हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट के जजों द्वारा बनायी गयी 3-4 हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट के जजों की कमिटी का नाम ही कॉलेजियम है. शुरू में सोचा गया कि यह व्यवस्था ”मोहि ले चल” की बिमारी से भिन्न होगी. लेकिन इसने भी ऐसा करना शुरू किया कि लोग कहने लगे ”चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास”. कलक्टर ही कलक्टर की बहाली, एसपी ही एसपी की बहाली और जज ही जज की बहाली करने लगेगा तो सुनने में तो बड़ा अजूबा लगेगा ही और यह न्यायसंगत और संविधान सम्मत भी नहीं है. बाबासाहेब का लिखा हुआ संविधान है जिसमें हर समस्याओं का समाधान है तो फिर कॉलेजियम ही क्यों?
संविधान से ऊपर कोई नहीं. न्यायपालिका भी नहीं. जब से पिछड़ों को नौकरी में आरक्षण मिलने की व्यवस्था की गयी तब से जजों ने ही जजों की एक कॉलेजियम बनाकर हाई कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का काम प्रारम्भ कर दिया. भारत जैसे जाति प्रधान डैमोक्रेटिक देश में जजों की नियुक्ति के लिए मनमाने तौर से कॉलेजियम जैसी व्यवस्था देश के माथे पर कलंक का एक काला धब्बा है. डॉ. लोहिया कहते थे सभी डैमोक्रेटिक संस्थाओं में सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व होना सबके हित में है. संविधान के अनुच्छेद 312 में IAS , IPS और IFS की तरह ऑल इन्डिया ज्यूडिशियल सर्विस (AIJS) की स्थापना का उपबंध करने की भी बात कही गयी है और इसके लिए 1976 में संविधान का 42वां संशोधन भी किया गया है. लेकिन आज तक AIJS का गठन नहीं किया गया. यह अच्छी बात है कि 1 नवम्बर को प्रधानमंत्री ने हाईकोर्ट के 50 वर्ष पूरे होने पर विज्ञान भवन दिल्ली के स्वर्णजयंती समारोह में सिविल सेवा की तर्ज पर भारतीय न्यायिक सेवा शुरू करने पर विचार करने को कहा है. देखिये क्या होता है?
अन्य सेवाओं की तरह अगर इसका भी गठन हो जाए तो जजों का भी मेरिट के आधार पर चयन होने लगेगा और सभी वर्गों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिलने लगेगा जिससे हमारी ज्यूडिशियरी को भी विवाद रहित योग्य जज उपलबध होने लगेंगे. फिर कोई हमारी ज्यूडिशियरी की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर भी उंगली नहीं उठाएगा. जनमानस को भी ज्यूडिशियरी की पारदर्शिता दिखने लगेगी. लेकिन विगत 70 वर्षों से इस सम्बन्ध में सवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने जानबूझकर ऐसा नहीं किया और ना हीं होने दिया.
जहां तक मेरिट का सवाल है तो मेरिट किसी ख़ास वर्ग या जाति की जागीर नहीं. यह कहना और समझना विल्कुल बेईमानी है कि 85 प्रतिशत पिछड़ों में जज बनने की योग्यता नहीं है. अंग्रेज तो काफी योग्य थे. योग्यता ही सब कुछ है तो फिर अंग्रेजों को हटाने के लिये लाखों नागरिकों ने लहू क्यों बहाया? जबकि उनका किया गया कोई काम आज भी आपके काम से लाख गुना बेहतर है. आरक्षण का सम्बन्ध योग्यता से नहीं बल्कि शासन-प्रशासन में सभी वर्गों के समुचित प्रतिनिधित्व से है और अब यह मामला हिस्सेदारी का भी बन गया है.
