ब्रिटेन में नस्ल की तरह जातिवादी भेदभाव को भी अपराध माना जाएगा. 2013 में ब्रिटिश सरकार ने कानून में संशोधन की घोषणा कर दी. लेकिन मई 2016 में अपने वादे से पलटते हुए प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने इस विषय पर सर्वेक्षण कराने की बात कही. ब्रिटेन में बड़ी संख्या में रह रहे गैर-दलित दक्षिण एशियाई समुदाय ने अपनी दलील रखी कि 21वीं सदी के ब्रिटेन में जातिवाद की बात करना बकवास है. उन्होंने इसे हिंदू धर्म को अपमानित करने की साजिश बताया.
इस मामले में लगातार संघर्ष कर रहे ब्रिटेन के दलित एक्टिविस्ट अरुण कुमार ने कहा- ब्रिटेन में रह रहे दक्षिण एशियायी समुदाय में अगड़ी जातियों का वर्चस्व देखते हुए थेरेसा मे अपने फैसले से पलट गईं. लेकिन दलितों के लगातार विरोध प्रदर्शन के बाद उन्होंने अगस्त 2017 में एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण शुरू कराया, जिसमें ऑनलाइन मत देकर लोगों को बताना था कि ब्रिटेन में जातिवाद है या नहीं. सितंबर 2018 में यह सर्वेक्षण पूरा हो गया. फिलहाल इसका नतीजा सार्वजनिक नहीं किया गया है. लेकिन इस बीच ब्रिटेन के हिंदू समुदाय ने अपना विरोध बढ़ा दिया. उन्होंने ऐसी दलील दी जिसे समझना जातिवाद से भलीभांति वाकिफ भारतीयों तक के लिए कठिन है. जिस तरह सदियों से भारत में दलित अधिकारों की लड़ाई जारी है और अब तक अपने मकाम पर नहीं पहुंची है, उसी तरह ब्रिटेन में भी यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी.
– पीयूष बबेले
साभार जी न्यूज. इंडिया. कॉम
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