2020 खत्म होने के साथ ही 21वीं सदी के दो दशक बीत गए हैं। ऐसे में हमें थोड़ा ठहर कर अपने समाज एवं आंदोलन की दशा और दिशा पर विचार करना चाहिए। हमें सोचना चाहिए की हमारा समाज और आंदोलन कहाँ तक पहुंचा है और हमारे समाज ने क्या खोया और क्या पाया है? ताकि हम 2021 में अपनी ताकत को सकारात्मक दिशा में लगा कर अपने समाज और आंदोलन को और भी मजबूत कर सकें ताकि कोई अन्य हमारा प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए न कर सके।
दलितों की आर्थिक दशा
अगर हम दलितों में गरीबी की पड़ताल करें तो हम पाएंगे की 2004-2005 में भारत के सामजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति के 27.7 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। कुछ राज्यों के ग्रामीण अंचल में दलितों की हालत और भी बदतर है जैसे- बिहार में 64, झारखण्ड में 57, उत्तराखंड में 54, उड़ीसा में 50 और उत्तर प्रदेश में 44 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। NSSO के 2011 के आकड़े के अनुसार कर्नाटक जैसे विकसित राज्य में स्व-रोजगार पर आश्रित अनुसूचित जाति के परिवारों में 37.4 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और अनुसूचित जनजाति में यह प्रतिशत 19.5 प्रतिशत नियमित रूप से वेतनभोगी लोगों के बीच है। अनुसूचित जाति में 15.7 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति में 8.1 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। नेशनल सैंपल सर्वे के 73वें राउंड के अनुसार भारत में कुल 633.88 लाख सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमी हैं। इनमें से सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2019-2020 (पृष्ठ- 23) के अनुसार इनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की भागीदारी शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 9.45 एवं 1.43 प्रतिशत ही है जो कि उनकी जनसंख्या के अनुपात में बहुत ही कम है।
दलितों की आवासीय स्थिति
अगर हम इस बात का आंकलन करें कि आज दलित समाज के बहुसंख्यक लोग कहां पर रह रहे हैं, तो हम पाएंगे कि आज भी लगभग 70% दलित समाज ग्रामीण अंचल में रहता है और किसी-किसी प्रदेश में तो यह प्रतिशत इससे भी ज्यादा है। कुछ प्रमुख राज्यों पर नजर डालें तो हिमाचल में 90, बिहार में 89, असम में 86, उड़ीसा में 83, मेघालय में 80, उत्तर प्रदेश में 78 और छत्तीसगढ़ में 77 प्रतिशत लोग आज भी गांवों में रहते हैं। दलित समाज में आज भी 71% लोग भूमिहीन किसान हैं जो मजदूरी करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर लगभग 11 लाख अनुसूचित जाति परिवार मलिन बस्तियों में रहते हैं। यह भी कहा जाता है कि अनुसूचित जाति की कुल 10 प्रतिशत आबादी स्लम में रहती है। भारत के अनेक शहरों में यह देखा गया है कि आज भी दलितों को किराये पर घर नहीं दिया जाता है।
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दलितों की उच्च-शिक्षा में स्थिति
आज भी अखिल भारतीय स्तर पर दलितों में 27 प्रतिशत लोग साक्षर नहीं हैं। ग्रामीण अंचल में यह बढ़ कर लगभग 33 प्रतिशत हो जाता है। अगर हम उच्च शिक्षा को देखें तो हम पाएंगे कि अनुसूचित जाति के केवल 13.4 और जनजाति के 4 प्रतिशत छात्र/छात्राएं ही उच्च शिक्षा में अब तक पहुंच पाए हैं। दूसरी ओर 46 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और एक ओपन केंद्रीय विश्वविद्यालय में केवल एक कुलपति अनुसूचित जनजाति (एसटी) से संबंधित है। मध्य प्रदेश में 19 विश्वविद्यालयों में से एक भी अनुसूचित जाति (SC) का कुलपति नहीं है और उत्तर प्रदेश में 25 राज्य विश्वविद्यालयों में SC वर्ग से कोई नहीं है। ये उदाहरण इस तथ्य समझने के लिए पर्याप्त हैं कि ये विश्वविद्यालय समावेशी नहीं हैं। सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने खुलासा किया कि 2009-10 तक 1,688 स्वीकृत प्रोफेसरों और 3,298 एसोसिएट प्रोफेसर पदों में से केवल 24 प्रोफेसर और 90 एसोसिएट प्रोफेसर ही एससी श्रेणी से थे। 