हम सब के लिए अत्यंत हर्ष एवं गौरव की बात है कि 26 नवम्बर को पिछले दो वर्षो से संविधान दिवस के रूप में मनाने की परंपरा की शुरूआत केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा की गयी है. 26 नवम्बर 1949 को संविधान निर्माता समिति द्वारा भारतीय संविधान का प्रलेख भारतीय गणतंत्र (जन-गण-मन) को समर्पित किया गया था. आम जनमानस की गतिशील चेतना के फलस्वरूप भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथ-निरपेक्ष, समाजवादी तथा राष्ट्र की अखण्डता जैसे नए-नए शब्दों को अंगीकृत किया गया है.
भारतीय संविधान एक स्थूल प्रलेख नहीं है, बल्कि जनमानस की चेतना के अनुरूप गत्यात्मक प्रलेख है, जिसे सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज के रूप में भी परिभाषित किया गया है (जी0 ऑस्टिन). संविधान के संरक्षक यानि उच्चतम न्यायालय को नागरिकों और अल्पसंख्यकों के संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है.
भारतीय संसदीय व्यवस्था में प्रतिपक्ष का होना अपरिहार्य माना गया है. सशक्त एवं जागरूक प्रतिपक्ष के अभाव में संसदीय व्यवस्था स्वयमेव सर्वसत्तावादी व्यवस्था यानि अधिनायकवाद के स्वरूप में परिवर्तित मानी जायेगी. संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुर्नजीवित करने के लिए संवाद, संहिष्णुता, प्रतिपक्ष के रचनात्मक सुझावों को स्वीकार करने की परंपरा को बल प्रदान किया जाना चाहिए. जनवादी सोच से प्रेरित संगठनों/व्यक्तियों को सत्तारूढ़ दल के विचारधाराओं के प्रति संयमित तरीके से असहमति दर्ज करने की स्वतंत्रता प्रदत्त होनी चाहिए, अन्यथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के स्वर स्वतः दफन हो जायेंगे.
संविधान में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं की सुलभता नागरिको के प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21) की श्रेणी में रखा गया (Paschim Banga Kheta Mazdoor Samiti Vs. State of West Bengal, Pt. Parmananda Katara Vs. Union of India). संविधान के अनुच्छेद 41, 42,47 में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के माध्यम से लोक-स्वास्थ्य, पोषण स्तर, काम की न्याय संगत और मानोचित दशाओं के सुधार हेतु उपबंध किये गये हैं.
पंथ-निरपेक्षता को संविधान का आधारभूत ढांचे के रूप में स्वीकार किया गया है. पंथ-निरपेक्ष शब्दावली का तात्पर्य ऐसे राष्ट्र से है जो किसी विशेष धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं प्रदान करता वरन सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है. पंथ-निरपेक्षता की अवधारणा संविधान की ‘‘विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता‘‘ की शब्दावली में विवक्षित है. विगत कुछ वर्षो से जाति विशेष द्वारा राजकीय/संवैधानिक प्रमुखों को राजकीय समारोह के माध्यम तलवार, गदा व फरसा जैसे हथियार उपहार स्वरूप भेंट किये जा रहें है, जो एक तरफ जाति विशेष के शौर्य व पराक्रम का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ जाति विशेष द्वारा अस्त्र-शस्त्र का खुले आम प्रदर्शन तथा संग्रह करने की मनोवृति की राजकीय स्वीकृति है. उक्त आचरण से जाति विशेष द्वारा हिंसा व उदण्ड प्रवृति के प्रचार-प्रसार के स्वीकार्यता को बल मिलता है जबकि घातक हथियारों का सार्वजनिक प्रदर्शन, संग्रह पर कानूनी प्रतिबन्ध है. उक्त प्रकार के कार्यक्रमों, आयोजनों को शासन द्वारा प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.
रोविन्द्रा संजीवईया
प्रवक्ता-हिन्दी
इन्द्रसना इन्टर कॉलेज
बालापार-गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
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