Wednesday, April 16, 2025
HomeTop Newsकांग्रेस और डॉ. अंबेडकर को आमने-सामने खड़ा करने का भाजपाई षड्यंत्र

कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर को आमने-सामने खड़ा करने का भाजपाई षड्यंत्र

यह बिल समस्त हिन्दू महिलाओं की समानता के लिए था और नेहरू जी भी उतने ही पास कराने के इच्छुक थे, जितना बाबा साहब डॉ. अंबेडकर। इस बिल के विरुद्ध पूरे देश में आरएसएस और हिन्दू महासभा ने धरना-प्रदर्शन जारी रखा था और कांग्रेस के अंदर से भी इसका विरोध था।

डॉ. अंबेडकर ही एक ऐसे महापुरुष हैं जिनका जन्मदिन, उनके जन्मदिन से पहले और सप्ताह और महीनों बाद तक मनाया जाता रहता है। संविधान निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका के बारे में कौन नहीं जानता? संविधान में बहुत सारे प्रावधान हैं लेकिन अभी भी उनको अमल में लाना रह गया है। संविधान में आरक्षण का प्रावधान तो है लेकिन सरकारी नौकरी हो या शिक्षा उसमें कोटा की सीमा का निर्धारण नहीं हैं। सरकार की इच्छा शक्ति और ईमानदारी न होती तो अन्य प्रावधान जैसे आरक्षण को भी न लागू किया गया होता। संविधान में प्रावधान जरूर हैं लेकिन उतना पर्याप्त नहीं है, अगर सत्ताधारी सरकारें न चाहें। संविधान की धारा 16 (2) के अनुसार किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी रोजगार या पद के लिए अपात्र नहीं ठहराया जाएगा या उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

अब भी संविधान वही है लेकिन जमीन-आसमान का फ़र्क़ देखने को मिल रहा है। कांग्रेस के शासनकाल में दलितों और आदिवासियों को मुफ्त शिक्षा, वजीफ़ा, हॉस्टल की सुविधा मिली और वे पढ़ गए। सरकारी विभाग बनें और उनका विस्तार हुआ, जहाँ उन्हें नौकरी मिली। सार्वजनिक प्रतिष्ठान खड़े किए गए और लाखों-करोड़ों नौकरियां सृजित हुईं और रोजगार मिला। एयर इंडिया, एलआईसी, बैंक, कोयला, तेल की कंपनियां आदि के राष्ट्रीयकरण से लाखों रोजगार मिले। दलित-आदिवासी इसलिए पढ़ गए कि मुफ्त शिक्षा ही नहीं मिली, बल्कि वजीफा और हॉस्टल की सुविधा भी मिली। इस तरह से मध्यम वर्ग तैयार हुआ और वह सामाजिक न्याय को समझने लगा। कोटा-परमिट में भी आरक्षण के कारण लाखों लाभार्थी पैदा हुए जिससे उनकी आर्थिक व सामाजिक ताक़त बढ़ी। आपातकाल में इनका सबसे ज़्यादा उत्थान हुआ और 20 सूत्रीय कार्यक्रम के तहत कई लाभ मिलें और उसमें भूमिहीनों को जमीन मिल सकी। सरकारी नौकरी और शिक्षा में आरक्षण के कारण एक मध्यम वर्ग खड़ा हो गया और फिर उसकी आकांक्षा बढ़ने लगी। इन्होंने ही डॉ. अंबेडकर के विचार को फैलाया और 1980 के दशक से इनका नाम व विचार गांवों तक पहुँचने लगा। लेखन और मीडिया की भूमिका के कारण ऐसा नहीं हुआ बल्कि उनके अनुयायी प्रचार करने का कार्य किए। जब डॉ. अम्बेडकर के विचार फैलने लगे तो स्वाभाविक रूप से ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले, शाहूजी महाराज, पेरियार, नारायण गुरु, संत गाड़गे, अय्यंकाली आदि के विचार का फैलाव स्वतः होना ही था। जैसे ही हिस्सेदारी की रफ्तार बढ़ी, रुकावट आ गई। तथाकथित बहुजन मूवमेंट ने इन्हें हुक्मरान का सपना दिखा दिया और जो कुछ मिल रहा था उसके लिए भी लड़ना और माँगना छोड़ दिया। देने वाली कांग्रेस को भी छोड़ते गए। अगर विकास की रफ्तार वही होती तो अब तक उद्योग, मीडिया और अन्य क्षेत्रों में भी हिस्सेदारी हो गई होती।