24 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से एकत्र किये गए इन आकड़ों को प्रतिशत के लिहाज से देखे तो, यह क्रमशः 2.73 प्रतिशत और 4.4 प्रतिशत है। याद रहे एससी के लिए संवैधानिक रूप से केंद्र की नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है।
इसी कड़ी में एक अन्य तथ्य जो भारत की उच्च शिक्षा में दलितों के प्रतिनिधित्व की पोल खोलती है वह है दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध 80 कॉलेजों में प्रधानाचार्यों की नियुक्ति। इन 80 प्रधानाचार्यों में एक भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति का नहीं है। 21 नवंबर, 2019 के ‘दि हिन्दू’ अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार मानव संसाधन मंत्री ने राज्यसभा को यह अवगत कराया कि भारत के 20 आईआईएम (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट) में केवल 11 शिक्षक अनुसूचित जाति /जन जाति के हैं। 20 में से 11 संस्थानों, जिनमें आईआईएम अहमदाबाद और आईआईएम कोलकत्ता भी शामिल है, में भी अनुसूचित जाति /जनजाति का शिक्षक नहीं नियुक्त किया गया है, जबकि संवैधानिक आधार पर उनको क्रमशः 15 एवं 75 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। अतः उपरोक्त आकड़ों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थान 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक तक भी समावेशी नहीं हैं और इसलिए लोकतांत्रिक भी नहीं हैं।
दलितों के साथ अस्पृश्यता और उन पर अपराध
नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकनोमिक रिसर्च (National Council of Applied Economic Research: NCAER) और अमरीका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैरीलैंड द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर 42,000 परिवारों के अध्ययन के आधार पर ये निष्कर्ष निकला कि भारत में अभी भी व्यापक स्तर पर छूआछूत प्रचलित है। विशेष कर हिंदी भाषा भाषी प्रदेशों में जिसमें सबसे अधिक अस्पृश्यता का व्यवहार होता है, वो प्रदेश मध्य प्रदेश (53 %), हिमाचल प्रदेश (50 %) राजस्थान एवं बिहार (47 %) तथा उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत है।
जहां तक दलितों पर सवर्णों द्वारा अत्याचार का मामला है, उस संदर्भ में ‘नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो रिपोर्ट’, 2019, वॉल्यूम 2, पेज 509, पर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार दलितों पर 2017 में 43203, 2018 में 42793 और 2019 में 45935 अपराध हुए हैं। अर्थात एक दिन में लगभग 125 अपराध। इसी रिपोर्ट के पेज 513 के अनुसार केवल वर्ष 2019 में दलित महिलाओं और बच्चियों के साथ कुल 3471 अपराध हुए हैं। अर्थात एक दिन में लगभग 10 बलात्कार की घटनाएं। इसी कड़ी में भारत में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की 2018 (वॉल्यूम 2, चैप्टर 7, पेज नं. 510) के अनुसार 2018 में 821 दलितों की हत्याएं हुई अर्थात लगभग 2-3 दलितों की हत्याएं रोज। यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि ये वो अपराध के आंकड़े हैं जो पुलिस में दर्ज हुए। कल्पना कीजिए कितने दलित डर के मारे रिपोर्ट लिखाते ही नहीं है, या बहुतों की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती। इन्हें मिला लें तो इन अपराधों की संख्या कहीं ज्यादा होगी।
कहाँ है अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष?
