राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान 4 फरवरी को एक ऐसा तथ्य सामने आया है, जिससे भारत के करोड़ों ओबीसी, दलितों और आदिवासियों की शिक्षा के बारे में एक बड़ा खुलासा हुआ है। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने 4 फरवरी को राज्यसभा में उच्च शिक्षा को लेकर ऐसा तथ्य सामने रखा जो न सिर्फ चौंकाने वाला है, बल्कि बहुजन समाज को सचेत भी करता है। केंद्रीय मंत्री द्वारा रखे आंकड़े बताते हैं कि देश में उच्च स्तर के विज्ञान शिक्षण संस्थानों के पीएचडी कार्यक्रमों में भारत के बहुजन छात्रों की उपस्थिति बहुत कमजोर हुई है। आँकड़े के मुताबिक इन संस्थाओं में पीएचडी स्तर के कार्यक्रमों में जिस अनुपात में ओबीसी, एससी और एसटी के छात्रों की संख्या होनी चाहिए उतने छात्र वहाँ प्रवेश नहीं ले पा रहे हैं।
भारत के सर्वोच्च विज्ञान शिक्षण संस्थान, बेंगलुरु के ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ (आईआईएससी) का उदाहरण देखिए। इस संस्थान में वर्ष 2016 से 2020 के बीच पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला लेने वाले उम्मीदवारों में से केवल 21 प्रतिशत उम्मीदवार एसटी वर्ग से, 9 प्रतिशत एससी से और 8% ओबीसी वर्ग से थे। इसका अर्थ हुआ कि इस संस्थान में पिछड़ों की स्थिति दलितों से भी खराब है। इस संस्थान में इंटीग्रेटेड पीएचडी कार्यक्रमों में कुल प्रवेश प्राप्त छात्रों में 9 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 12 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 5 प्रतिशत ओबीसी वर्ग से थे।
दूसरी तरफ देश के 17 आईआईआईटी (भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों) में कुल पीएचडी उम्मीदवारों में से बमुश्किल 1.7%एसटी, 9% अनुसूचित जाति और 27.4%ओबीसी श्रेणियों से थे। इसी तरह भारत के 31 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी (NIT) और सात भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IIRS) में वर्ष 2017 से 2020 के बीच आरक्षित श्रेणी के पीएचडी उम्मीदवारों की संख्या भी बहुत कम है। सन् 2015 से 2019 के बीच आईआईटी-मुंबई में पीएचडी के सभी उम्मीदवारों में से केवल 1.6% एसटी, 7.5% एससी और 19.2% ओबीसी श्रेणी से थे।
चार फरवरी को केंद्रीय शिक्षा मंत्री पोखरियाल ने जो आँकड़े बताए उनमें इन संस्थानों में पीएचडी कार्यक्रमों से ड्रॉपआउट छात्रों के आंकड़े भी शामिल थे। इन सभी संस्थानों में से सात IISER का रिकार्ड विशेष रूप से खराब पाया गया। इसका कारण यह है कि इन संस्थाओं में से अनुसूचित जनजाति श्रेणी के 13.3% छात्रों को बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
यह तब है, जबकि कानूनी रूप से भारत में पिछड़े वर्ग के लिए 27%, अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 15% और जनजाति वर्ग के लिए 7.5% आरक्षण का प्रावधान है। राज्यसभा में शिक्षा मंत्रालय की तरफ से जो आंकड़ा दिया गया उससे साफ पता चलता है कि इन संस्थानों में छात्रों की जितनी संख्या होनी चाहिए, असल में छात्रों की संख्या उससे बहुत कम है। इसका यह भी अर्थ है कि बहुजनों के हक में बने आरक्षण के कानून को कानूनी रूप से कागजों में खत्म किए बिना ही जमीन पर इसे पूरी तरह खत्म कर देने की साजिश रची जा रही है।
नवंबर 2020 में हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में इस मुद्दे पर आंकड़ों सहित खबर प्रकाशित की गई थी। अखबार की उस रिपोर्ट के अनुसार एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के उम्मीदवारों द्वारा पर्याप्त संख्या में आवेदन किए जाने के बावजूद आईआईटी-मुंबई में पीएचडी कार्यक्रमों में आरक्षित वर्ग के छात्रों की संख्या बहुत कम बनी हुई है। यानी साफ है कि इन छात्रों का चयन के दौरान और चयन के बाद पढ़ाई के दौरान इनकी संख्या अचानक से घट रही है।
राज्यसभा में इस चौंकाने वाले खुलासे के बाद भारतीय छात्र महासंघ (एसएफआई) की केंद्रीय कार्यकारी समिति ने एक महत्वपूर्ण बयान जारी किया है। बयान में साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रमुख तकनीकी संस्थानों में आरक्षण के विधान द्वारा बनाए गए मानदंडों के लगातार उल्लंघन के कारण इन संस्थानों में वंचित बहुजनों का प्रतिनिधित्व लगातार काम होता गया है। इसका साफ मतलब यह है कि इन संस्थानों में शिक्षण-प्रशिक्षण का समावेशी माहौल नहीं बन पा रहा है। इसी के चलते छात्रों को बड़ी संख्या में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ रही है।
निश्चित तौर पर वंचित समाज के बच्चों द्वारा बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की एक बड़ी वजह यह भी है और जिस तरह हाशिये के समाज को एक बड़ी साजिश के तरह हर क्षेत्र में आगे बढ़ने को रोका जा रहा है, उसके खिलाफ देश के बहुजनों को आवाज उठाने की जरूरत है।
- रिपोर्ट- संजय श्रमण
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