Written By- लक्ष्मण यादव
इतना भी गुमान न कर आपनी जीत पर ऐ बेखबर, शहर में तेरी जीत से ज्यादा चर्चे तो मेरी हार के हैं।
आपकी (तेजस्वी यादव) हार की चर्चा फिज़ाओं में है। इस पर कई तरह की प्रतिक्रियाएँ भी आ रही हैं। चुनावी राजनीति को चुनावी पैंतरेबाजियों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हदों के आईने में ही देखना चाहिए। सच तो यह है कि उन हदों के बीच इस शख़्स ने प्रभावित किया। हर दौर में वर्चस्वशाली पूँजी व सामाजिक राजनीतिक वर्चस्व वाली ताक़तों से मुठभेड़ करने का रस्ता बहुत मुश्किल होता ही रहा है। यहां भी था। महागठबंधन के नेता के बतौर आपने अपनी भाषा, अपने नारों व अपनी शैली से चुनावी राजनीति के स्थापित व्याकरण को बदलकर रख दिया। मैं इसे एक शानदार शुरुआत के बतौर देख रहा हूँ। एक नेता की शुरुआत।
आप शानदार लड़े। जिन्हें चुनावी जंग के आगाज़ से पहले ही शिकस्त पाया हुआ मान लिया गया था, उन धारणाओं को आपने बदलकर रख दिया। यह आपके नेतृत्व में बने महागठबंधन ने कर दिखाया। क्योंकि इस चुनाव में एजेंडा महागठबंधन ने सेट किया। पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, कमाई, मंहगाई, सुनवाई, कार्यवाही। यह इस चुनाव की सबसे बड़ी जीत है कि यहाँ किसी भी नफ़रती एजेंडे पर चुनाव नहीं लड़ा गया। बावजूद इसके आप हार गए, या सच कहें तो सायास साज़िशन हरा दिए गए हैं। फिर भी इस लड़ाई ने चुनावी राजनीति को लेकर एक आत्मविश्वास तो पैदा कर ही दिया।
तेजस्वी जी, आप हारे ज़रूर हो लेकिन आपने ख़ुद को साबित किया है। बस एक सुझाव ज़रूर देना चाहूँगा। चुनावी राजनीति के दबाव में आपने सामाजिक न्याय की अपनी तेवर वाली भाषा से भी समझौता किया कि ‘सबका’ वोट लेकर आप जीत सकें। समर्थन व वोट मिले भी हैं। लेकिन सामाजिक न्याय के बाद आर्थिक न्याय की बात एक गंभीर चूक है। ‘बाद’ की बजाय ‘साथ’ होना चाहिए था। क्योंकि असल में सामाजिक न्याय में ही आर्थिक, लैंगिक सब न्याय समाहित हैं। वोट के दबाव एक राजनीतिक दल पर होते ही हैं, बावजूद इसके आपने ख़ुद ही तो सामाजिक न्याय की रेडिकल पक्षधरता को लेकर उम्मीद जगाई है। वापस वही तेवर अख्तियार करना चाहिए। सड़क से सदन तक।
दूसरी बात, सामाजिक न्याय की ज़मीन पर चुनावी राजनीति करने वाले दलों को हर एक जमात के प्रतिभाशाली, तेज़ तर्रार, वैचारिक प्रतिबद्धता वाले युवाओं को मौक़ा देकर अगुआ नेता के बतौर स्थापित करना चाहिए। सामाजिक न्याय पर किसी एक जाति का आरोप बहुत कुछ लील रहा है। कोशिश सब कर रहे हैं, आपने भी की। लेकिन अब इसे प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। किसी राजनीतिक दल में हर कोई अपने खित्ते के ‘अपनों’ को आगे खड़ा देखना चाहता है। क्योंकि अभी समाज बदला नहीं है। वोट जाति देखकर करता है। आप जैसे नेताओं को ‘अपनों’ का और ज़्यादा भरोसा जीतना होगा। माना मुश्किल है, लेकिन इस रस्ते को नहीं छोड़ना चाहिए।
बाकी हम जैसों की भूमिका यही है कि हम सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों व बदलावों के लिए काम करते रहें। हम जैसे लोग चुनाव नहीं लड़ रहे। इसलिए हम एक आलोचनात्मक नज़रिया हर वक़्त रखते हैं। मौजूदा विकल्पों में सबसे कम पथभ्रष्ट, विचारभ्रष्ट, नैतिकता भ्रष्ट के साथ खड़े होकर सबसे बड़े ख़तरे को हराने की बात करते हैं, क्योंकि चुनावी राजनीति में निर्वात कभी नहीं हो सकता। इसलिए हम महागठबंधन के साथ रहे। इसके साथ ही नए नए विकल्पों के लिए काम करते हैं। वे आदर्श विकल्प, जो वाक़ई फुले बिरसा आम्बेडकर के नाम पर चुनाव लड़ें और जीत कर असल में सामाजिक न्याय करें
आप एक राजनीतिक दल व राजनेता के बतौर उभरे हैं। आपका भविष्य है। कुछ नया किया है, कुछ बेहतर किया है, अथक मेहनत की है। आपको बधाई। जीत कर काम करते तो एक नई इबारत दर्ज़ होती। अफ़सोस कि आपको रोका गया। येन केन प्रकारेण रोका गया। लेकिन अब इसी तेवर को बनाए रखिए। माले जैसे दलों के साथ सड़क से सदन तक आम आवाम के सरोकारी मुद्दों के साथ लड़ेंगे और जीतेंगे। आशा है आप और आपके सलाहकार अपनी सियासी रणनीतियों पर मंथन ज़रूर करेंगे और कुछ और बेहतर लौटेंगे।
लौट कर यक़ीनन मैं एक रोज़ आऊँगा, पलकों पे चराग़ों का एहतिमाम कर लेना।
हमारी दिल की बात पूछें तो हम तो चाहते हैं कि अब पूरे पाँच साल फुले आम्बेडकर पेरियार लोहिया कर्पूरी के रस्ते पर दौड़ पड़ें। मौक़ा है, वक़्त की माँग है, दस्तूर है। वरना चुनावी हार जीत से कहाँ बहुत कुछ हो रहा। जिनसे महागठबंधन की लड़ाई थी, वे निहायत अनैतिक ताक़तें हैं। वे समाज का बहुत नुकसान कर रहीं। समाज लड़ भी रहा है। इसलिए हम जैसे लोग महागठबंधन को जीतता हुआ देखना चाहते थे। हमारी नज़र में तो आप सब जीते भी हो। मग़र छल से हारे। अब फिर से लौटिए। सड़क से लेकर सदन तक सब जगह खाली है।
फ़िलवक्त एक शानदार लड़ाई के लिए बधाई।
लेखक लक्ष्मण यादव जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। आप उन्हें फेसबुक पर यहां फॉलो कर सकते हैं।

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