ऐसे में सबसे अधिक दुखद बात तो यह है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति दोनों ही आयोग के अध्यक्षों के पद खाली पड़े हैं। यह इस ओर भी इशारा करता है कि सरकार दलितों के कल्याण एवं उत्थान के लिए कितनी अगंभीर है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338 के अंतर्गत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग ही है जिसका मुख्य काम यह देखना है कि इन समूहों को संविधान में दिए गये अधिकार विधिवत लागू हो रहे हैं या नहीं। आयोगों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण काम यह होता है कि वो हर वर्ष अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षणिक अवस्था तथा उन पर हिंसा आदि की रिपोर्ट तैयार कर राष्ट्रपति को सौपते हैं और बाद में राष्ट्रपति फिर उन रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखते हैं। इन रिपोर्टों पर संसद के दोनों सदनों में बहस होती है और फिर उस पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट तैयार कर सदन को सूचित किया जाता है कि इन समाजों की वास्तविक अवस्था क्या है। इस तरह संविधान के निर्माताओं में दलितों के मानव अधिकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की थी परन्तु आज कल यह सब ताक पर रख दिया गया है।
दलित/ बहुजन आंदोलन: इतिहास और वर्तमान
दलितों की उपरोक्त सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए वर्तमान समय में दलितों ने कम से कम 9 प्रकार के आंदोलन या संगठन स्थापित किए हैं और वे लगातार अपने संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। यह 9 प्रकार के आंदोलन हैं- सामाजिक, राजनीतिक, कर्मचारी तंत्र, साहित्यिक, दलित महिला आंदोलन, दलित स्वयंसेवी संगठन का आंदोलन, दलित युवाओं का आंदोलन, दलित मीडिया का आंदोलन और विश्व के अनेकों राष्ट्रों में रह रहे अप्रवासी दलित भारतीयों का आंदोलन। इन आंदोलनों एवं संगठनों के माध्यम से दलित समाज ने उपरोक्त संस्थाओं में अपनी सदस्यता स्थापित करने एवं अपने अधिकारों को लेने की कोशिश की है। (इन आंदोलनों की पूरी जानकारी के लिए देखें दलित दस्तक अंक- जनवरी 2015, वर्ग 3 अंक 8; या फिर देखें दलित एजेंडा 2050- दास पब्लिकेशन, 2015)। यहां यह बताना भी समीचीन होगा कि वर्तमान आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है और वर्तमान आंदोलन उसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में उन्हीं आंदोलनों को आगे बढ़ा रहे हैं। अतः चंद शब्द उन आंदोलनों की ऐतिहासिकता जानने के लिए यहां जरूरी है। 50 बहुजन नायक खरीदें
अगर हम यह मान लें कि ज्योतिबा फुले ने अपना आंदोलन 1848 में आरंभ किया था तो आज 2021 में बहुजन समाज का उनका आंदोलन 173 वर्ष पुराना हो जाएगा। इस पड़ाव में आंदोलन को नवीन ऊंचाई देने के लिए नारायणा गुरु, साहू जी महाराज, ई.वी रामास्वामी नायकर (पेरियार), बाबासाहब आंबेडकर, स्वामी अछूतानंद, मंगू राम, भाग्यरेड्डी वर्मा, आदि अनेक दलित/ बहुजन नायकों ने अपना सर्वस्व निछावर कर इस आंदोलन की सेवा की। आधुनिक भारत में बाबासाहब ने अपने- सामजिक, राजनैतिक, संवैधानिक, धार्मिक एवं शैक्षिणक आंदोलनों से दलितों के आंदोलन को नयी दिशा एवं नए तरीके दिए जो आज भी उतने कारगर हैं जितने उस समय थे। 6 दिसंबर 1956 को उनके महापरिनिर्वाण के बाद 1972 तक आर पी आई एवं दलित पैंथर ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया जिसकी छवि उत्तर प्रदेश में भी दिखाई पड़ी। परंतु शीघ्र ही अपने शीर्ष नेतृत्व की अंतरकलह के कारण एवं लीडरों के अहम की लड़ाई (मैं बड़ा मै बड़ा) के कारण दोनों ही आंदोलन छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए। वैसे उस दौरान (1971 में) दलित बहुजन आंदोलन को तोड़ने और उसके लीडरों को अपने दल में शामिल कर खत्म करने में कांग्रेस का बहुत बड़ा योगदान रहा है। और ऐसे लगने लगा कि जैसे दलित और बहुजन आंदोलन खत्म ही हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस ने बी पी मौर्य और आर.पी.आई के एजेंडे को ही आत्मसात कर उत्तर प्रदेश ही नहीं पुरे देश में दलित आंदोलन को ही नेस्तनाबूत कर उसकी नींव को ही ख़त्म करने का प्रयास किया।