अगर मेरिट केवल ऊंची जाति की जागीर होती तो दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत के किसी विश्वविद्यालय के नाम का नहीं होना, जबकि सभी विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत ऊंची जाति के लोग ही व्याख्याता के साथ-साथ कुलपति भी हैं, यह प्रमाणित करता है कि ये लोग योग्य नहीं हैं. अगर ये योग्य ही होते और सारे जगत की बुद्धि का भण्डार इन्हीं के पास होता तो बच्चों के खिलौनों एवं इनके देवी-देवताओं की मूर्तियों से लेकर सभी युद्धक हथियार तक विदेशों से आयात नहीं किये जाते और इसके लिये उनके चरणों में जाकर दांत नहीं निपोरने पड़ते. यही नहीं विश्वविद्यालयों में छात्रों-शिक्षकों को कानून की पुस्तकों सहित हर विषयों के अध्ययन-अध्यापन तक के लिए विदेशी पुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है. कहां चला गया इनका अपना ज्ञान? किसी विषय पर इनकी कोई पुस्तक नहीं जिसकी किसी एक पंक्ति को अपनी पुस्तकों में कोट करके दुनियावाले अपनी बात आगे बढ़ाते हों लेकिन ठीक इसके उलट ये लोग दुनियावालों को कोट किये वगैर कोई पुस्तक लिख ही नहीं सकते. मतलब किसी भी विषय पर इनकी कोई अपनी ओरिजीनालिटी नहीं है. न्यायपालिका में भी 95 प्रतिशत ऊंची जाति के ही योग्य जजों, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार को लेकर आये दिन न्यायपालिका की हो रही किरकिरी से हम शर्मसार होते रहे हैं. फिर भी ये गर्व से कहते हैं, ढूंढने पर भी इन SC /ST और OBC वर्ग में जज बनने के लायक कोई योग्य व्यक्ति मिलता ही नहीं है.
संवैधानिक पदों पर बैठे ये जब इतना भी नहीं समझते कि ये क्या कह रहे हैं तो हमें तरस आता है. इनके द्वारा बहिष्कृत बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को आज दुनिया पढ़ती और मानती है. विश्वविख्यात वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम को विदेशों में पढ़ा जा रहा है. रेल मैनेजमेंट पर लालूजी दुनिया में सराहे जाते हैं और इंग्लैण्ड के विश्वविद्यालयों में लेक्चर देने के लिये बुलाये जाते हैं, तो बहन मायावती को भारत में दलित समस्या और समाधान आदि विषयों पर लेक्चर के लिए बुलाया जाता है. कल “भारत में शराब मुक्त बिहार” विषय पर विदेशों के लोग आकर रिसर्च करेंगे. फिर भी इन्हें 85 प्रतिशत पिछड़ों में कोई जज बनने के लायक मिलता ही नहीं है. बिल्कुल गलत होते हुए भी अगर इनकी ही बात कुछ क्षण के लिए सही मान भी लें तो 60-70 वर्षों की आजादी के बाद भी देश की 85 प्रतिशत पिछड़ों को अयोग्य कहकर ये सम्राट अशोक के इस महान भारत देश का अपमान तो कर ही रहे हैं, इसके साथ ही अपनी योग्यता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं. क्योंकि आजादी के बाद हम 85 प्रतिशत अनपढ़, गंवार और अयोग्य पिछड़ों को योग्य बनाने की जिम्मेदारी भी तो बड़ी ही चालाकी से इन्होंने ही अपने माथे पर ले ली थी.
