निकाय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की निर्णायक जीत का मतलब 45 साल के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अपने घरेलू राज्य में और निखरकर सामने आना है. योगी ने पूरे उत्तर प्रदेश मे तूफानी प्रचार अभियान चलाया और चुनाव के परिणाम यह साबित करते हैं कि उनका यह बड़ा दांव पूरी तरह से सही था. बीजेपी ने 16 में से 14 नगरपालिका अपनी झोली में डालीं, तो दो परिणाम मायावती के पाले में गए. यह बताता है कि जमीनी स्तर पर यह बीएसपी का पुनरुत्थान है. मार्च में योगी आदित्यनाथ के बतौर मुख्यमंत्री आश्चर्यजनक ‘अभिषेक’ के बाद नगर निकाय चुनाव के परिणाम उनके नए ‘हिंदुत्व ऑयकॉन’ के ओहदे को और मजबूती प्रदान करता है. इससे पहले इसी काम के लिए योगी की पहले हिमाचल प्रदेश और फिर अब गुजरात में तैनाती की गई है. इस बात ध्यान रखें कि योगीनाथ की शासन दक्षता पर अभी भी खुले तौर पर सवाल लगा हुआ है. यह भी सही है कि यह सवाल अगस्त में उनके विधानसभा क्षेत्र के अस्पताल में हुए हादसे में मारे गए लगभग 60 नवजात बच्चों की मौत के कारण नहीं खड़ा हुआ. बहरहाल, इस नगर निकाय चुनाव का एक बड़ा शीर्षक यह है और होना भी चाहिए कि गोरखपुर में वार्ड नंबर-68 में बीजेपी की माया त्रिपाठी हार गईं. यह उस गोरखनाथ मंदिर का घर है, जिसके मुख्य पुजारी योगी आदित्यनाथ हैं.
यहां रुचिकर बात यह है कि उनके सबसे बड़े आलोचक और अमित शाह के पसंदीदा उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को भी अपने घरेलू शहर में जोर का झटका लगा है. केशव के घरेलू शहर कौशांबी की सभी छह नगर पंचायतों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. वास्तव में बीजेपी ने कांग्रेस की बड़ी पराजय के प्रचार-प्रसार (जहां केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी बहुत ही टकटकी लगाकर नजरें गड़ाए हुए थीं) के लिए राहुल गांधी के लोकसभा सीट अमेठी को चुना है. यहां से बीजेपी ने शहरी निकाय चुनाव जीता है. निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश के नगर निकाय के चुनाव वित्त मंत्री अरुण जेतली जैसे बीजेपी के नेताओं को यह कहने का अवसर देते हैं कि यह परिणाम नोटबंदी और जीएसटी की सफलता का जनमत संग्रह रहा. वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस परिणाम को बहुत ही गर्मजोशी के साथ लड़े जा रहे गुजरात चुनाव में अग्रदूत के रूप में पेश कर सकते हैं. अमित शाह पहले से ही यह कह चुके हैं कि यूपी के निकाय चुनाव गुजरात में उनके साहसी ‘मिशन 150’ का संकेत हैं.
अब जबकि बीजेपी ने निकाय चुनावों के प्रति ऐसा जुनून, जज्बा और ध्यान दिखाया है, जो किसी भी तरह के चुनावों के प्रति उसका रवैया और खास गुण में तब्दील हो चुका है. लेकिन बाकी दूसरी पार्टियां इन तमाम बातों के प्रति ढीली दिखाई पड़ीं. ऐसा पहली बार हुआ, जब बीजेपी ने निकाय चुनावों के लिए घोषणा-पत्र जारी किया. वहीं, बाकी पार्टियों ने बीजेपी का अनुसरण करते हुए अपनी पार्टी का चुनाव चिह्न उम्मीदवारों को बांटा. वहीं, विधानसभा चुनाव के बाद पूरी तरह खारिज कर दी गईं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती दो नगरपालिका कब्जाने के साथ इस छोटी वापसी पर थोड़ी राहत महसूस कर सकती हैं. लेकिन यहां अखिलेश यादव को चिंतित होना चाहिए क्योंकि अभी भी प्रदेश के वोटरों का उनको लेकर मोहभंग बना हुआ है. इनके अलावा देश के सबसे बड़े राज्य की आखिरी पायदान के चुनाव में भी कांग्रेस पतन की राह पर दिखाई पड़ी. यह एक ऐसी पार्टी के लिए चिंता की बात है, जो खुद पर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में गर्व करती है. उसे ध्यान रखना होगा कि अगले आम चुनाव के बीच बमुश्किल ही 18 महीने का समय बाकी बचा है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटे हैं और दिल्ली में सत्ता का रास्ता इस प्रदेश से होकर गुजरता है.
एक समय था, जब राष्ट्रीय चुनावी परिदृश्य के तहत कांग्रेस और बाकी दो क्षेत्रीय पार्टियों सपा और बसपा के गठजोड़ की चर्चाएं हो रही थीं. खुद अखिलेश यादव सार्वजनिक तौर पर इस तरह की बातें कर रहे थे, लेकिन अब यूपी के वोटरों को लेकर यह गठजोड़ भी नाकाम दिखाई पड़ता है. निकाय चुनाव के परिणाम साफ तौर पर बताते हैं कि योगी आदित्याथ ने उच्च जातियों के वोट बैंक पर अपनी पकड़ बरकरार रखी है. परिणाम यह भी बताते हैं कि विधानसभा चुनाव में उनके द्वारा अपनाया गया अगड़ों और गैर-जाटव दलितों का विजयी फॉर्मूला विफल नहीं हुआ है. वर्तमान में विपक्ष और बीजेपी इस पर बहस में जुटे हैं कि राहुल गांधी ‘वास्तविक हिंदू’ हैं या नहीं, कैसे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू गुजरात में सोमनाथ मंदिर का निर्माण नहीं चाहते थे, कैसे मोरबी में इंदिरा गांधी ने अपनी नाक पर रुमाल ढक लिया था. हालिया समय तक कांग्रेस आर्थिक मुद्दों और गुजरात मॉडल पर बीजेपी को घेर रही थी. लेकिन वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सुरजेवाला के यह कहने के बाद कि राहुल गांधी एक जनेऊधारी ब्राह्मण हैं, कांग्रेस अब ‘जनेऊ’ में उलझती दिखाई पड़ रही है. सुरजेवाला के इस बयान पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने इस पर रोष प्रकट करते हुए कहा कि हमने खुद को बीजेपी के जाल में फंसा लिया है. बीजेपी हमसे बड़ी हिंदू है. हम ‘भगवाधारी’ योगी आदित्यनाथ का मुकाबला नहीं कर सकते.
यह बहुत ही अजीब सी बात है कि काग्रेस ऐसा सोचती जान पड़ती है कि बीजेपी के साथ ‘हिंदुत्व गेम’ खेलने की कोशिश चुनावी फायदा हासिल करने का एक तरीका हो सकता है. वास्तव में इस बाबत नरेंद्र मोदी के मुकाबले दूसरा कोई बेहतर ‘कलाकार’ नहीं है. उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव विपक्ष के लिए एक चेतावनी होनी चाहिए. कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि जो भी वैकल्पिक कहानी-किस्से वह लोगों के समक्ष पेश कर रही है, उसमें बेचने के लायक आकर्षक कुछ भी नहीं है. यह साफ दिखाई पड़ता है.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘द स्टेट्समैन’ तथा ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ के साथ काम कर चुकी हैं… एनडीटीवी से साभार

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।