14वीं लोकसभा के चुनाव में देश में लंबे-लंबे वादों से बनी मोदी सरकार तीन साल बाद भी जनता के अहम सवालों की जवाबदेही से कतरा रही है. मीडिया को अपने कंट्रोल में लेकर महत्वपूर्ण मुद्दों को दफनाया जा रहा है.
आज देश के कुछेक ईमानदार पत्रकार भी इस मुददे को उठाने से कतरा रहें है. कारण साफ है या तो उनकी हत्या कर दी जाती है या उनकी पैसों के दम पर क़लम ख़रीद ली जाती है. जिससे न चाहते हुए भी वो पंगु बन जाते है. आख़िर सत्ता का पावर कुछ ऐसा ही होता है.
आप किसी भी शहर के न्यूज़ पेपरों को उठा लीजिये रोजाना की तरह सरकार की भक्ति करते हुए दिखाई देंगे और न्यूज़ चैनलों का और भी बुरा हाल है, लगता है हम किसी लोकतांत्रिक देश में हैं ही नहीं. न्यूज़ चैनलों के हेडलाईनें सरकार की मंशा के अनुरूप लिखी जा रही है. ठीक इन्हीं कारणों से देश के महत्वपूर्ण मुद्दे जानबूझकर दफनाये जा रहे है. कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे देश के विपक्ष को सांप सूंघ गया हो.
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व महिला सुरक्षा पर लिखना या बोलना अपनी जान जोखिम में डालने जैसा हो गया है. 14वीं लोकसभा के लिए चुनी गई सरकर अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए पूर्व की सरकारों का जोरदार विरोध करती रहती है. क्या सरकार के इन विरोधों के कारण देश के महत्वपूर्ण मुद्दे सुलझ जाएंगे?
बिल्कुल नहीं? जाति व धर्म की आड़ में आप जनता को बरगलाने का काम ही कर सकते है. आज सबका-साथ, सबका-विकास का नारा पूरी तरह झूठा साबित हो रहा है. सरकर के नुमाइंदे इस बात को भली भांति जानते है इसलिए देश को फ़र्जी राष्ट्रवाद की ओर ले जा रहे है. सरकार के इस रवैये से देश के दलित, आदिवासी, ओबीसी व अल्पसंख्यक समुदाय अपने आपको कमजोर समझ रहा है.
आज देश में बेरोजगारी अपने पूरे चरम पर है, रोजगार मिलना काफ़ी मुश्किल हो गया है. प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाएं बहुजन समाज के दायरे से बहुत ऊपर निकल गयीं है और सरकारी अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरफ चरमराई हुईं हैं. वहीं शिक्षा का व्यापारीकरण करके दलितों, आदिवासियों, ओबीसी व अल्पसंख्यक समुदाय को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है.
देश के सरकारी स्कूलों में सबसे ज्यादा बहुजन समाज के बच्चें पढ़ते है जिसे मिड डे मील के चक्कर में अपंग बनाया जा रहा है. जो सरकार की बहुजन समुदाय को शिक्षा से वंचित रखने की बहुत बड़ी सोची समझी रणनीति का हिस्सा मात्र है. वहीं दूसरी ओर कॉलेज व यूनिवर्सिटी में भी शिक्षा का भगवाकरण तो किया ही जा रहा है, वहीं पाठ्यक्रम भी बदले जा रहें हैं ये भी किसी आपातकाल से कम नहीं है.
ग़रीबी, महिला सुरक्षा, अपराध, कानून व्यवस्था के बारे में तो आज कोई अखबार लिखना ही नहीं चाहता है, टीवी चैनलों पर सिर्फ एक विशेष धर्म को चमकाने का लाइव टेलीकास्ट किया जा रहा है. जो भारत जैसे धर्म निरपेक्ष गणराज्य में रह रहे बहुजन समाज के बहुत बड़े हिस्से के साथ धोखा है.
देखिए, बहुजन समाज का एक छोटा सा हिस्सा होने के नाते हमनें तो अपना दृष्टिकोण आप सबसे शेयर कर दिया. अब आप सब अपने नजरिये से अच्छे-बुरे का अंदाजा लगते रहिये और प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से बहुजन समाज को हर तरह से मजबूत करने की सांझा जिम्मेदारी उठाइये…
यह लेख अशोक बौद्ध ने लिखा है. अशोक बौद्ध एक समाजिक कार्यकर्ता हैं.
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।