फिर भी इन्होंने 70 वर्षों के आजाद भारत में भी अपनी इस जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाया और स्वयं को भी अपने बल-बुते खड़ा होने के योग्य नहीं बना पाये कि विदेशों में जा-जाकर गिड़गिड़ाना ना पड़े. ये तो केवल मनुवादी व्यवस्था को ही मजबूत करने में उलझे रहे और आस्था और अंधविश्वास के मकड़जाल में 85 प्रतिशत पिछड़ों को फंसाये रखने की पूरी व्यवस्था कर डाली, जिससे करोड़ों इंसान भूमिहीन, गृहविहीन, बुद्धिहीन और कंगाल होता चला गया तो दूसरी तरफ इनके मंदिर-मठ मालामाल होते गए. समता, स्वतन्त्रता, भाईचारा और न्याय का युग समाप्त हो गया और हमारा भारत जो महात्मा बुद्ध के समय में दुनिया का विश्वगुरु कहलाता था. आज हर समस्याओं से जूझ रहा है और दुनियावालों की कतार में निचले पायदान पर भी झिलमिलाते हुए दिखता है. चीन और पाकिस्तान ये दोनों भी आंखे तरेर कर बातें करते हैं. रूस और अमेरिका भी अपने जंग लगे हथियारों की खपत के लिए भारत को अच्छा मार्केट समझकर हमारी पीठ थपथपाते रहते हैं और हम इसी में फुले नहीं समाते कि चलो ये हमसे हंस कर बोले और गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. ठीक उसी तरह जैसे किसी छात्र से गुरूजी नाम पुकार कर पानी वगैरह कुछ मांगते तो वह बालक अति प्रसन्न होता कि गुरूजी उसे ही अधिक जानते-मानते हैं.
लेकिन वर्ण और जाति के घेरे में बुरी तरह से जकड़े ये समझने को तैयार हीं नहीं कि जिस देश की 85-90 प्रतिशत आबादी लुल्ही, लंगड़ी, अज्ञानी और हर तरह से कुंठित रहेगी तो देश कभी भी दुनियावालों के सामने सीना तानकर खड़ा होने का साहस नहीं जुटा पायेगा. उसी तरह जब इस वर्ण और जाति प्रधान देश के न्यायालयों में भी सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दिखेगा तो सबको समुचित न्याय नहीं मिल पायेगा और समुचित न्याय के अभाव में समाज कुंठित और अपाहिज बना रहेगा. इसलिए जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और कॉलेजियम के बिच का द्वन्द किसी भी ख्याल से न उचित है न संविधान सम्मत है, बल्कि संविधान को ठेंगा दिखाने जैसा है.
कॉलेजियम व्यवस्था से न्यायालयों में भी भाई-भतीजावाद बढ़ा है. अयोग्य और जातिवादी लोग जज बन रहे हैं. भ्रष्टाचार भी बढ़ते जा रहा है जिससे देश और दुनिया में हमारी पवित्र न्याय व्यवस्था की भी किरकिरी होने लगी है. इसलिये जरुरत है संविधान के अनुच्छेद 312 के आलोक में AIJS का गठन कर जितना जल्दी हो सके जजों की नियुक्ति प्रारम्भ कर दी जाय ताकि हाई कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में भी योग्य जजों की नियुकि हो और सबको समुचित न्याय मिले तो दूसरी तरफ हमारी महान न्यायपालिका भी किरकिरी से बचे. इस काम में जितना विलम्ब हो रहा है और जिनकी वजह से हो रहा है वे लोग ही इस देश की महान जनता को न्याय देने में विलंब के दोषी हैं.
हमारी डेमोक्रेसी में हमारा पवित्र संविधान भी किसी भी व्यक्ति को चाहे वह कितना भी बड़ा विद्वान, बलवान, धनवान, जज, कलक्टर और मंत्री ही क्यों न हो, उसे राजशाही के राजा और उसके अधिकारियों की तरह अहम और अहंकार के साथ कुछ बोलने या कुछ करने की इजाजत नहीं देता. यह अशोभनीय है कि आज सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच विवाद इस कदर बढ़ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार के वकील से यहाँ तक कहना पड़ा कि अगर हालात ऐसे ही चलते रहे तो पांच सदस्यीय खंडपीठ का गठन कर कहा जाएगा कि सरकार को नया एमओपी (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसेस) बनाने के आधार पर न्यायिक नियुक्तियों को बाधित करने का अधिकार नहीं है. क्या आप ऐसा चाहते हैं? टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से नाराज होकर कहा ” You may now as well close court rooms down and lock justice out… We don”t want to clash with you. But if you go on like this, we will form a ”Five-Judge Bench” and say you are scuttling appointments .” यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि दोनों पक्ष या संस्थाएं अपनी संवैधानिक मार्यादाओं का ख्याल किये वगैर अपनी -अपनी जिद्द का ज्यादा ख्याल रख रही हैं. यहां जनता को न्याय देने की बात गौण दिखती हैं.