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ऐसे अंधकार पूर्ण समय में मान्यवर कांशीराम के आंदोलन का उदय हुआ। सन 1971 में पहली बार बामसेफ की नींव डालकर 1973 में इसको और मजबूती प्रदान की और बाद में 1978 में दिल्ली में इस कर्मचारी आंदोलन ‘बामसेफ’ को अखिल भारतीय स्वरूप दिया। 1981 में उन्होंने अपने आंदोलन को और विस्तार देने के लिए डी एस-4 बनाई और 1984 में बहुजन समाज पार्टी को बनाकर अपने पूर्वजों के आंदोलन को आगे बढ़ाया। उत्तर प्रदेश जैसे भारत के सबसे बड़े प्रान्त में पांच-पांच बार सरकार बनाई और इसमें चार बार (1995, 1997, 2001, 2007) एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाया। इस आंदोलन ने उत्तर प्रदेश में ही नहीं अखिल भारतीय स्तर पर बहुजनों का सशक्तिकरण किया और राज्य में सवर्णो की सत्ता को भी चुनौती दी। इस आंदोलन ने दलितों के प्रतीकों को पुनः स्थापित किया और सामाजिक न्याय की नींव को और मजबूत किया। साथ ही साथ दलितों और अत्यंत पिछड़ी जातियों में भी सत्ता की ललक पैदा की।
भविष्य के आंदोलन की तैयारी
परन्तु 34 वर्ष पहले बनी बहुजन समाज पार्टी पिछले 12 वर्षों से सत्ता से बाहर है। इस बीच 2021 तक आते-आते राष्ट्र और राज्य की राजनीति में अमूल चूल परिवर्तन हो चुका है। राष्ट्र राजनीति में गोदी मीडिया और चंद कारपोरेट घरानो को ऐसी भूमिका में पहले कभी देश में नहीं देखा गया। साथ ही साथ इन 34 वर्षों में बहुजन समाज की एक नयी पीढ़ी, जिसने बहुजन समाज पार्टी की सरकार में सत्ता का स्वाद चखा था, भी खड़ी हो गयी है। यह पीढ़ी पुनः सत्ता प्राप्त करने के लिए व्याकुल है। उसे नेतृत्व भी चाहिए। परन्तु जैसे सभी समाजों की युवा पीढ़ी को फास्ट फ़ूड के ज़माने में हर एक चीज तेजी से चाहिए उसी तरह बहुजन समाज की इस नयी पीढ़ी को भी फ़ास्ट फ़ूड की तरह ही सत्ता और नेतृत्व भी चाहिए।
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बहुजन आंदोलन के इतिहास का आंकलन करने से यह बात सामने निकल कर आई है कि अक्सर दलित/ बहुजन समाज के लोग अपने आपको और अपने द्वारा स्थापित किए गए संगठन को सबसे बड़ा क्रांतिकारी घोषित करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। वे इतिहास में अपने आंदोलन और नायकों के संघर्षों पर जितना गर्व या उनका जितना सम्मान करना चाहिए उतना गर्व या सम्मान नहीं करते। सब को ख़ारिज कर, सबको बेकार और नकारा बता कर अपने संगठन और अपने नेतृत्व को सबसे क्रांतिकारी बता कर आगे निकलना चाहते हैं। इतिहास साक्षी है कि कोई पीढ़ी तब तक कामयाब नहीं होती जब तक वह अपने पूर्वजों के त्याग, संघर्षो और उनकी सलताओं का पर्व/उत्सव नहीं मनाती। उसके गीत नहीं गाती।
आंदोलन फास्टफूड जैसा नहीं होता
आंदोलन फास्टफूड की मैगी या बर्गर नहीं है जिसे आर्डर किया और वह आ गया और आपने पेट भर लिया। आंदोलन त्याग-संघर्षों की एक लम्बी यात्रा है। यह यात्रा अपने आप को चमकाने या किसी स्थापित लीडर से तुलना करने के लिए नहीं होती। सफल आंदोलन ने लिए केवल मीडिया का सहारा नहीं लिया जाता, चाहे वह सोशल मीडिया हो या कॉर्पोरेट मीडिया। किसी अन्य दल या बिज़नेस घराने का सहारा लेकर भी बहुजन आंदोलन नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि सहारा लोगे तो इशारा भी लेना पड़ेगा। अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत आंदोलन तैयार करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत संगठन, न डिगने वाली विचारधारा, हर स्तर पर कैडर और उन कैडरों को तैयार करने के लिए एक दूरदर्शी पाठ्यक्रम, लगातार कैडर कैम्प का लगा कर कैडरों की विचारधारा को मांझना, संगठन के अल्पकालिक और दीर्घकालिक कार्यक्रम आदि कुछ ऐसे मूल मन्त्र हैं जिनसे एक सफल आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। आंदोलन खड़ा करने के लिए इतनी व्यापक तैयारी इसलिए क्योंकि हमारा प्रतिद्वंदी बहुत बड़ा है और उसकी पहुंच भी बहुत व्यापक है। उसके पास सभी प्रकार की संस्थाएं- राजनैतिक, संवैधानिक, शैक्षणिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि है और उन पर उसका कब्ज़ा है।
अतः अगर हमने पुनः जल्दबाजी में बिना लम्बी तैयारी के कोई नया आंदोलन आरंभ किया तो हम फिर धोखा खाएंगे। हमारे साथ जैसे पहले छल हुआ 2021 में भी छल होगा। और जब तक हमारी तयारी पूरी न हो जाए हमें वर्तमान के अपने आंदोलन को उपरोक्त कार्यक्रमों के माध्यम से कैसे मजबूत किया जाय इसकी योजना बनानी चाहिए।
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।