दलित समाज का मध्यम वर्ग परिपक्व होता, उसके पहले तथाकथित बहुजन मूवमेंट ने उसे भावनात्मक बनाकर झाड़ पर चढ़ा दिया। आरक्षण खत्म हो, जमीन का सवाल हो, निजीकरण का मुद्दा हो, उत्पीड़न, शिक्षा का निजीकरण और महंगी होना, संसद में सवाल उठाना, व्यक्तिगत समस्या या किसी तरह से भी अधिकार का हनन आदि सबका एक ही जवाब कि तुम्हें हुक्मरान बनना है और छोड़ो इन छोटी-छोटी बातों को। हमारी आबादी 85% है, हम देने वाले बनेगें। इस तरह से बात रखी कि अब सत्ता आने वाली है और जैसे आदिवासी और पिछड़ा वर्ग इनसे कोई संधि या करार कर लिया हो। ज़ोर-ज़ोर से कहा कि अब बहुजन एक होने वाले हैं। किसी बात को बार-बार कहा जाए तो लोग सच मानने लगते हैं। दूसरी तरफ करीब 50% ओबीसी जिसे मण्डल कमीशन के साथ खड़ा होना था, वह जाकर कमंडल से जुड़ गया। मण्डल के विरुद्ध में कमंडल को जबरदस्त समर्थन के पीछे पिछड़े ही थे। ऐसे में कैसे आरक्षण, शिक्षा, जमीन जैसे सवाल को नजरअंदाज करके सत्ता प्राप्ति के सपने के लिए सारी ताकत झोंक दिया। जो पिछड़ा अपने विरोधी के साथ खड़ा होने में गर्व कर रहा था, उसका झूँठा भरोसा दिखाकर दलित वर्ग के मध्यम वर्ग को मूर्ख बनाकर खूब समर्थन बटोरा। होना तो यह चाहिए था कि सत्ता प्राप्ति की लड़ाई चलती रहती लेकिन जो हिस्सेदारी मिल रही थी, उन मुद्दों को सड़क से संसद तक उठाया जाता रहता।

डॉ. अंबेडकर के विचार को सुविधानुसार ग्रहण किया, जातियों के संगठन खड़े करने लगे और सबको कहा कि अपनी-अपनी जाति को सांगठित करो। डॉ. अंबेडकर ने जातिविहीन समाज की बात किया था और ये जाति की दीवार मजबूत करने में लगे रहे। बढ़ती हिस्सेदारी रुक गई और यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि ख़ुद अपने विकास के रास्ते के अवरोधक बन गए। कल्याणकारी योजनाएं दम तोड़ती गईं और उसे बचाने में ताक़त लगाने के बजाय सिर्फ राजनीतिक सत्ता हासिल करने में जुटे रहे। विशेष रूप से उत्तर भारत में कांग्रेस को प्रमुख विरोधी मान लिया और सारी ताक़त, संसाधन और सोच एक ऐसे सपने के लिए लगाना शुरू कर दिया जो व्यावहारिक न थी। पिछड़ा साथ न हो, आदिवासी समाज सोया हो, मुस्लिम बीजेपी हराने में लगे हों और अधिकारों के लिए संसद से लेकर सड़क तक कोई आवाज़ और संघर्ष न रहा हो तो कैसे बचते अधिकार? अधिकार देने वाली कांग्रेस को ही चमचा पैदा करने का दोषी और अंबेडकर विरोधी बताया। वोट भी देना बंद कर दिया तो ऐसे में कौन सी ताक़त बची कि वह अधिकारों के लिए संघर्ष करती?

कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर को आमने-सामने खड़ा करने के पीछे तथ्यहीन और विचारहीन बातें रहीं। हिन्दू कोड बिल न पास होने से दुखी डॉ. अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। ज्ञात रहे कि क्या बिना मंत्रिमंडल की मंशा के बिल पेश किया जा सकता था? यह बिल समस्त हिन्दू महिलाओं की समानता के लिए था और नेहरू जी भी उतने ही पास कराने के इच्छुक थे, जितना बाबा साहब डॉ. अंबेडकर। इस बिल के विरुद्ध पूरे देश में आरएसएस और हिन्दू महासभा ने धरना-प्रदर्शन जारी रखा था और कांग्रेस के अंदर से भी इसका विरोध था। नेहरू जी ने ही इसको बाद में पास भी कराया था। तो इस तरह से कांग्रेस को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है? एक भावनात्मक आरोप यह भी लगाया जाता है कि कांग्रेस ने भारत रत्न नहीं दिया। तो इसको कैसे दलित विरोधी कहा जा सकता है, क्योंकि भारत रत्न तो सचिन तेंडुलकर जैसे लोगों को भी मिल गया है। संविधान निर्मात्री समिति का चेयरमैन और कानून मंत्री कांग्रेस ने बनाया तभी तो बाबा साहब डॉ. बी. आर. अंबेडकर यह सब कर सके। एक निराधार आरोप और लगाया जाता है कि बाबा साहब को कांग्रेस ने चुनाव में हराया जबकि यह गलत है। 1952 में चुनाव हारने का कारण कम्युनिस्ट नेता एस. ए. डांगे और सावरकर थे। दुनिया में कोई चुनाव हारने के लिए नहीं लड़ता। आजादी के बाद डॉ. अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, उन्हें कांग्रेस ही चुनवाकर फिर से लाई।

अनुयायी अपने गिरेबान में झाँककर देखें कि क्या वे जाति के बंधन से मुक्त हो गए हैं? क्या संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं? क्या दलित जातियों ने आपस में रोटी-बेटी का संबंध कायम करना शुरू कर दिया है? तर्क और तथ्य से परे हटकर जातीय मानसिकता से नहीं सोच रहे हैं? क्या पुरुष सत्ता की मानसिकता से मुक्त हो सके हैं? राहुल गांधी संविधान बचाने की लड़ाई संसद से सड़क तक लड़ रहे हैं, बाबासाहेब के अनुयायी कितनी ईमानदारी से उनका साथ दे रहे हैं? अनुयायियों को सोचने और समझने का समय ज्यादा नहीं रह गया है। सबकुछ खत्म हो जाने के बाद होश में आने का क्या फायदा होगा?

लोकप्रिय

अन्य खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content