असल में हुआ यह है कि हाईकोर्ट में 86 नए जज, सुप्रीमकोर्ट में 04 जज और 14 हाईकोर्टों में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति एवं 4 मुख्य न्यायाधीशों और 33 हाईकोर्टों के जजों के तबादलों के मामलों को लेकर जो नाम सीजेआई की अध्यक्षतावाली कॉलेजियम द्वारा सरकार के पास भेजे गए थे. उसे सरकार करने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उनके चयन के सम्बन्ध में विगत वर्ष दिसंबर 2015 में जस्टिस जे एस खेहर की अध्यक्षतावाली पांच जजों की बेंच ने स्वीकार किया था. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिये चयन में जो प्रक्रिया CJI की अध्यक्षतावाली कॉलेजियम द्वारा अपनायी गयी थी उसमें बहुत सारी कमियां थीं. इसलिए जस्टिस खेहर की अध्यक्षतावाली बेंच ने सरकार को कॉलेजियम द्वारा हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नया एमओपी बनाने का निर्देश दिया था. निर्देश के आलोक में सरकार ने नया एमओपी बनाकर 07 अगस्त 2016 को ही कॉलेजियम को भेज दिया था. लेकिन कॉलेजियम द्वारा शायद ढाई माह के बाद भी इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया. क्यों? अगर यह बात सही है तो हम प्रबुद्ध जनों के लिए यह एक विचारणीय प्रश्न है. इसी बीच पांच जजों के संवैधानिक बेंच के निर्णय का उल्लंघन करते हुए सरकार द्वारा पुराने MOP के आधार पर ही 18 में 08 जजों के नामों की मंजूरी दे देने और 02 नामों को मंजूर करने पर विचार करने की भी बात प्रकाश में आई है. अगर यह भी सत्य है तो माना जाएगा कि सरकार ने ब्लंडर किया है. लेकिन क्यों अब आगे सरकार उस पुराने पैटर्न पर बहाली करना नहीं चाहती और क्यों 3 जजों की बेंच द्वारा औरों की तरह उसी गलत चयन प्रक्रिया के आधार पर कॉलेजियम द्वारा भेजे गए बाकी जजों के नामों को मंजूर करने पर जोर दिया जा रहा है? अगर ऐसा है तो यह तो और ब्लंडर है. सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच वर्तमान विवाद का यही कारण है. मेरी समझ से अगर मामले की तह में जाया जाय तो मिलेगा कि विवाद का मूल कारण कॉलेजियम द्वारा गलत प्रक्रिया के तहत तैयार कर सरकार को भेजी गयी सूची में से ही अपने-अपने मन मुताबिक जजों की नियुक्ति का है, जिसमें कुछ को सरकार ने कर लिया है और बाकी को सुप्रीम कोर्ट कराना चाहती है. लेकिन सचमुच में ऐसा हुआ है और आगे भी होनेवाला है, जो हाई लेवल जांच से ही पता चलेगा तो यह समाज और राष्ट्रहित के लिए घातक और निराशाजनक है.
विवाद के हल के लिए जरुरी है कि सबका साथ और सबके साथ न्याय के लिए AIJS का गठन कर ही जजों की बहाली की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाए और यदि इसमें कुछ बिलंब नजर आये तो एक समय सीमा तय की जाए तब तक के लिए संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 222 के तहत ही नियुक्ति और तबादला की कार्रवाई की जाए. क्योंकि कॉलेजियम से नियुक्ति जनता के लिए अन्यायपूर्ण, अहितकर और असंवैधानिक है.
लेखक वकील हैं. इनसे 9430574723 नंबर पर संपर्क किया जा सकता है.

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